देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की झारखंड इकाई एक बार फिर चर्चा में है, क्योंकि उसके कुछ विधायकों ने सरकार (मंत्रियों) और संगठन के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए केंद्रीय नेताओं के पास शिकायत की है। इन विधायकों की शिकायत यह है कि सरकार और संगठन में इन्हें तवज्जो नहीं दी जा रही है, इनकी बातें नहीं सुनी जा रही हैं। जिन तीन विधायकों ने केंद्रीय नेताओं के पास शिकायत करने के लिए दिल्ली की यात्रा की, उनमें से एक तो पिछले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पार्टी में आये, जबकि दो अन्य तपे-तपाये कांग्रेसी हैं। हालांकि इन दो के बारे में यह बात भी आम है कि ये अति महत्वाकांक्षी हैं और किसी भी सूरत में संतुष्ट होनेवालों में से नहीं हैं। इसलिए राजनीतिक हलकों में और पार्टी के भीतर इनकी दिल्ली यात्रा को महज एक ‘राजनीतिक स्टंट’ माना जा रहा है। पार्टी का एक बड़ा तबका यह भी मान रहा है कि यह शिकायत उनकी ‘प्रेशर पॉलिटिक्स’ का हिस्सा है और इसे कुछ वैसे लोग हवा दे रहे हैं, जो अपनी महत्वाकांक्षा के लिए पार्टी छोड़ चुके हैं। झारखंड प्रदेश कांग्रेस के भीतर शुरू हुई इस नयी प्रेशर पालिटिक्स पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
तारीख 29 जुलाई। झारखंड के तीन कांग्रेसी विधायक, डॉ इरफान अंसारी, उमाशंकर अकेला और राजेश कच्छप देर शाम दिल्ली से रांची लौटते हैं और खुद को पूरी तरह क्वारेंटाइन कर लेते हैं। यहां तक कि फोन पर भी वे किसी से संपर्क नहीं करते। रात साढ़े नौ बजे के करीब सूचना आती है कि ये तीनों नाराज हैं और सरकार (मंत्रियों) तथा संगठन की शिकायत लेकर दिल्ली गये थे। इनके साथ झारखंड के राज्यसभा सांसद धीरज प्रसाद साहू भी थे। इन लोगों ने कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल और पार्टी अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के सामने अपनी शिकायत रखी है। राजनीतिक दृष्टि से यह बड़ी अहम सूचना थी और अगले एक घंटे में पूरी तस्वीर साफ हो गयी। इन तीन विधायकों में से कोई भी मीडिया के सामने कुछ भी बोलने के लिए तैयार नहीं था। सांसद ने भी चुप्पी साध रखी थी। 30 जुलाई को अखबारों में यही खबर आयी। लेकिन इसके साथ ही दिन भर राजनीतिक हलकों में इन विधायकों की चर्चा होती रही। डॉ इरफान अंसारी को छोड़ दें, तो बाकी दो विधायकों का चर्चा में आने का मकसद पूरा हो चुका था।
जहां तक कांग्रेस के भीतर की बात है, तो वहां इन विधायकों की दिल्ली यात्रा को लगभग नजरअंदाज करनेवाली नजरों से देखा जा रहा है। कांग्रेस के पुराने लोगों का कहना है कि सरकार का कामकाज समन्वित ढंग से चल रहा है और पार्टी हर कदम पर अपने सहयोगी झामुमो के साथ है। लेकिन तब यहां सवाल उठता है कि आखिर इन तीन विधायकों ने यह रुख क्यों अपनाया।
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए पिछले साल की शुरुआत में जाना होगा। लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस, झामुमो, राजद और झाविमो का महागठबंधन बना था, जिसमें कहा गया था कि गोड्डा सीट झाविमो के लिए छोड़ने के एवज में कांग्रेस एक अल्पसंख्यक को राज्यसभा का टिकट देगी। लोकसभा चुनाव हुए और महागठबंधन को केवल दो सीट मिली। इसके बाद विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें महागठबंधन से झाविमो अलग हो गया। इस चुनाव में टिकट को लेकर कांग्रेस के भीतर खूब खींचतान हुई और कई पुराने नेताओं ने पार्टी छोड़ दी। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस छोड़ कर गये किसी भी नेता को कामयाबी नहीं मिली। इसके बाद राज्यसभा चुनाव में पार्टी ने गणित पक्ष में नहीं रहने के बावजूद एक अल्पसंख्यक को उम्मीदवार बनाया। वर्तमान असंतोष वहीं से पैदा हुआ। पहले लोकसभा चुनाव में डॉ इरफान अंसारी अपने पिता फुरकान अंसारी के लिए गोड्डा से टिकट चाहते थे, जो नहीं मिला। विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी में प्रदीप यादव और बंधु तिर्की की इंट्री पर भी उन्होंने आंखें तरेरीं, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। फिर राज्यसभा चुनाव में भी उनका दावा खारिज हो गया। अल्पसंख्यक कोटे से मंत्री बनने की उनकी ख्वाहिश भी पूरी नहीं हुई। तबसे वह लगातार एक व्यक्ति-एक पद के सिद्धांत का हवाला देकर बागी तेवर अपनाये हुए हैं। उन्हें कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व सांसद प्रदीप बलमुचू से प्रोत्साहन मिला और सांसद धीरज प्रसाद साहू से समर्थन। जैसे-तैसे उन्होंने उमाशंकर अकेला और पहली बार विधायक बने राजेश कच्छप को अपने साथ जोड़ा और दिल्ली पहुंच गये।
दिल्ली में सरकार (मंत्रियों) और संगठन की शिकायत करने के 24 घंटे के भीतर ही इन तीनों विधायकों को यह एहसास होने लगा है कि उन्होंने गलत समय पर कदम उठाया है। कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि केंद्रीय नेताओं ने विधायकों की शिकायत के प्रति गंभीर रुख अपनाया है और पार्टी के प्रदेश प्रभारी आरपीएन सिंह से इस बाबत बात की है। सूचना है कि प्रदेश प्रभारी अगले सप्ताह रांची आकर स्थिति का आकलन करेंगे।
यह तो हुई कांग्रेस के अंदरखाने की बात। अब इन विधायकों की सरकार से शिकायत की बात। यह सही है कि हेमंत सोरेन सरकार अब तक वही फैसले कर रही है, जिसमें उसे अपने सहयोगी दलों का पूरा समर्थन हासिल है।
मुख्यमंत्री का पद संभालने से पहले ही हेमंत सोरेन ने कांग्रेस और राजद नेताओं से साफ कह दिया था कि वह किसी दबाव में फैसला नहीं करेंगे। यही कारण है कि डॉ इरफान अंसारी सरीखे विधायकों की महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो पा रही है।
ट्रांसफर-पोस्टिंग से लेकर ठेका-पट्टा तक में कोई पैरवी नहीं सुनी जा रही है। ऐसा नहीं है कि हेमंत सोरेन केवल अपने सहयोगी दलों के साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं। वह अपनी पार्टी के विधायकों की भी कोई अनुचित पैरवी पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। इस मामले में वह बहुत सख्त हैं। उनके पास कोई पैरवी लेकर जाने का सोच भी नहीं सकता। यही कारण है कि डॉ इरफान अंसारी और अन्य विधायक अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए ही सरकार की शिकायत कर रहे हैं।
इन तमाम परिस्थितियों से एक बात साफ हो गयी है कि झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन के कुछ विधायकों की उछलकूद कोई आकार नहीं पा सकती। इसमें यह भी साफ है कि भले ही तीन विधायकों के नाम सामने आ रहे हैं, लेकिन इसके पर्दे के पीछे एक ऐसे नेता हैं, जो कभी कांग्रेस के राज्यसभा सांसद थे, कभी प्रदेश अध्यक्ष भी थे, लेकिन इन दिनों वह आजसू में हैं। संगठन में फिर से जगह बनाने के लिए वे अपनी पकड़ का इस्तेमाल कर रहे हैं। अभी तक की गतिविधियों पर नजर डालने से साफ है कि यह प्रेशर पोलिटिक्स है।