विशेष
-कुल 340 सीटों पर विजयी उम्मीदवारों को मिले थे 50 फीसदी से अधिक मत
-वोटों के कम अंतर वाली 124 सीटों पर दोनों को लगाना होगा विशेष जोर
देश भर में इन दिनों 2024 में होनेवाले आम चुनावों के मद्देनजर पार्टियों की गतिविधियां बढ़ रही हैं। पार्टियों के भीतर केंद्रीय और प्रादेशिक स्तर पर ताजा राजनीतिक परिस्थितियों के साथ पिछले चुनाव के परिणामों का गहन विश्लेषण भी किया जा रहा है, ताकि आंकड़ों के आधार पर भविष्य की रणनीति तैयार की जा सके। ये आंकड़े अक्सर बहुत उपयोगी साबित होते हैं, क्योंकि इनसे एक तरफ मतदाताओं के संभावित रुख का पता चलता है, तो दूसरी तरफ राजनीतिक दलों को ये आंकड़े रणनीति बनाने के लिए मजबूत आधार भी प्रदान करते हैं। इसलिए चुनाव के दिनों में आजकल प्रशांत किशोर जैसे चुनावी रणनीतिकारों का मार्केट वैल्यू काफी बढ़ जाता है, क्योंकि वे आंकड़ों के आधार पर रणनीति तैयार करते हैं। जहां तक 2024 के चुनावों का सवाल है, तो भाजपा और विपक्षी दल भी 2019 के आंकड़ों के विश्लेषण में तो जुटे ही हैं, देश-विदेश के कई अन्य संस्थान भी इस काम में अभी से जुट गये हैं और इसी आधार पर 2024 के परिणाम की संभावनाओं पर रोशनी डाल रहे हैं। चुनाव परिणाम के आंकड़ों का विश्लेषण करना राजनीतिक रूप से इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि इसकी मदद से ही आगे के रास्ते का अंदाजा मिल सकता है। भाजपा और विपक्ष के दृष्टिकोण से 2024 का चुनाव ‘करो या मरो’ वाला साबित होनेवाला है, इसलिए दोनों पक्ष अभी से इस काम में जुट गये हैं। 2019 के चुनाव में वोट शेयर के आंकड़ों के आधार पर सीटों का खास समीकरण बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
देश भर में इन दिनों राजनीतिक पार्टियां 2024 में होनेवाले आम चुनावों की तैयारियों में जुटी हुई हैं। लगातार तीसरी बार सत्ता में आने के लिए भाजपा का अभियान जोर पकड़ने लगा है, तो विपक्षी दल भी भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं। सियासी नजरिये से इस हलचल भरे माहौल में 2019 में हुए चुनावों के आंकड़ों का विश्लेषण भी बेहद रोचक और मतदाताओं के रुख की तरफ तो संकेत करता है, राजनीतिक दलों की तैयारियों की तरफ भी इशारा करता है।
क्या कहते हैं 2019 के आंकड़े
2019 में हुए आम चुनाव में भाजपा ने 436 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से उसने 304 पर जीत हासिल की थी। यदि इन सभी सीटों पर जीतनेवाले उम्मीदवारों को मिले वोटों का प्रतिशत देखा जाये, तो भाजपा को 224 सीटों पर कुल वोटों का 50 प्रतिशत से अधिक हासिल हुआ था। इसका मतलब यह है कि इन 224 सीटों पर यदि गैर-भाजपा उम्मीदवारों, निर्दलीय उम्मीदवारों और नोटा के सभी वोटों को एक साथ जोड़ भी दिया जाता, तो भी इन सीटों पर जीत भाजपा प्रत्याशी की ही होती। इस लिहाज से यदि मतदाताओं का यही ट्रेंड कायम रहा, तो भाजपा को 2024 में इतनी सीटें तो निश्चित रूप से मिलेंगी ही और 272 का जादुई आंकड़ा छूने के लिए उसे 48 और सीटें चाहिए होंगी। यानी भाजपा अपने मिशन 2024 को हासिल करने के लिए गिनती 224 से शुरू कर सकती है। सबसे खास बात यह है कि 2019 में इस बड़े वोट शेयर से भाजपा ने जो 224 सीटें जीतीं, वह 1984 के बाद से किसी भी एक पार्टी के लिए सबसे अधिक है। भाजपा की यह उपलब्धि इसलिए भी उल्लेखनीय हो जाती है, क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों में उसके केवल 136 सांसदों ने 50 प्रतिशत या उससे अधिक वोट शेयर हासिल किया था। पार्टी ने इस वोट शेयर के साथ न केवल अपनी सीटों की संख्या में बढ़ोतरी की, बल्कि व्यापक भौगोलिक विस्तार में ऐसी जीत भी दर्ज की। इसलिए जो लोग 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा से मुकाबला करने के लिए एक गठबंधन की कल्पना कर रहे हैं, उनके लिए चुनौती जबरदस्त लगती है। हालांकि विपक्षी दलों, जिनमें से 15 ने संयुक्त रणनीति बनाने के लिए पिछले सप्ताह पटना में बैठक की, उनका दावा है कि ऐसी संख्या पूरी कहानी नहीं बताती हैं।
2019 में विपक्षी उम्मीदवारों को कैसी जीत मिली
पिछले आम चुनावों में जहां तक 238 विपक्षी उम्मीदवारों की जीत के अंतर का सवाल है, तो इन उम्मीदवारों ने 126 सीटों पर 50 फीसदी से अधिक वोट हासिल किये थे, यानी इन सीटों पर विपक्ष को भाजपा से बहुत अधिक घबराने की जरूरत नहीं है। इसलिए विपक्ष को 272 का जादुई आंकड़ा हासिल करने के लिए अपनी गिनती 126 से शुरू करनी होगी।
कम अंतर से जीत दिलानेवाली सीटों पर लगाना होगा जोर
2019 के चुनाव में 124 ऐसी सीटें थीं, जहां जीत-हार का अंतर बहुत कम था या जीतनेवाले प्रत्याशियों से अधिक वोट उनके प्रतिद्वंद्वियों, निर्दलीय उम्मीदवारों और नोटा को मिले थे। भाजपा और विपक्षी दलों को इन सीटों पर ही जोर लगाना होगा, जो अंतत: 2024 में निर्णायक साबित हो सकते हैं।
आंकड़ों का मायाजाल ग्राउंड वर्क के लिए है जरूरी
यह सही है कि देश में ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट’ (एफपीटीपी) चुनावी प्रणाली का पालन होता है, जहां सबसे अधिक वोट पानेवाला उम्मीदवार जीतता है, भले ही उसके पास बहुमत हो या नहीं। इसलिए वोट शेयर की केवल सीमित प्रासंगिकता है, लेकिन यदि आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है, तो कम से कम इनके आधार पर भावी रणनीति तैयार करने में मदद तो मिल ही सकती है। जानकार कहते हैं कि इस प्रणाली में किसी निर्वाचन क्षेत्र में 50 प्रतिशत से अधिक वोटों से जीतने वाले उम्मीदवार का मतलब उम्मीदवार या पार्टी की स्थानीय लोकप्रियता से ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन अगर ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़ती है, जैसा कि 2019 में भाजपा के मामले में हुआ, तो यह निश्चित रूप से उस पार्टी के बढ़ते वर्चस्व को रेखांकित करता है। हालांकि कुल प्रतिशत में वोट शेयर से केवल इतना ही हासिल किया जा सकता है और पार्टियां इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं। चुनावी आंकड़ों के जानकारों के अनुसार, अधिक सीटें जीतने के लिए किसी पार्टी को केवल वोट शेयर में कुल मिला कर बढ़ोतरी दर्ज़ करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन निर्वाचन क्षेत्रों में पर्याप्त वोट प्राप्त करने के बारे में अधिक व्यवस्थित रणनीति बनानी जरूरी है, जहां वे कम अंतर से हार गये हैं। अधिकांश पार्टियां इसके बारे में जानती हैं और इस बिंदु पर ध्यान देती हैं। इसलिए जीती हुई सीटों के मुकाबले सभी पार्टियां इन आंकड़ों की मदद से कम अंतर से हारी हुई सीटों पर ध्यान केंद्रित करती हैं।
इस तरह यह साफ हो जाता है कि भाजपा को अपने गढ़ों को बरकरार रखने के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी अपनी सीटें बढ़ाने के लिए संतुलन बनाना होगा, जहां उसकी पकड़ कम है। भाजपा जिस तरह से भावनात्मक मुद्दों पर जोर दे रही है, उससे ऐसा नहीं लगता है कि उसे अपना लक्ष्य हासिल करने में बहुत अधिक मशक्कत करनी होगी। इस बात में कोई संदेह नहीं कि भाजपा के पास नरेंद्र मोदी के करिश्मे का ऐसा ब्रह्मास्त्र है, जिसकी काट आज की तारीख में विपक्ष के पास नहीं है। चुनावों में मोदी इफेक्ट का आलम यह है कि वह जहां जाते हैं, चुनावी हवा ही बदल जाती है। और भाजपा यह जानती है कि लोकसभा चुनाव में वोट स्थानीय मुद्दों या चेहरों पर कम, केंद्रीय मुद्दों और पीएम के चेहरे पर ही देते हैं।