राजस्थान के सियासी ड्रामे ने और किसी को भले ही कुछ सिखाया या नहीं, देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को इसने बहुत कुछ सिखा दिया है। कर्नाटक और मध्यप्रदेश में चुनाव जीतने के बावजूद सत्ता गंवानेवाली इस पार्टी ने राजस्थान के घटनाक्रम के बाद अपना पुराना फॉर्म दिखाया है और अपने दो विधायकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। इतना ही नहीं, आलाकमान के बेहद करीब माने जानेवाले सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों को भी पार्टी ने सबक सिखाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, जो देश भर के कांग्रेसियों के लिए साफ संदेश है कि पार्टी अब एक्शन के मोड में है। पार्टी के भीतर अब गुटबाजी और दबाव की राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं है। राजस्थान के जिन दो विधायकों को कांग्रेस ने बाहर निकाला है, वे पायलट समर्थक माने जाते हैं। कांग्रेस आलाकमान के इस एक्शन का झारखंड की राजनीति पर भी असर पड़ना स्वाभाविक है, क्योंकि यहां भी पार्टी के भीतर की व्यवस्था लगभग तार-तार हो चुकी है। झारखंड में भी कांग्रेस सत्ता में है और इसके भीतर पिछले दो-तीन दिन से हलचल पैदा होने की खबरें आ रही थीं, लेकिन अब पार्टी का कोई भी नेता इस मुद्दे पर मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं है। कांग्रेस आलाकमान का यह नया रूप बहुत दिनों के बाद सामने आया है, जो साफ करता है कि पार्टी ने राजस्थान से बहुत कुछ सीखा है। कांग्रेस आलाकमान के एक्शन और इसके राजनीतिक परिणामों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
2014 के आम चुनाव में जब कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई और आजादी के बाद सबसे खराब चुनावी प्रदर्शन के बाद पूरी तरह पस्त हो गयी थी, भारतीय राजनीति के जानकार भविष्यवाणी कर रहे थे कि पार्टी अब बिखरने की कगार पर है। किसी तरह इसने पांच साल काटे, लेकिन 2019 में एक बार फिर करारी चुनावी पराजय ने इसके हौसलों को पस्त कर दिया। हालांकि इससे पहले पांच राज्यों की सत्ता में पार्टी ने जोरदार वापसी की थी। फिर भी 2019 की हार ने कांग्रेस को आत्मनिरीक्षण करने पर मजबूर कर दिया। उसने किया भी, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। पार्टी की अंदरूनी व्यवस्था लुंज-पुंज बनी रही। जब जिसे जी में आता, बगावत का झंडा बुलंद कर देता। कर्नाटक और मध्यप्रदेश की सत्ता गंवाने के बाद यह सिलसिला जोर पकड़ने लगा था, लेकिन राजस्थान के सियासी संकट ने कांग्रेस को ऐसा सबक दिया, जिससे पार्टी पुराने फॉर्म में लौट आयी। पार्टी ने अपने दो विधायकों को बाहर का रास्ता दिखा कर साफ संदेश दे दिया है कि अब पार्टी में अनुशासनहीनता और खरीद-फरोख्त की राजनीति नहीं चलेगी।
2014 के बाद से यह पहला मौका है, जब कांग्रेस ने अपने किसी विधायक को पार्टी से निकाला है। राजस्थान के इन दो विधायकों, विश्वेंद्र सिंह और भंवरलाल शर्मा पर अपनी ही सरकार को गिराने की साजिश रचने और विधायकों की खरीद-फरोख्त की कोशिश करने का आरोप लगाया गया है। ये दोनों सचिन पायलट गुट के माने जाते हैं और इनका आॅडियो वायरल हुआ है। कांग्रेस आलाकमान ने सचिन पायलट और उनके गुट के 19 विधायकों की विधानसभा सदस्यता खत्म करने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है। आधुनिक कांग्रेस के जमाने में सचिन पायलट के कद के नेता के खिलाफ कोई कार्रवाई हो सकती है, यह कांग्रेस में कोई सोच भी नहीं सकता था। सचिन पायलट को आलाकमान का बेहद खास समझा जाता था, लेकिन पार्टी ने उनके खिलाफ फैसला लेने में देर नहीं की। उन्हें डिप्टी सीएम और प्रदेश अध्यक्ष पद से तत्काल हटा दिया और अब पार्टी विरोधी गतिविधियों का नोटिस भी थमा दिया है, जिसके खिलाफ वह अदालत में चले गये हैं।
कांग्रेस आलाकमान का बगावत और अनुशासनहीनता के खिलाफ इस कड़े रुख से झारखंड के कांग्रेसी भी सहम गये हैं। पिछले छह साल में जिसे जब जहां अवसर मिला, पार्टी लाइन का उसने खुल कर उल्लंघन किया। चाहे प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ बयानबाजी हो या फिर पार्टी की बैठक में खुलेआम मारपीट और गाली-गलौज, झारखंड कांग्रेस में सब कुछ हो चुका है। प्रदेश प्रभारी से लेकर अध्यक्ष के खिलाफ पैसा लेकर चुनाव का टिकट बांटने और भाई-भतीजावाद अपनाने तक के आरोप भी लगाये जा चुके हैं। इसके बावजूद कभी किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। यहां तक कि जब लोकसभा चुनाव से पहले धनबाद में पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ एक नेता के समर्थकों ने खुलेआम विद्रोह किया, तब भी उनके खिलाफ कुछ नहीं हुआ। इससे लगने लगा था कि कांग्रेस की अंदरूनी हालत ठीक नहीं है। लेकिन अचानक पार्टी के भीतर सन्नाटा पसर गया है। आम तौर पर मीडिया के लिए आसानी से उपलब्ध रहनेवाले नेता भी बयान देने से कतराने लगे हैं। यहां तक कि प्रदेश अध्यक्ष भी, जो दो दिन पहले अपने चार विधायकों को तोड़ने की कोशिश का आरोप लगा चुके थे, अचानक टिप्पणी करने से इनकार करने लगे हैं। झारखंड में कांग्रेस सत्ता में साझीदार है और इसलिए पार्टी के हर कदम को बेहद करीबी नजर से परखा जाता है। ऐसे में कांग्रेस नेताओं की अचानक चुप्पी भी रहस्यमय लगने लगी है।
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के लिए यह एक सुखद परिवर्तन कहा जा सकता है। किसी भी संगठन को आगे बढ़ने के लिए अनुशासन पहली शर्त होती है और कांग्रेस ने अब यह समझ लिया है। अब पार्टी से जुड़े हर नेता और कायर्यकर्ता को भी यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति संगठन से बड़ा कभी नहीं हो सकता। भारत का राजनीतिक परिदृश्य जिस आक्रामक दौर में पहुंच गया है और आज जिस तरह की राजनीति हो रही है, उसमें तो अनुशासन का महत्व बढ़ ही गया है। इस लिहाज से भी कांग्रेस का पुराने फॉर्म में लौटना अच्छा संकेत माना जाता है। आनेवाले दिनों में कांग्रेस के भीतर अचानक पैदा हुआ आत्मविश्वास यदि दूसरी पार्टियों में भी फैल जाये, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। खास कर मध्यमार्गी दलों, जो हर परिस्थिति में सभी को साथ लेकर चलने की बात करते हैं, को इस कठोर अनुशासन की विशेष जरूरत है, क्योंकि अक्सर उनकी दीवारें कमजोर होती हैं। परिणाम चाहे कुछ भी हो, कांग्रेस का यह रूप कम से कम भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए कड़वी दवा जरूर है, लेकिन इसका दूरगामी असर होगा।