संसद के ऊपरी सदन, यानी राज्यसभा के लिए होनेवाले चुनाव को लेकर इस बार राजनीतिक गहमा-गहमी कुछ ज्यादा ही है। गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक से लेकर झारखंड तक में इस चुनाव को लेकर सियासी गतिविधियां उफान पर हैं। बाकी राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त और पाला बदलने की चर्चाओं के बीच झारखंड में दूसरे कारण से यह चुनाव चर्चा में आ गया है। वैसे तो राज्यसभा का हर चुनाव झारखंड में चर्चित होता है, लेकिन इस बार झारखंड की चर्चा अधिकारों पर पैदा हुई जिच को लेकर है। इस जिच के केंद्र में तीन विधायक हैं, जो विधानसभा चुनाव में झारखंड विकास मोर्चा के टिकट पर चुन कर आये, लेकिन बाद में उनकी राहें अलग-अलग हो गयीं। बाबूलाल मरांडी भाजपा में चले गये, जबकि प्रदीप यादव और बंधु तिर्की कांग्रेस में शामिल हो गये। अब चुनाव आयोग ने बाबूलाल मरांडी को भाजपा का विधायक मान लिया है और प्रदीप यादव और बंधु तिर्की को असंबद्ध यानी निर्दलीय। राज्यसभा चुनाव के निर्वाची पदाधिकारी, यानी विधानसभा के सचिव को इसी अनुरूप मतदाता सूची तैयार करने को कहा है। उधर विधानसभा अध्यक्ष ने अब तक झाविमो के भाजपा में विलय को मान्यता नहीं दी है और इसलिए अभी तक बाबूलाल मरांडी को विधानसभा में भाजपा विधायक की मान्यता नहीं मिली है। अधिकारों की इस लड़ाई के कारण 19 जून को दो सीटों के लिए होनेवाला राज्यसभा चुनाव बेहद रोमांचक हो गया है, क्योंकि अब राजनीतिक दल ही नहीं, दो संवैधानिक संस्थाएं भी आमने-सामने हैं। इसी रोमांच का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
झारखंड में राज्यसभा की दो सीटों के लिए चुनाव 19 जून को होनेवाला है। तीन उम्मीदवारों के बीच होनेवाला यह मुकाबला इतने रोमांचक दौर में पहुंच जायेगा, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन गुरुवार को चुनाव आयोग के नये निर्देश के बाद अब यह साफ हो गया है कि झारखंड में राज्यसभा का यह चुनाव भी बेहद चर्चित और रोमांचक होनेवाला है। यह भी तय हो गया है कि राज्यसभा चुनाव का यह रोमांच 19 जून को ही खत्म नहीं होगा, बल्कि पांचवीं विधानसभा के आगामी सत्रों में भी यह बना रहेगा, क्योंकि सवाल अधिकारों का है और इसका फैसला कौन और कब करेगा, यह भी तय नहीं है।
झारखंड में राज्यसभा चुनाव को लेकर दो संवैधानिक संस्थाएं, चुनाव आयोग और विधानसभा आमने-सामने हैं। इस टकराव का कारण झारखंड विकास मोर्चा नामक वह राजनीतिक दल है, जिसने खुद को भाजपा में मिला लिया है। विवाद यही है, क्योंकि चुनाव आयोग ने जहां इस विलय को कानून सम्मत करार दे दिया है, वहीं विधानसभा के अध्यक्ष ने अब तक इसे मान्यता नहीं दी है। झाविमो ने विधानसभा चुनाव में तीन सीटें जीती थीं, लेकिन बाद में पार्टी ने भाजपा में विलय करने का फैसला किया। पार्टी के चुनाव चिह्न पर चुन कर आये इसके अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी जहां भाजपा में शामिल हो गये, वहीं बाकी के दो विधायक, प्रदीप यादव और बंधु तिर्की कांग्रेस में चले गये। चुनाव आयोग ने छह मार्च को बाबूलाल मरांडी के फैसले को सही करार दिया, लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने इसे अब तक स्वीकार नहीं किया है। वह इन तीनों को अब भी झाविमो का विधायक ही मानते हैं। इसलिए जब राज्यसभा चुनाव की अधिसूचना जारी हुई और निर्वाची पदाधिकारी ने विधानसभा से इस चुनाव के वोटरों की सूची मांगी, तो इन तीनों विधायकों को झाविमो का मानते हुए सूची भेज दी गयी। अब चुनाव आयोग ने इस सूची को खारिज करते हुए नये सिरे से सूची बनाने को कहा है, जिसमें बाबूलाल मरांडी को भाजपा का विधायक और प्रदीप यादव तथा बंधु तिर्की को असंबद्ध विधायक के रूप में शामिल करने को कहा गया है।
यहां सवाल यही उठ खड़ा हुआ है कि विधानसभा अध्यक्ष चुनाव आयोग के इस निर्देश को मानने के लिए बाध्य हैं या नहीं। संविधान के जानकारों का कहना है कि कानूनी तौर पर भले ही विधानसभा अध्यक्ष चुनाव आयोग का निर्देश मानने के लिए बाध्य नहीं हैं, लेकिन नैतिक आधार पर उन्हें इसे स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि चुनाव कराने का पूरा अधिकार केवल चुनाव आयोग के पास है। इसके विपरीत जानकारों के एक वर्ग का मानना है कि चुनाव आयोग का काम केवल चुनाव प्रक्रिया संपन्न कराना है और सदन के अंदर कौन विधायक किस दल का है, इसका फैसला केवल अध्यक्ष ही कर सकते हैं। झारखंड के इस ताजा मामले में 10वीं अनुसूची का प्रावधान भी लागू नहीं होता, क्योंकि न तो किसी ने दलबदल की शिकायत की है और न ही विधानसभा अध्यक्ष ने स्वत: संज्ञान लिया है। ऐसे में बाबूलाल मरांडी को भाजपा का विधायक माना जाये या नहीं, इसका फैसला विधानसभा अध्यक्ष ही ले सकते हैं।
अधिकारों को लेकर दो संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव की यह स्थिति आजाद भारत के इतिहास में इससे पहले कभी नहीं पैदा हुई थी। संविधान के जानकार बताते हैं कि चुनाव आयोग भले ही वोटर लिस्ट में बाबूलाल मरांडी को भाजपा का और प्रदीप यादव तथा बंधु तिर्की को असंबद्ध सदस्य माने, विधानसभा अध्यक्ष इस वोटर लिस्ट को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं।
सदन के भीतर की हर कार्यवाही का जिम्मा सिर्फ और सिर्फ अध्यक्ष का होता है और अदालत भी उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इसलिए राज्यसभा चुनाव का परिणाम चाहे कुछ भी हो, एक बात तय है कि झारखंड इसमें एक नजीर बन कर उभरेगा।
इसलिए झारखंड इस बार भी राज्यसभा चुनाव को लेकर चर्चा के केंद्र में है। इस बार इसकी चर्चा धनबल या सियासत को लेकर नहीं, बल्कि चुनाव आयोग और विधानसभा के बीच पैदा हुए टकराव के कारण हो रही है। इस टकराव का परिणाम क्या होगा और कौन किस पर भारी पड़ेगा, यह फिलहाल भविष्य के गर्भ में है। यदि विधानसभा अध्यक्ष ने चुनाव आयोग का फैसला नहीं माना, तो क्या होगा, यह भी अभी नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इतना तय है कि यह चुनाव बेहद रोमांचक मोड़ पर पहुंच गया है। झारखंड की सियासत पर इस रोमांच का दूरगामी असर पड़ना अब लगभग तय हो गया है। अभी चुनाव में एक सप्ताह का समय शेष है और हर पक्ष अपने-अपने तरकशों की जांच कर रहा है। अगला तीर कहां से निकलेगा और किस पर प्रहार करेगा, यह देखनेवाली बात होगी। फिलहाल तो राज्यसभा चुनाव के सियासी रोमांच का ही मजा उठाना होगा।