कोयले की कमर्शियल माइनिंग के खिलाफ कोयला उद्योग में तीन दिवसीय हड़ताल शुरू हो गयी है। बहुत दिनों के बाद यह पहला मौका है, जब मजदूर संगठन किसी मुद्दे पर एकजुट हुए हैं और हड़ताल के कारण गुरुवार को कोयले का उत्पादन और डिस्पैच पूरी तरह बंद रहा। कोयला उद्योग में इस हड़ताल का झारखंड में खासा महत्व है, क्योंकि देश को ऊर्जा के इस प्रमुख स्रोत की सबसे बड़ी आपूर्ति यहीं से होती है। स्वाभाविक तौर पर कोयले का झारखंड की राजनीति पर भी गहरा असर रहता है। कोरोना संकट के दौर में जब केंद्र सरकार ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान के तहत कोयला खनन को निजी क्षेत्र के लिए खोलने का फैसला किया, तो इसका हर तरफ समर्थन किया गया, लेकिन जिस तरह आनन-फानन में कोल ब्लॉक की नीलामी शुरू की गयी, उसका विरोध होने लगा। मजदूर संगठनों की दलील है कि यह कोयला उद्योग के निजीकरण की तरफ पहला कदम है और केंद्र को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। झारखंड सरकार ने मजदूरों की मांग का समर्थन कर इस मुद्दे पर अपना स्टैंड साफ कर दिया है, जबकि विपक्षी भाजपा राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश में जुट गयी है। कोयले की कमर्शियल माइनिंग से झारखंड को लाभ होगा या नुकसान, इस बारे में केंद्र की चुप्पी का मतलब किसी की समझ में नहीं आ रहा है। जरूरत इस पर स्पष्टीकरण की है। कोयले की कमर्शियल माइनिंग, मजदूरों की हड़ताल और इस पर हो रही राजनीति के बारे में आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

कोयले को ऊर्जा का सबसे प्रमुख और सबसे सस्ता स्रोत माना जाता है। भारत के अधिकांश बिजली घर कोयले से ही चलते हैं, इसलिए यहां इसे काला हीरा कहा जाता है। देश की कोयला जरूरतों का करीब 60 प्रतिशत हिस्सा अकेले झारखंड से पूरा होता है। इसलिए कोयले से सबसे अधिक प्रभावित होनेवाला राज्य भी झारखंड ही है। 1971-72 में कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद से ही राजनीति में कोयले का असर बढ़ता चला गया था। उस समय झारखंड नहीं बना था, लेकिन एकीकृत बिहार की राजनीति पर कोयलांचल का खासा असर था। अब जब एक बार फिर केंद्र सरकार ने कोयला खनन में निजी क्षेत्र को प्रवेश की अनुमति देने का फैसला किया है, स्वाभाविक है इसका झारखंड पर भी गहरा असर होगा।
केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ कोयला उद्योग में तीन दिवसीय हड़ताल गुरुवार से शुरू हो गयी है और इसके कारण कोयले का उत्पादन और डिस्पैच पूरी तरह बंद हो गया है। कोयला उद्योग में इतनी बड़ी हड़ताल बहुत दिनों के बाद हुई है। यह पहला मौका है, जब सभी मजदूर संगठन किसी एक मुद्दे पर एकजुट हुए हैं। मजदूरों की इस हड़ताल को झारखंड सरकार ने समर्थन दिया है, तो अब इस पर राजनीति भी शुरू हो गयी है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने हड़ताल का समर्थन करते हुए केंद्र से कोल ब्लॉक की नीलामी को स्थगित करने का एक बार फिर आग्रह किया है। इसके विपरीत विपक्षी भाजपा इस मुद्दे पर झारखंड सरकार को लगातार कठघरे में खड़ा कर रही है। भाजपा का दावा है कि कोल ब्लॉक की नीलामी से झारखंड को हर साल 15 हजार करोड़ रुपये की आय होगी और 50 हजार लोगों को सीधे रोजगार मिलेगा। दूसरी तरफ सत्तारूढ़ झामुमो का तर्क है कि लॉकडाउन की अवधि में कोल ब्लॉक की नीलामी से झारखंड को नुकसान होगा। इन दावों-प्रतिदावों के बीच झारखंड में कोयले पर सियासत लगातार गर्म हो रही है। मजदूरों की हड़ताल ने इस आग में घी का काम किया है। मजदूरों को राज्य सरकार का समर्थन मिलने से उनके हौसले बुलंद हो गये हैं, जबकि भाजपा बैकफुट पर नजर आ रही है।
झारखंड की राजनीति में कोयले की कितनी भूमिका है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां के कम से कम चार सांसद और 20 विधायक कोयला क्षेत्र से आते हैं। देश में कोयला उत्पादन की एकमात्र सरकारी कंपनी कोल इंडिया की दो अनुषंगी इकाइयों, सीसीएल और बीसीसीएल का मुख्यालय झारखंड में है और एक अन्य अनुषंगी कंपनी इसीएल की अधिकांश कोयला खदानें भी यहीं हैं। राज्य में अवस्थित कोयला क्षेत्रों की आबादी एक तिहाई से अधिक है और राज्य की अर्थव्यवस्था में इनका बड़ा योगदान है। आम तौर पर माना जाता है कि कोयला क्षेत्र में वामपंथी संगठनों का दबदबा होता है, लेकिन हाल के दिनों में दूसरे राजनीतिक दलों ने भी यहां अपनी पैठ बनायी है।
झारखंड में झामुमो और भाजपा ने अपने जनाधार का विस्तार किया है, तो कांग्रेस ने अपनी खोयी हुई जगह हासिल की है। इसके अलावा कोयलांचल आर्थिक रूप से भी राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा स्रोत है। यहां से राजनीतिक दलों को नियमित रूप से अच्छी-खासी आर्थिक मदद मिलती है।
इन कारणों से झारखंड के राजनीतिक दलों में कोयलांचल के लिए एक खास किस्म का आकर्षण है। हेमंत सोरेन ने कोयले की कमर्शियल माइनिंग के मुद्दे पर अपनी सरकार का स्टैंड पहले ही साफ कर दिया है। उन्होंने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की है। अब भाजपा भी इस मुद्दे पर खुल कर सामने आ गयी है। इस राजनीतिक दांव-पेंच के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर केंद्र पूरी स्थिति स्पष्ट क्यों नहीं कर रहा है। कोल ब्लॉक की नीलामी से किसको क्या लाभ होगा और कितना नुकसान होगा, इस बारे में आज तक कुछ नहीं कहा गया है। एक बार यदि स्थिति स्पष्ट हो जाये, तो फिर इस विवाद का हमेशा के लिए पटाक्षेप हो जायेगा।
फिलहाल झारखंड में कोयला उद्योग से जुड़े करीब 1.20 लाख लोग अगले दो दिन तक हड़ताल पर रहेंगे और इसका भारी नुकसान देश को उठाना पड़ेगा। इसलिए जरूरत है कि केंद्र अपने फैसले पर दोबारा विचार करे और सभी संबंधित पक्षों से इस पर बातचीत करे। किसी भी मुद्दे को समस्या बनाना आसान है, लेकिन समाधान कर लेना हमेशा किसी उपलब्धि से कम नहीं होता। गेंद अब केंद्र के पाले में है और झारखंड को उसके फैसले का बेसब्री से इंतजार है।

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