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    फैलती दुनिया में सिमटते सरोकार

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीJune 22, 2017No Comments6 Mins Read
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    मृणाल पांडेय: आप सब गवाह हैं कि इन दिनों लगभग हर दूसरा दफ्तरकर्मी, राहगीर या वाहन चालक ही नहीं, फुटपाथ पर सामान बेचने खड़ा विक्रेता भी आसपास से बेखबर अपने सेलफोन पर बतियाता, स्मार्टफोन पर वीडियो क्लिप देखता या कान में खूंटी डाले संगीत सुनता रहता है। विडंबना देखिए कि जिस युग में बड़ी तादाद में सस्ते से सस्ते उपकरणों पर उपलब्ध नवीनतम एप्लीकेशंस देश के हर उम्र के नागरिक तक तमाम तरह की जरूरी सूचनाएं और जानकारियां 247 पहुंचा सकते हैं, पुलिस, मनोवैज्ञानिक और मीडिया हमको सोदाहरण यह भी दिखा रहे हैं कि हमारे समाज में हर कहीं, हर उम्र के लोगों में असुरक्षा और डिप्रेशन के मरीज व सार्वजनिक जीवन में जुनूनी हिंसक आचरण लगातार बढ़ रहे हैं।

    जाहिर है कि बेरोकटोक बतकही, मनोरंजक कार्यक्रमों और संगीत के इस प्रसार के बावजूद तेजी से शहरी बन रहे हमारे युवा नागरिकों के बीच अजनबियत और तनाव कम होने की बजाय बढ़ रहे हैं। और परिवारों में फेसबुक या ट्विटर पर बड़ी सहजता से घुसकर सोशल मीडिया मंचों से दुनियाभर के लोगों की खबर लेने वालों के बीच दंपतियों, और अभिभावकों का बच्चों, बूढ़ों के साथ सहजता से उठना-बैठना और अंतरंग संवाद करना मिट रहा है।
    उधर कला साहित्य जगत से जुड़े लोगों को भी शिकायत है कि नृत्य संगीत के इतने प्रचार के बाद भी उनके शास्त्रीय रूपों का सामूहिक रूप आनंद लेने अब युवा लोग पुरानी चैनभरी महफिलों में नहीं आते। जबकि वे कानफोड़ू साजों, जगर-मगर स्टेज इफेक्ट और अक्सर तेज रफ्तार लय पर नाच-नाचकर गाए जाने वाले अश्लील फिल्मी या पॉप संगीत के विशाल कार्यक्रमों के टिकट खरीदने को रात-रात भर कतार लगाते हैं। विराट स्टेडियमों या मैदानों में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मदद से बने उनके मनपसंद आभासी नाच-गाने में उमड़ने वाले ये बच्चे या युवा टीवी रियलिटी शोज के मुरीद हैं। और उनके लिए संगीत का मतलब चमत्कार प्रधान शोमैनशिप पर ‘कूल अदा सहित स्टेज पर फूहड़ हरकतों का अंबार लगाना है।

    शहरों में बच्चे भी अब शाम को खेलने को बहुत कम बाहर जाते हैं। खेल का मतलब कुर्सी में पसरकर वीडियो गेम्स या फेसबुक सर्फिंग तक सीमित हो रहा है। यह ठीक है कि हर जमाने के युवा अपने लिए अपनी तरह के कलात्मक और नागरिक सरोकार चाहते हैं। पर बात तब चिंताजनक बन जाती है कि कई जरूरी सामाजिक सरोकारों पर बहस न होने से घर भीतर अकेले अंतमुर्खी जीवन जी रहे नागरिक लोकतांत्रिक सरोकारों तथा आस-पड़ोस से कटकर असामाजिक तत्व बनते जा रहे हैं। रपटें यह भी हैं कि पुलिस ने घर में बंद मानसिक रूप से बीमार मृतप्राय लोगों को ताला तोड़कर निकाला, या दुर्गंध आने पर चौकीदार ने जब पुलिस को इत्तला दी तो अकेले में मर गये या मार दिये गये लोगों के शव बरामद किये गये। ऐसी खबरों पर आज बस कुछ दिन तक मीडिया में सर धुनाई और दोष का बंटवारा किया जाता है, फिर लोग अपने-अपने टीवी के किसी बेहूदा रियलिटी शो, या स्मार्टफोन, लैपटॉप पर उपलब्ध फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब की दुनिया में वापस दाखिल हो जाते हैं।

    युवा अपने जहन में परिवार या लोकतंत्र की नैतिकता को लेकर कोई बोझ नहीं पालते, न ही कैंपस में समानधर्मा लोगों को जुटाकर सामाजिक मुद्दों या सियासी विचारों पर सार्थक बहस व कार्रवाई शुरू करते हैं।
    लोकतंत्र में सच्चा ज्ञान बटोरना रोजमर्रा की दुनिया में सशरीर घुसकर दु:ख थाहना और उसके लिए जोखिम उठाकर भी जिम्मेदारी महसूस करना होता है, पर आज का आम नागरिक जैसा कि कवि टीएस एलियट ने कहा था, बहुत दूर तक वास्तविकता का बोझ नहीं उठाता (ह्यूमन काइंड कैन नॉट बियर वेरी मच रियलिटी)। यही कारण है कि सुरसाकार बनते निजी सूचना साम्राज्य की जी-हुजूरी निरंतर एकाधिपत्य की तरफ लपकते राज समाज के तकलीफदेह ब्योरों से हमें दूर रखे हुए है।

    आज से तीस-चालीस बरस पहले जब दमघोंटू स्थितियां बनीं, संवेदनशील बड़े नेताओं और युवा नागरिकों के बीच लगातार संवाद कायम रहने से राजकीय प्रशासकीय दमनकारिता का सफल प्रतिकार संभव हुआ, पर आज आग की लपटों वाले टीवी संवाद के दौरान मतभेद सहना, कष्टकर होते हुए भी कई तरह की सचाइयों को स्वीकारना, दूसरे वक्ताओं की वैचारिक श्रेष्ठता और अपने ज्ञान की सीमा भी कभीकभार स्वीकार करना जैसे गुण गायब हो चले हैं।

    राजनीति या मीडिया दोनों की वे धंधई मयार्दायें टूट रही हैं, जो इन वैचारिक आदान-प्रदानों को अर्थमय और गंभीर बनाती थीं। काठ जैसे मुख से एक दलीय प्रवक्ता एंकर से कहता है, तुम्हारे चैनल का एजेंडा सरकार विरोधी है। और एंकर उतनी ही तल्खी से जवाब देती है कि जनाब, यह मेरा कार्यक्रम है, या तो आप इस बात के लिए माफी मांगिए या चलते बनिये। यह क्या है? अहं को चोट पहुंचाने वाले झमेलों से बचने का विशिष्टजनों के पास आसान रास्ता है कि स्टूडियो से दनदनाते हुए निकल जाइये, फिर अपनी किसी पसंदीदा सोशल साइट में घुसकर फतवे जारी करा दीजिए।
    अगले दिन जब आरोपी चैनल पर खुफिया रेड होती है तो आप गंभीर चेहरे से कहिए कि कानून अपना काम करेगा। यह होने पर औसत युवा नवीनतम पॉप हिट्स के सेक्सी जलवों, या (खुद खूनी हिंसा का खतरा उठाए बिना) आबादी पर ड्रोन हवाई जहाजों के हमलों, जल डाकुओं से पिटते बंधकों और हॉलीवुड-बॉलीवुड के ताजा स्कैंडलों के नजारों का सीत्कारपूर्ण अवलोकन करने चल देता है। या फिर कान में आईपॉड की खूंटी डाल धमाकेदार संगीत की दीवार खींचकर खुद को बाहरी दुनिया से एकदम काट लेता है। यह जो नया सूचना विश्व हमारे अनचाहे ही रोज-रोज रचा जा रहा है, नासमझ हाथों में जाकर ऐसा खतरनाक सोच बना रहा है, जिसकी तहत सड़कों पर उतरी जुनूनी भीड़ का हाथ में कानून लेना कई लोगों को सही लगता है।

    क्या सूचना संचार क्रांति इसीलिए हुई थी कि दुनिया लोकतंत्रविमुख, मानवता विरोधी, एक दूसरे के सुख-दु:ख से तटस्थ काठ बनती चली जाए? उपकरणों को दोष देना गलत होगा। बेजान मशीनों की नैतिकता तो उनको इस्तेमाल करने वाले राज समाज ही गढ़ते हैं। पर उनके दिलोदिमाग, उनकी नैतिकता कौन गढ़ रहा है, तो जो जवाब मिलता है वह बहुत आश्वस्त नहीं करता। क्या यह विचार हमको कभी चिंतित करता है कि इस सबकी आखिरी परिणति क्या होगी? कुर्सी पर दूर बैठे अपने बंद सुरक्षित कमरों से पूरे देश-विश्व में सशस्त्र क्रांति और खूनी तख्तापलट का आवाहन और हर रंगत के नाटकीय क्रांतिकारियों की हौसला अफजाई करने वालों की इस दुनिया का अंत भी क्या प्रेमचंद की उस अमर कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी के लखनऊ की ही तरह होगा,जहां दरबदर किए जा रहे बादशाह के लिए तो किसी की आंखों में दो बूंद आंसू नहीं थे, पर निर्जीव मोहरों की जंग जीतने के लिए पलक झपकते तलवारें म्यान से बाहर निकलीं और लाशें बिछ गईं!

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