लोकसभा चुनाव से ठीक पहले, आठ फरवरी को दिन में अचानक एक विशेष विमान रांची हवाई अड्डे पर उतरा था। उस विमान से कांग्रेस के कुछ केंद्रीय नेता पहुंचे थे। वे हवाई अड्डे से सीधे डिबडीह स्थित झारखंड विकास मोर्चा के केंद्रीय कार्यालय गये और बंद कमरे में बाबूलाल मरांडी से बातचीत की। करीब घंटे भर की बातचीत के बाद कांग्रेस नेता सुबोधकांत सहाय ने मीडिया से कहा था कि सब कुछ तय हो गया है। महागठबंधन में कहीं कोई विवाद नहीं है। इस वाकये के महज पांच महीने बाद उसी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार बयान देते हैं कि झारखंड में झाविमो और राजद का कोई अस्तित्व नहीं है।
ऐसा कहते समय वह भूल जाते हैं कि वह उसी झाविमो की बात कर रहे हैं, जिसके टिकट पर वह पहली बार जमशेदपुर के रास्ते लोकसभा में पहुंचने में कामयाब हुए थे। क्या राजनीतिक दांव-पेंच का जीवन इतना छोटा हो गया है या फिर राजनीतिक नेताओं की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर हो गयी है। जिस बाबूलाल मरांडी को लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी महागठबंधन की धुरी माना जाता था, वही आज कांग्रेस अध्यक्ष की नजर में अस्तित्व विहीन हो गये हैं। इस सवाल का जवाब कांग्रेस के पुराने नेता सुबोधकांत सहाय देते हैं। उनका साफ कहना है कि डॉ अजय कुमार के पास राजनीतिक समझ नहीं है। वह देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को किसी पुलिस लाइन की तरह चलाना चाहते हैं। झारखंड के दिग्गज कांग्रेसी और राजनीति में डॉ अजय कुमार से बहुत वरिष्ठ सुबोध कांत सहाय ने तो यहां तक कह दिया कि प्रदेश अध्यक्ष को जमीनी हकीकत की भी जानकारी नहीं है। झारखंड की राजनीति की एबीसी भी उन्हें सीखनी चाहिए। यह सच है कि बाबूलाल मरांडी की पार्टी को चुनावी सफलता नहीं मिली, लेकिन उन्हें इस तरह एक झटके में खारिज कर देना राजनीतिक आत्महत्या है।
गैर-राजनीतिक है डॉ अजय की कार्यशैली
जब डॉ अजय को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था, पार्टी के लोगों को लगा था कि अपने प्रबंधकीय कौशल का उपयोग वह पार्टी को मजबूत करने में करेंगे। लेकिन जल्द ही कांग्रेस के पुराने नेताओं-कार्यकर्ताओं को पता चल गया कि डॉ अजय कुमार अब तक आइपीएस अधिकारी की मानसिकता से बाहर नहीं निकल सके हैं।
उनसे पहले कांग्रेस के लोगों ने कई नौकरशाहों को परखा था। बंदी उरांव से लेकर डॉ रामेश्वर उरांव, सुखदेव भगत, विनोद किसपोट्टा, डॉ अरुण उरांव, बेंजामिन लकड़ा, एसकेएफ कुजूर जैसे पूर्व नौकरशाहों ने पार्टी को गति दी थी। लेकिन डॉ अजय ने अपनी कार्यशैली ने न केवल कांग्रेस में खेमेबंदी को मजबूत किया, बल्कि अपने फैसलों से पार्टी के भीतर नाराजगी ही पैदा की।
अपने करीबियों को पद देकर उन्होंने उपकृत किया, लेकिन अपनी कार्यसमिति नहीं बना सके। उपकृत करने की श्रृंखला में ही उन्होंने हजारीबाग लोकसभा सीट का टिकट उस गोपाल साहू को दे दिया, जिनका हजारीबाग से कुछ लेना-देना ही नहीं था। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि डॉ अजय कुमार उन्हीं के होटल आर्या में डेरा जमाये हुए हैं, जबसे वे अध्यक्ष बने हैं। हर सुविधाएं उन्हें वहां मुहैया करायी गयी हैं। यहां तक कि वहां जिम भी खोल दिया गया है। लोकसभा चुनाव में हजारीबाग सीट पर प्रत्याशी को लेकर जो विवाद हुआ, वह किसी से छिपा नहीं है।
धनबाद के कुछ कांग्रेसियों को आनन-फानन में पार्टी से निकाल दिया गया, जबकि वे कई साल से पार्टी का झंडा ढो रहे थे। डॉ अजय कुमार की कार्यशैली ने न केवल कांग्रेसियों को नाराज किया, बल्कि चुनाव में भी इसका असर देखने को मिला।
हर वरिष्ठ चेहरे से खतरा लगता है डॉ अजय को
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ अजय कुमार ने लोकसभा चुनाव के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। लेकिन वह आज भी कुर्सी पर बैठे हुए हैं। रांची में 29 जुलाई को जो कुछ हुआ, वह कांग्रेस के लिए नया नहीं है। लेकिन विधानसभा चुनाव के दरवाजे पर खड़ी पार्टी के भीतर इतना गहरा असंतोष उसकी चुनावी संभावनाओं के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। इस असंतोष को डॉ अजय ने अपनी नजर से देखा और कह दिया कि यह सब भाड़े के लोगों की मदद से किया गया। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि भाड़ा पार लाने के लिए हमसे भी दो-चार हजार ले लेते। उन्हें शायद पता नहीं है कि जिन लोगों को उन्होंने पार्टी से निकाला है, वे सभी कांग्रेस में ही उनसे कितने वरीय हैं और पार्टी के लिए उन्होंने कितना बलिदान दिया है। डॉ अजय को सुबोधकांत सहाय, आलमगीर आलम, प्रदीप बलमुचू, सुखदेव भगत, फुरकान अंसारी और डॉ रामेश्वर उरांव सरीखे दिग्गज कांग्रेसियों से भी हमेशा खतरा महसूस होता रहता है। अब तो वह बाबूलाल मरांडी को भी अस्तित्वविहीन बता रहे हैं। इतना ही नहीं, उन्हें हर वह चेहरा खतरनाक लगता है, जो उनके सामने पड़ता है। यह उनकी राजनीति को ही दिखाता है। कहा जाता है कि राजनीति में यह सोच उस नेता की होती है, जिसका जनाधार कमजोर होता है। एडोल्फ हिटलर के बारे में कहा जाता है कि उसके सामने चेहरा दिखाने का मतलब मौत को आमंत्रण देना होता था, क्योंकि अपने आखिरी दिनों में हिटलर को हर चेहरा खतरनाक लगता था। इमरजेंसी से ठीक पहले इंदिरा गांधी के साथ भी कुछ ऐसा ही होता था। तो इसका मतलब यह निकाला जाना चाहिए कि डॉ अजय एक लोकतांत्रिक पार्टी होने का दावा करनेवाली कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं, बल्कि अपनी नीतियों पर चलनेवाले संगठन के प्रमुख हैं। जामताड़ा के कांग्रेस विधायक डॉ फुरकान अंसारी ने तो लोकसभा चुनाव से पहले यहां तक कह दिया था कि डॉ अजय कुमार को कांग्रेस की परंपराओं और सिद्धांतों की जानकारी नहीं है, क्योंकि वह कहीं और से इस पार्टी में शामिल हुए हैं।
उनकी यह बात अब सही लग रही है। तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि कांग्रेस ने कमजोर जनाधार वाले नेता को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंप दी है।
क्या है विकल्प
झारखंड कांग्रेस को यदि मजबूत बनना है, तो सबसे पहले ्रप्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार को अपनी कार्यशैली को बदलना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि उनके फैसलों से पार्टी कमजोर ही नहीं, मटियामेट हो रही है। यदि वह ऐसा नहीं करते हैं और पार्टी आलाकमान इस बारे में नहीं सोचता है, तो फिर कांग्रेस को रसातल में जाने से कोई रोक नहीं सकता है। डॉ अजय में ऐंठन भले ही रह जाये, कांग्रेस रस्सी की तरह जल जायेगी।

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