विशेष
-समानता और सामाजिक एकता की दिशा में एक सकारात्मक कदम होगा
-इस मुद्दे पर मोदी सरकार और भाजपा के रुख से क्यों बेचैन हैं विपक्षी दल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मंगलवार को भोपाल में पहली बार समान नागरिक संहिता पर इतनी तवज्जो दी गयी। इसलिए अब यह मुद्दा सियासत के केंद्र में आ गया है। वैसे भी हाल के दिनों में इसको लेकर राजनीतिक माहौल गर्म है। एक ओर जहां देश की बहुसंख्यक आबादी समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कर रही है, तो वहीं अल्पसंख्यक वर्ग इसका विरोध कर रहा है। चूंकि समान नागरिक संहिता भाजपा के प्रमुख एजेंडे का हिस्सा है और केंद्र सरकार अनुच्छेद 370 और तीन तलाक जैसे विवादित मुद्दों को खत्म कर चुकी है, तो ऐसे में यह माना जा रहा है कि आज नहीं तो कल मोदी सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की पहल कर सकती है। इसमें संदेह नहीं है कि समान नागरिक संहिता से समाज में एकरूपता लाने में मदद मिलेगी। समान नागरिक संहिता लागू हो जाने से विवाह, गोद लेने की व्यवस्था, तलाक के बाद महिलाओं को उचित भरण-पोषण देने जैसे मसलों में भी समानता लायी जा सकेगी । संविधान के अनुच्छेद 44 में नागरिक संहिता की चर्चा की गयी है। इससे साफ है कि संविधान निर्माता यह चाहते थे कि देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू हो। संविधान में मूल अधिकारों में विधि के शासन की अवधारणा विद्यमान है, लेकिन इन्हीं अवधारणाओं के बीच लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियां भी व्याप्त हैं। विधि के शासन के अनुसार, सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून होना चाहिए, लेकिन समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है। इस संवेदनशील मुद्दे पर जारी सियासत की पृष्ठभूमि में समान नागरिक संहिता के बारे में पूरी जानकारी दे रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को भोपाल में भाजपा के एक कार्यक्रम में पहली बार समान नागरिक संहिता के बारे में अपनी राय रखी। उन्होंने अपने संबोधन में समान नागरिक संहिता के महत्व को रेखांकित करते हुए भारत में इसकी जरूरत बतायी। हालांकि पीएम मोदी के संबोधन से पहले से ही यह मुद्दा देश के सियासी माहौल में छाया हुआ है, लेकिन अब यह केंद्र में आ गया है। अब इस बात की संभावना बन गयी है कि भाजपा अपने इस चौथे वादे को अगले कुछ महीने में पूरा करेगी। भाजपा के तीन प्रमुख वादे, राम मंदिर, धारा 370 और तीन तलाक पूरे हो चुके हैं। इसलिए समान नागरिक संहिता पर उसके हाल के रुख को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा रहा है कि वह इस वादे को भी 2024 के चुनाव के पहले पूरा करेगी।
कैसे शुरू हुआ यह मुद्दा
भारत के 22वें विधि आयोग ने हाल ही में सार्वजनिक और धार्मिक संगठनों सहित विभिन्न हितधारकों से समान नागरिक संहिता पर नयी सिफारिशें आमंत्रित कीं। चूंकि इस विषय पर पिछले विधि आयोग का परामर्श दस्तावेज तीन वर्ष से अधिक पुराना था, इसलिए पैनल ने नयी सिफारिशों का अनुरोध किया। विवाह, तलाक, विरासत, भरण-पोषण और गोद लेने जैसे विषयों में समान नागरिक संहिता देश के लिए एक एकल कानून के गठन का आह्वान करता है, जो सभी समुदायों पर लागू होगा। इसके बाद प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने घोषणा की कि समान नागरिक संहिता संवैधानिक रूप से दी गयी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है, लेकिन वह विरोध करने के लिए सड़कों पर नहीं उतरेगा, बल्कि कानूनी तरीकों से इसका विरोध करेगा।
पहले भी हो चुका है विरोध
समान नागरिक संहिता पर चर्चा करते समय यह विरोध नया नहीं है। इसका विरोध 1946 में ही हो चुका था। स्वतंत्र भारत में हमारे संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए 1946 में संविधान सभा की स्थापना हुई, जिसमें दो प्रकार के सदस्य शामिल थे, एक वे, जो समान नागरिक संहिता को अपना कर समाज में सुधार चाहते थे, जैसे डॉ बीआर अंबेडकर और अन्य, जो मुख्य रूप से मुस्लिम प्रतिनिधि थे, जिन्होंने व्यक्तिगत कानूनों को कायम रखने पर बल दिया। इसके अलावा संविधान सभा में अल्पसंख्यक समूहों ने समान नागरिक संहिता के समर्थकों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। परिणामस्वरूप संविधान को राज्य के नीति के निर्देशक सिद्धांत के भाग चार के अनुच्छेद 44 से केवल एक पंक्ति मिली।
क्या कहा था स्वामी विवेकानंद ने
स्वामी विवेकानंद के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को और प्रत्येक राष्ट्र को महान बनाने के लिए तीन चीजें आवश्यक हैं और वे हैं, हमें अच्छाई की शक्तियों में दृढ़ विश्वास होना चाहिए, ईर्ष्या और संदेह का अभाव और उन सभी की मदद करना, जो अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं। भारतीयों के रूप में, हम आशा करते हैं कि मुस्लिम संगठन अशांति को बढ़ावा नही देंगे, यह ध्यान में रखते हुए कि एकजुट राष्ट्र और सभी के लिए समान अधिकारों से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है। क्या यह सच नहीं है कि राष्ट्रीय भावना का उल्लंघन करने वाला कोई भी आचरण यह प्रदर्शित करता है कि अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ में क्या लिखा है? किसी भी संप्रदाय से पहले मानवता होनी चाहिए।
मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985) मामला
समान नागरिक संहिता पर सबसे अधिक चर्चा राजीव गांधी के शासनकाल में हुई। शाह बानो नामक एक महिला को उनके पति ने तीन तलाक दे दिया था और गुजारा भत्ता देने से भी इंकार कर दिया था। तलाक के बाद उन्होंने अपने और अपने पांच बच्चों के भरण-पोषण के लिए अदालत में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने अखिल भारतीय आपराधिक संहिता के ‘पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण’ प्रावधान (धारा 125) के तहत उनके पक्ष में फैसला सुनाया, जो धर्म की परवाह किये बिना सभी नागरिकों पर लागू होता है। कोर्ट ने यह भी सुझाव दिया कि एक मानक नागरिक संहिता स्थापित की जाये। इसके बाद शाह बानो के पति ने सुप्रीम कोर्ट में एक अपील दायर की, जिसमें दावा किया गया कि उन्होंने अपनी सभी इस्लामी कानूनी आवश्यकताओं को पूरा किया है। कोर्ट के फैसले के बाद देश भर में विरोध प्रदर्शन और आंदोलन हुए। दबाव में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक संरक्षण का अधिकार) अधिनियम पारित किया, जिससे आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 मुस्लिम महिलाओं को संरक्षित करने हेतु लागू नहीं हो पायी।
क्यों जरूरी है समान नागरिक संहिता
समान नागरिक संहिता सभी पर लागू होता है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। उस महिला की स्थिति पर विचार करें, जिसे उसके पति द्वारा दूसरी, तीसरी या चौथी शादी करने की धमकी दी गयी है और वह लगातार चिंतित रहती है। पूरा जीवन अनावश्यक तनाव में रहता है, जिसका अधिकांश स्थितियों में स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसे में क्या हम खुद को इंसान कह सकते हैं? क्या यह जीवन भर की मानसिक यातना नहीं है? सभ्यता, समानता, अखंडता और मानवता के लिए संविधान पर आधारित समान नागरिक कानूनों की आवश्यकता है।
सिविल और आपराधिक कानून के बीच अंतर
भारत में आपराधिक कानून एक समान हैं और धार्मिक विचारों की परवाह किये बिना सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं, नागरिक कानून आस्था से प्रभावित होते हैं। नागरिक विवादों में लागू होनेवाले व्यक्तिगत कानून धार्मिक स्रोतों से प्रभावित होने के बावजूद हमेशा संवैधानिक मानकों के अनुसार लागू किये गये हैं।
समान नागरिक संहिता का क्या होगा असर
समान नागरिक संहिता महिलाओं और अल्पसंख्यकों सहित वंचित समूहों की रक्षा करने का प्रयास करता है, जैसा कि बाबासाहेब अंबेडकर ने कल्पना की थी। साथ ही एकता के माध्यम से राष्ट्रीय उत्साह को बढ़ावा मिलेगा। अधिनियमित होने पर यह संहिता उन कानूनों को सुव्यवस्थित करने का प्रयास करेगा, जो वर्तमान में धार्मिक विचारों के आधार पर विभाजित हैं, जैसे कि हिंदू कोड बिल, शरीयत और अन्य। यह संहिता विवाह समारोहों, विरासत, उत्तराधिकार और गोद लेने से संबंधित जटिल कानूनों को सभी के लिए एक बना देगी। तब समान नागरिक कानून सभी नागरिकों पर लागू होगा, चाहे वे किसी भी धर्म के हों।
समान नागरिक संहिता के लाभ
यदि समान नागरिक संहिता अधिनियमित और लागू की जाती है, तो इससे राष्ट्रीय एकीकरण में मदद मिलेगी और तेजी आयेगी। इससे पर्सनल लॉ के कारण मुकदमेबाजी कम हो जायेगी। यह एकता की भावना और राष्ट्रीय भावना को फिर से जागृत करेगा और यह किसी भी बाधा का सामना करने के लिए नयी शक्ति के साथ उभरेगा और अंतत: सांप्रदायिक और विभाजनवादी ताकतों को हरायेगा।
सच्ची धर्मनिरपेक्षता को प्रोत्साहित करता है
भारत में वर्तमान में हमारे पास चयनात्मक धर्मनिरपेक्षता है, जिसका अर्थ है कि हम कुछ क्षेत्रों में धर्मनिरपेक्ष हैं, लेकिन अन्य में नहीं। समान नागरिक संहिता का अर्थ है कि सभी भारतीय नागरिकों, चाहे वह हिंदू, मुस्लिम, इसाइ या सिख हो, को समान नियमों का पालन करना होगा। यह उचित लगता है। एक सुसंगत नागरिक कानून लोगों की अपने धर्म का पालन करने की क्षमता में बाधा नहीं डालता है। इसका तात्पर्य यह है कि सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाता है। यही सच्ची धर्मनिरपेक्षता है।
संविधान भारत में विधि के शासन की स्थापना की बात करता है। जब आपराधिक मामलों में सभी समुदायों के लिए एक कानून का पालन होता है, तब सिविल मामलों में सभी के अलग कानून क्यों? आजादी के बाद से ही देश में समय-समय पर कायदे और कानून में बदलाव होते रहे हैं। लोगो की जरूरतों और परिस्थतियों को ध्यान में लेकर ऐसे बदलाव किये जा रहे हैं। देश का कानून किसी भी धर्म, जाति या समुदाय से ऊपर है। जब हिंदू बिल लाया गया था, तब इसका भी खूब विरोध हुआ था। केवल विरोध को ध्यान में रखा जाता, तो ना दहेज विरोधी कानून पास हो पाता और ना ही सती प्रथा का अंत हो पाता। इसलिए देश के सभी समुदायों का ध्यान रखते हुए समान नागरिक संहिता कानून लागू करने की दिशा में सकारात्मक कदम बढ़ाना चाहिए।