विशेष
-आदिवासी, सवर्ण और कुरमी मतदाता भाजपा से छिटके
-पांच सीटों की हार का असर होगा सीधे विधानसभा की 31 सीटों पर

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
लोकसभा चुनाव परिणाम का विश्लेषण अपने-अपने हिसाब से किया जा रहा है, लेकिन झारखंड के चुनाव परिणाम के बारे में एक बात सभी स्वीकार कर रहे हैं कि यह भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। खतरे की घंटी इसलिए, क्योंकि झारखंड चुनावी राज्य है और अगले छह महीने में यहां विधानसभा चुनाव होना है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने झारखंड की 13 सीटों पर प्रत्याशी उतारा था, जबकि उसकी सहयोगी आजसू ने एक सीट पर चुनाव लड़ा था। 2019 में भी इन दोनों दलों ने इतने ही प्रत्याशी उतारे थे और 12 सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बार आजसू ने अपनी सीट तो बचा ली, लेकिन भाजपा तीन सीटों पर हार गयी। इन तीन सीटों पर हार से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि भाजपा को झारखंड की सभी एसटी यानी पांच सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। इसका असर विधानसभा चुनाव पर भी पड़ेगा, जैसा कि 2019 के विधानसभा चुनाव में हुआ था, जब भाजपा आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 में से 26 सीटों पर हार गयी थी। लोकसभा चुनाव परिणाम ने एक तरफ जहां भाजपा की संगठनात्मक कमजोरियों को उजागर किया है, वहीं पार्टी के कतिपय फैसलों को भी सवालों के घेरे में ला दिया है। उदाहरण के लिए, झारखंड में सवर्णों की चार बड़ी जातियां, राजपूत, कायस्थ, भूमिहार और ब्राह्मण के अलावा कुरमी वोटरों ने इस बार भाजपा का साथ नहीं दिया, जिसके कारण उन नौ सीटों पर 2019 के मुकाबले भाजपा की जीत का अंतर बहुत कम हो गया, जहां उसने जीत हासिल की है। इतना ही नहीं, जिन सीटों पर भाजपा की हार हुई, वहां दुमका को छोड़ कर अन्य सीटों पर अंतर बढ़ गया। इस तरह लोकसभा चुनाव परिणाम ने भाजपा की अंदरूनी खामियों और चुनावी कुप्रबंधन को सामने ला दिया है, जिस पर तत्काल नियंत्रण करना जरूरी है। यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि झारखंड में इस बार पिछली बार की तुलना में भाजपा को 7 प्रतिशत वोट कम मिला है। वहीं आजसू का वोट भी घटा है। उसे भी पिछली बार की तुलना में 1.78 प्रतिशत वोट शेयर कम मिला है। पिछली बार भाजपा का वोट शेयर 51.6 प्रतिशत था, जो इस बार घट कर 44.60 प्रतिशत रह गया। उसी तरह आजसू का गिरिडीह में वोट प्रतिशत पिछली बार 4.40 प्रतिशत था, जो इस बार घट कर 2.62 प्रतिशत ही रह गया। यही नहीं भाजपा को पिछली बार कुल 81 विधानसभा सीटों में से 63 सीटों पर भाजपा को बढ़त मिली थी, जो इस बार घट कर मात्र 47 सीटों पर उसे लीड मिली है। इसके अतिरिक्त आजसू को शामिल कर लें, तो 50 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली है। गिरिडीह की सीट भी शामिल है। झारखंड की एक-एक सीट पर क्या रहा चुनाव परिणाम और क्या रहा जीत-हार का अंतर और कारण, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

लोकसभा चुनाव का परिणाम घोषित होने के साथ ही झारखंड में भाजपा का सपना टूट गया है। यहां पर इंडिया गठबंधन ने अपना दम दिखाया है। राज्य की सभी 14 सीटें जीतने का दावा कर रही भाजपा को बड़ा झटका तो लगा ही है, साथ ही उसके लिए खतरे की घंटी भी बज गयी है। झारखंड में 2019 चुनाव के मुकाबले भाजपा को काफी नुकसान हुआ है। राज्य की आठ सीटों पर भाजपा, तीन सीट पर झामुमो, दो सीट पर कांग्रेस और एक सीट पर आजसू ने जीत दर्ज की है। इस तरह से एनडीए के खाते में नौ सीटें गयी है, वहीं इंडिया गठबंधन के खाते में पांच। झारखंड का चुनाव परिणाम इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां अगले छह महीने में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसलिए भाजपा का झारखंड पर खास फोकस था। झारखंड को भाजपा ने कितना महत्व दिया था, यह इसी बात से साफ होता है कि यहां पीएम मोदी चुनाव के पहले से ही दौरा कर रहे थे। चुनाव के दौरान पीएम मोदी चार बार झारखंड के दौरे पर आये और पांच रैलियां और एक रोड शो में हिस्सा लिया।

आदिवासी सीटों पर मिली करारी हार
झारखंड में भाजपा की सबसे बुरी स्थिति आदिवासी सीटों पर हुई। राज्य की जिन पांच सीटों पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा, वे सभी आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इनमें खूंटी, सिंहभूम, लोहरदगा, दुमका और राजमहल हैं। सिंहभूम और राजमहल में पिछली बार भी भाजपा को हार मिली थी, लेकिन इस बार सबसे चौंकानेवाली हार बाकी तीन सीटों पर हुई। आदिवासी सीटों पर भाजपा की हार का कारण हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के कारण पैदा हुई सहानुभूति को बताया जा रहा है। हालांकि भाजपा से आदिवासियों की नाराजगी 2019 के विधानसभा चुनाव में ही सामने आ गयी थी। यह भाजपा के लिए बेहद चिंता का विषय है।

भाजपा से कट गये सवर्ण और कुरमी
झारखंड में इस बार भाजपा का कोर वोट बैंक, यानी सवर्ण और कुरमी उससे नाराज रहा। सवर्णों की चार बड़ी जातियां, ब्राह्मण, कायस्थ और राजपूत ने इस बार भाजपा का साथ नहीं दिया। इसका प्रमुख कारण टिकट वितरण में इन जातियों की उपेक्षा रही। भाजपा ने दो राजपूतों, धनबाद से पीएन सिंह और चतरा से सुनील सिंह का टिकट काट दिया। इनके बदले धनबाद से ढुल्लू महतो और चतरा से कालीचरण सिंह को उतारा। इतना ही नहीं, भाजपा का हमेशा से साथ देनेवाले कुरमी भी इस बार उससे बिदक गये, क्योंकि भाजपा नेताओं ने उन्हें एसटी का दर्जा देने से साफ मना कर दिया था। टिकट काटने से नाराज सवर्णों को मनाने की कोशिश भी नहीं की गयी, उल्टे जयंत सिन्हा और राज सिन्हा जैसे नेताओं को चुनाव के दरम्यान कारण बताओ नोटिस जारी कर कायस्थों के जले पर नमक छिड़कने की कोशिश की गयी। भाजपा में सवर्णों की उपेक्षा का आलम यह रहा कि टिकट तो दूर, उन्हें चुनाव प्रभारी तक नहीं बनाया गया। आठ अनारक्षित सीटों में से केवल एक पर ब्राह्मण प्रत्याशी को उतारा गया, वह भी पार्टी की मजबूरी ही थी। झारखंड भाजपा का पूरा दारोमदार केवल वैश्य संभालते रहे, जिसका असर चुनाव परिणाम पर साफ देखा जा सकता है।

संगठन का ढीला रवैया भी कर गया नुकसान
झारखंड भाजपा ने इस बार जिस ढीले-ढाले रवैये से चुनाव लड़ा, उसका नुकसान भी पार्टी को उठाना पड़ा। पार्टी ने पन्ना प्रमुख बना कर इसका खूब प्रचार किया था और दावा किया गया था कि प्रत्येक बूथ पर पन्ना प्रमुख से लेकर कार्यकर्ता तक सक्रिय हैं। लेकिन हकीकत कुछ और थी। पन्ना प्रमुख तो बनाये गये, लेकिन उन्होंने इस बात का ध्यान भी नहीं रखा कि किसका नाम मतदाता सूची से कट गया है और किसका जोड़ना है। नतीजा यह हुआ कि रांची सीट पर ही करीब एक लाख ऐसे वोटरों के नाम मतदाता सूची से गायब मिले, जो भाजपा के वोटर थे। पार्टी प्रत्याशी संजय सेठ ने तो इसकी शिकायत बाकायदा चुनाव आयोग से भी की। अगर पन्ना प्रमुख अपने कर्तव्य के प्रति सजग होते, तो वोटर लिस्ट आते ही उसका मिलान कर लेते और जिन लोगों के नाम कट गये थे, उनका नाम जुड़वा लेते। यह स्थिति धनबाद और हजारीबाग में भी देखी गयी। कोडरमा में भाकपा माले के कार्यकर्ताओं ने मार्च महीने में ही छूट गये मतदाताओं का नाम दर्ज करा दिया था। भाजपा का प्रचार अभियान भी बेहद अनमने ढंग से चला। शुरूआत में पार्टी नेताओं का एक वर्ग काफी उत्साहित था, लेकिन दिन बीतने के साथ जिस तरह कुछ गिने-चुने मठाधीश टाइप नेताओं ने पूरे चुनाव प्रबंधन पर कब्जा जमा लिया, उससे ये नेता हताश होकर चुप बैठ गये। संघ के लोग भी इस बार भाजपा का साथ देने से बचते रहे।

रांची: भाजपा की जीत हुई, लेकिन कम हो गया अंतर
झारखंड की सबसे हॉट सीट रांची में एक बार फिर भाजपा का परचम लहराया। उसके प्रत्याशी संजय सेठ ने लगातार दूसरी बार जीत जरूर दर्ज की, लेकिन पिछली बार से तुलना में जीत का अंतर कम रहा। पिछले चुनाव में जहां संजय सेठ की जीत का अंतर 2.82 लाख था, वहीं इस चुनाव में जीत का अंतर 1,20,512 का रहा। कांग्रेस की युवा प्रत्याशी यशस्विनी सहाय का प्रभाव युवा मतदाओं पर संजय सेठ की अपेक्षा ज्यादा देखा गया था। वहीं जेबीकेएसएस प्रत्याशी देवेंद्र नाथ महतो भी संजय सेठ के मत कम होने का एक कारण रहे। कुरमी समाज के लोगों का इन्हें अच्छा-खासा वोट मिला। देवेंद्रनाथ महतो को 1,32,647 वोट मिले। यह उम्मीद दोनों पार्टियों को नहीं थी। पूर्व के चुनाव में कुरमी समाज का अधिकांश वोट भाजपा की तरफ जाता रहा था। इस बार यह वोट भाजपा को नहीं मिल पाया। वहीं, मुस्लिम और इसाई का वोट एकमुश्त कांग्रेस प्रत्याशी की तरफ गया। आदिवासी समाज का भी ज्यादातर वोट गठबंधन की ओर ही गया। हालांकि भाजपा प्रत्याशी संजय सेठ को रांची सहित अन्य कस्बों में अच्छा समर्थन मिला, लेकिन ग्रामीण इलाकों में उतनी सफलता नहीं मिली। चुनाव विश्लेषक तो यहां तक कह रहे हैं कि देवेंद्रनाथ महतो ही भाजपा के लिए संजीवनी बन गये, नहीं तो ये वोट इंडिया गठबंधन की प्रत्याशी के साथ जुड़ जाता और फिर कहानी कुछ और होती। कुरमी मतदाता किसी भी हालत में भाजपा को वोट नहीं देने की ठान ली थी। यह झारखंड की लगभग सभी सीटों पर हुआ।

परिणाम एक नजर में
2024 में कांग्रेस को मिले मत 5,44,220
2024 में भाजपा को मिले मत 6,64,732
2024 में अंतर 1,20,512 (भाजपा के पक्ष में)
2019 में अंतर 2,82,780 (भाजपा के पक्ष में)
खूंटी: कई गुना बढ़ गया मार्जिन
खूंटी सीट से केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा चुनाव हार गये। केंद्रीय जनजातीय कार्य और कृषि और किसान कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा ने क्षेत्र को कई बड़ी योजनाओं की सौगात दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 नवंबर को कमजोर जनजातीय समूहों के विकास के लिए 24 हजार करोड़ रुपये की योजना की शुरूआत की। उन्होंने ‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ भी शुरू की। प्रधानमंत्री बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू भी गये, लेकिन इस सबके बावजूद खूंटी में भाजपा का बेड़ा पार नहीं हो सका। 2019 में अर्जुन मुंडा ने खूंटी में कांग्रेस के कालीचरण मुंडा को 1445 मतों के अंतर से हराया था, लेकिन इस बार कांग्रेस प्रत्याशी ने उस अंतर को करीब डेढ़ लाख तक पहुंचा कर अर्जुन मुंडा से बदला ले लिया। खास बात यह रही कि इतना बड़ा अंतर 2009 और 2014 में भी नहीं था। अर्जुन मुंडा की इस हार की सबसे बड़ी वजह रही जीत के बाद मतदाताओं से दूरी। पिछली बार कम अंतर से जीतने के बावजूद अर्जुन मुंडा ने अपने लोकसभा क्षेत्र का दौरा कम किया। इस बीच कांग्रेस के कालीचरण मुंडा जनता के बीच रहे और अपना जनाधार मजबूत करते रहे। वह खूंटी के ही रहने वाले हैं, ऐसे में आसपास के विधानसभा क्षेत्र और इलाके का दौरा करते रहे, जिससे जनता ने जुड़ाव महसूस किया। खूंटी में प्रचार के लिए कांग्रेस ने उतना जोर नहीं लगाया। भाजपा के कई दिग्गज नेता खूंटी प्रचार के लिए पहुंचे, लेकिन कालीचरण जनता के बीच यह संदेश देने में सफल रहे कि जो लोकल होगा, वही साथ देगा। कालीचरण मुंडा की जीत का भी प्रमुख कारण तमाड़ के कुरमी मतदाताओं का अर्जुन मुंडा से पूरी तरह कट जाना और आदिवासियों का पूरा वोट कालीचरण मुंडा को मिल जाना रहा।

परिणाम एक नजर में
2024 में कांग्रेस को मिले मत 5,11,647
2024 में भाजपा को मिले मत 3,61,972
2024 में अंतर 1,49,675 (कांग्रेस के पक्ष में)
2019 में अंतर 1445 (भाजपा के पक्ष में)
सिंहभूम: नहीं चल पाया भाजपा का दांव
पिछली बार कांग्रेस के टिकट पर सिंहभूम से चुनाव लड़ने वाली गीता कोड़ा ने चुनाव से ठीक पहले पाला बदला और भाजपा के साथ चली गयीं। इस सीट पर प्रचार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 मई को पहुंचे थे। यहां झारखंड के पहले चरण में चुनाव था। गीता कोड़ा ने भी डोर टू डोर कैंपेन किया, लेकिन इस प्रचार और कैंपेन के बावजूद सिंहभूम की जनता दोबारा गीता कोड़ा पर भरोसा नहीं कर सकी। गीता कोड़ा का कांग्रेस छोड Þकर भाजपा में जाने का फैसला जनता को पसंद नहीं आया। कई सभाओं में इसे लेकर गीता कोड़ा को विरोध का सामना करना पड़ा। लोगों ने सवाल किया कि जब उन्होंने किसी और पार्टी में होते हुए वोट देकर जीत दिलायी, तो वह चुनाव से पहले अपना पाला कैसे बदल सकती हैं। गीता कोड़ा ने अपने कार्यकाल में क्षेत्र के लिए क्या काम किया, इसे लेकर भी सवाल खड़े हुए। दूसरी तरफ इंडी गठबंधन की तरफ से यह साफ संदेश दिया गया कि अगर भाजपा सत्ता में आयी, तो आरक्षण खत्म करेगी। संविधान में ऐसे बदलाव लायेगी, जिससे आदिवासी और उनकी पहचान पर संकट होगा। इंडी गठबंधन इस बात को जनता तक पहुंचाने में सफल रहा, जिसका लाभ उसे मिला। यह सीट झामुमो के खाते में गयी, जिसने जोबा मांझी को उतारा। जोबा मांझी की छवि के आगे गीता कोड़ा टिक नहीं सकीं और 1.68 लाख से अधिक वोटों के अंतर से हार गयीं। इस सीट पर भी हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी से आदिवासियों के बीच गुस्सा देखा गया। यहां चंपाई सोरेन ने अपना सब कुछ झोंक दिया था।

परिणाम एक नजर में
2024 में झामुमो को मिले मत 5,20,164
2024 में भाजपा को मिले मत 3,51,762
2024 में अंतर 1,68,402 (झामुमो के पक्ष में)
2019 में अंतर 72,155 (कांग्रेस के पक्ष में)
लोहरदगा में महंगा पड़ा प्रत्याशी बदलना
लोहरदगा लोकसभा सीट से भाजपा ने अपना उम्मीदवार बदला। सुदर्शन भगत की जगह इस बार समीर उरांव को मौका मिला। इस सीट पर इंडिया गठबंधन ने सुखदेव भगत को मौका दिया। झामुमो के चमरा लिंडा ने पार्टी से बगावत की और निर्दलीय चुनाव में खड़े हो गये। लोहरदगा लोकसभा क्षेत्र में इसाई और मुस्लिम वोट एक तरफा रहा। तमाम प्रयासों के बाद भी एनडीए इस वोट बैंक को अपनी तरफ करने में सफल नहीं रहा। दूसरी तरफ आदिवासी और इसाई वोट बैंक पर चमरा लिंडा की नजर थी। अगर चमरा लिंडा इस वोट बैंक पर कब्जा करने में सफल होते, तो इसका लाभ भाजपा को मिल सकता था, लेकिन चमरा लिंडा इस सीट पर बड़ा फैक्टर बन कर नहीं उभरे। बिशुनपुर, गुमला जैसे इलाकों में चमरा लिंडा का असर माना जा रहा था, लेकिन इन इलाकों से भी उन्हें खास वोट नहीं मिला। शहरी इलाकों में भी वोट बैंक में बिखराव का असर कांग्रेस के सुखदेव भगत को मिला। सुखदेव भगत इस खास वोट बैंक तक यह बात पहुंचाने में सफल रहे कि उनके साथ भाजपा की सरकार अन्याय कर रही है। अपने चुनाव प्रचार में सुखदेव भगत ने संविधान में बदलाव और जातीय भेदभाव का प्रमुखता से जिक्र किया, जिसका लाभ सुखदेव भगत को मिला। इस सीट पर भी सुखदेव भगत ने अपने सभी चुनावी मंच से सरना धर्म कोड, आरक्षण जैसे कई मुद्दों को उठाया जो जनता के बीच पहुंची।

परिणाम एक नजर में
2024 में कांग्रेस को मिले मत 4,83,038
2024 में भाजपा को मिले मत 3,43,900
2024 में अंतर 1,39,138 (कांग्रेस के पक्ष में)
2019 में अंतर 10,363 (भाजपा के पक्ष में)
राजमहल : लोबिन नहीं बन सके ताला की चाबी
झामुमो के विजय हांसदा ने एक बार फिर यह सीट अपने नाम कर ली। भाजपा के ताला मरांडी और निर्दलीय लोबिन हेंब्रम इस सीट पर विजय हांसदा को टक्कर नहीं दे सके। भाजपा 2004 से इस सीट पर जीत हासिल करने का प्रयास कर रही है। राजमहल लोकसभा क्षेत्र पूरे साहेबगंज और पाकुड़ जिलों को कवर करता है। यह क्षेत्र झामुमो के मजबूत क्षेत्रों में है। इस सीट पर झामुमो के पारंपरिक वोटर हैं, जो सालों से तीर-धनुष के निशान पर वोट करते रहे हैं। इस चुनाव के परिणाम में दूसरा असर रहा मुस्लिम वोटरों का। भाजपा अक्सर सीएए और एनआरसी का जिक्र करती रही। भाजपा को इसका नुकसान हुआ। इस सीट पर मुस्लिम वोट का फैक्टर एक बड़े अंतर के रूप में उभर कर सामने आया। लोबिन हेंब्रम झामुमो का पारंपरिक वोट नहीं काट सके। इस क्षेत्र में बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा भाजपा नो जोर-शोर से उठाया था। राजमहल में भी हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी को आदिवासी और संताल मतदाताओं ने गलत माना।

परिणाम एक नजर में
2024 में झामुमो को मिले मत 6,13,371
2024 में भाजपा को मिले मत 4,35,107
2024 में अंतर 1,78,264 (झामुमो के पक्ष में)
2019 में अंतर 99,155 (झामुमो के पक्ष में)
दुमका: सीता नहीं बन सकीं जाइंट किलर
दुमका सीट पर भाजपा ने आधिकारिक घोषणा के बाद सुनील सोरेन का टिकट काट कर सीता सोरेन को दिया था। चुनाव से ठीक पहले झामुमो छोड़ कर सीता सोरेन भाजपा में शामिल हो गयी थीं। उन्होंने भाजपा में आने के बाद हेमंत सोरेन और कल्पना सोरेन पर कई गंभीर आरोप भी लगाये थे। दुमका से नलिन सोरेन ने झामुमो के टिकट पर जीत हासिल की। इस बार दुमका का मतदान प्रतिशत बढ़िया रहा, लेकिन भाजपा के वोटर नहीं निकले। पिछली बार की तरह इस बार भाजपा का बूथ मैनेजमेंट कमजोर रहा। सुनील सोरेन का नाम कटने के बाद भाजपा के कुछ कार्यकर्ताओं में निराशा भी वजह रही। दूसरी वजह यह रही कि नलिन सोरेन की पहचान एक स्थानीय और मजबूत नेता के रूप में रही है। यहां से हेमंत सोरेन के जेल में होने का भी असर सहानुभूति वोट में बदला। आदिवासी मतदाता एकजुट रहे। इस सीट पर कल्पना सोरेन ने भी प्रचार किया था। उनकी तरफ भी मतदाताओं की सहानुभूति रही, जिसका असर वोट बैंक पर हुआ। सीता सोरेन का व्यक्तिगत प्रभाव भी कम हुआ। इतना ही नहीं, पार्टी को पता था कि जामताड़ा विधानसभा क्षेत्र उसके लिए बड़ी रुकावट है, लेकिन इसे दूर करने में नेताओं ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी।

परिणाम एक नजर में
2024 में झामुमो को मिले मत 5,47,370
2024 में भाजपा को मिले मत 5,24,843
2024 में अंतर 22,527 (झामुमो के पक्ष में)
2019 में अंतर 47,590 (भाजपा के पक्ष में)
(पलामू, चतरा, कोडरमा, हजारीबाग, गिरिडीह, गोड्डा, जमशेदपुर और धनबाद के चुनाव परिणाम का विश्लेषण कल के अंक में)

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