आधुनिक राजनीति को वैसे अवसरवादिता का पर्याय माना जाता है, लेकिन कभी-कभी यह अवसरवादिता इतनी महंगी पड़ जाती है कि लोगों की हस्ती भी इसमें गायब हो जाती है। झारखंड में चुनाव से ठीक पहले पाला बदलने का लंबा इतिहास रहा है और कई लोग ऐसे भी हुए, जिन्हें इसका लाभ मिला, लेकिन दूसरी तरफ कई ऐसे नेता भी हैं, जो चुनाव हारने के साथ ही सार्वजनिक जीवन से गायब ही हो गये। सुखदेव भगत, मनोज यादव और राधाकृष्ण किशोर ऐसे ही नेता हैं। इन तीनों ने विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अपना पाला बदला और चुनाव हारने के बाद राजनीतिक परिदृश्य से गायब दिख रहे हैं। जब तक ये तीनों अपनी पुरानी पार्टियों में थे, तब तक विधायक नहीं रहने के बावजूद पार्टी की राजनीतिक गतिविधियों में इनकी भागीदारी होती थी, प्रदेश की राजनीति में इनका अच्छा-खासा हस्तक्षेप हुआ करता था, लेकिन विधानसभा चुनाव हारने के बाद तो इनके पास कोई काम नहीं रह गया है। न पार्टी संगठन में इनकी कोई भूमिका रह गयी है और न राजनीतिक मुद्दों पर इनसे कोई राय लेता है। राज्य के राजनीतिक परिदृश्य से सुखदेव भगत, मनोज यादव और राधाकृष्ण किशोर की गैर-मौजूदगी के कारणों और परिणामों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
आधुनिक ओलंपिक के जन्मदाता पियरे द कुबर्तिन ने कहा था कि ओलंपिक खेलों में पदक जीतने से अधिक महत्वपूर्ण इसमें भाग लेना होता है। यह बात कमोबेश आधुनिक राजनीति और चुनावी मुकाबले के लिए भी कही जाती है। लेकिन झारखंड के कम से कम तीन कद्दावर नेताओं के बारे में यदि कहा जाये कि उनके लिए केवल जीतने का ही महत्व है, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। हम बात कर रहे हैं सुखदेव भगत, मनोज यादव और राधाकृष्ण किशोर की। पिछले साल विधानसभा चुनाव से ठीक पहले 23 अक्तूबर को इन सुखदेव भगत और मनोज यादव ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था, क्योंकि ये पुरानी पार्टी से नाराज हो गये थे। उस समय इन दोनों ने कहा था कि वे भाजपा की नीतियों-सिद्धांतों से प्रभावित होकर पार्टी में शामिल हुए हैं। राधाकृष्ण किशोर भाजपा का टिकट नहीं मिलने से नाराज हो गये और उन्होंने आजसू का दामन थाम लिया। भाजपा ने सुखदेव भगत को लोहरदगा से और मनोज यादव को बरही से विधानसभा चुनाव में उतारा भी, लेकिन जनता ने इन्हें वोट नहीं दिया। उधर राधाकृष्ण किशोर को भी आजसू ने छतरपुर से मैदान में उतारा, लेकिन वह भाजपा उम्मीदवार से पार नहीं पा सके। इस तरह इन तीनों का विधानसभा तक पहुंचने का सपना भी टूट गया।
लेकिन एक नेता के चुनाव हारने के बाद इस तरह सीन से गायब होना सहज नहीं प्रतीत होता है। आम तौर पर चुनाव हारने के बाद नेता अपने इलाके में दोगुने जोश से सक्रिय होते हैं, ताकि अगले चुनाव तक स्थिति सुधर सके। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जो लगातार पांच साल तक क्षेत्र में बने रहे और बाद में सफल हुए। उदाहरण के लिए दुमका के सांसद सुनील सोरेन, कांग्रेस के दिवंगत विधायक राजेंद्र प्रसाद सिंह और लोहरदगा के विधायक डॉ रामेश्वर उरांव का नाम लिया जा सकता है। सुनील सोरेन तो लगातार दो चुनाव हारने के बावजूद क्षेत्र में बने रहे और तीसरी बार में उन्हें सफलता मिली। उसी तरह राजेंद्र बाबू और डॉ रामेश्वर उरांव ने चुनाव हारने के बावजूद लोगों से संपर्क बनाये रखा और चुनाव जीतने में सफल हुए।
लेकिन सुखदेव भगत, मनोज यादव और राधाकृष्ण किशोर चुनाव हारने के बाद से कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। कोरोना काल में भी लोहरदगा, बरही और छतरपुर में उनकी मौजूदगी का कोई निशान नहीं मिला। उनकी पार्टियों में भी उनके लिए कोई जगह नहीं बची। ये तीन नाम ऐसे हैं, जिनकी पूरे राज्य की राजनीति में तूती बोलती थी। विधानसभा में इनकी मौजूदगी को दोनों पक्षों के लोग इज्जत देते थे। अपने-अपने इलाके में भी इनका अच्छा-खासा प्रभाव हुआ करता था। सुखदेव भगत को तो पार्टी की प्रदेश इकाई की कमान भी सौंपी गयी थी। राधाकृष्ण किशोर की विधायी मामलों की जानकारी के सभी कायल थे।
मनोज यादव कांग्रेस विधायक दल के मुख्य सचेतक भी थे। भले ही पार्टी के केवल नौ विधायक थे, लेकिन संगठन में उनकी अलग पहचान थी।
इन तीनों नेताओं के इस तरह गायब हो जाने के पीछे एकमात्र कारण इनकी अपनी महत्वाकांक्षा है। चुनाव से पहले पार्टी बदलने का इनका फैसला पूरी तरह गलत साबित हो गया है, लेकिन इनकी गैर-मौजूदगी की कीमत झारखंड को चुकानी पड़ रही है। इन तीनों नेताओं की समझदारी और जानकारी से प्रदेश को महरूम होना पड़ रहा है। सुखदेव भगत और मनोज यादव की पूछ भाजपा में तो नहीं ही रह गयी है, क्योंकि पार्टी के लिए ये केवल चुनावी नेता हैं। राधाकृष्ण किशोर की उपयोगिता भी आजसू के लिए नहीं के बराबर है। आज यह पता भी नहीं चल रहा है कि ये तीनों नेता कहां हैं और किस हाल में हैं।
इन तीनों नेताओं की वर्तमान स्थिति से एक बात स्थापित हो गयी है कि जनता की नजर में इस तरह पाला बदलनेवाले नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है। हालांकि कुछ नेता पाला बदलने के बावजूद विधायक का चुनाव जीतने में सफल हो गये, लेकिन कहा जा सकता है कि उन्हें नकारात्मक वोटों का लाभ मिला। जैसे बरही से उमाशंकर अकेला ने चुनाव से ठीक पहले भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस का दामन थामा, लेकिन वह चुनाव जीत गये, क्योंकि बरही के वोटर मनोज यादव के पाला बदलने से अधिक नाराज थे। इसी तरह लातेहार में बैजनाथ राम के पाला बदलने की अपेक्षा लोगों को प्रकाश राम का पार्टी बदलना अधिक नागवार गुजरा।
कहनेवाले तो यह भी कहते हैं कि चुनावी राजनीति में हार-जीत लगी रहती है, लेकिन यहां हारने के बाद सार्वजनिक जीवन से गायब होने की बात हो रही है। सुखदेव भगत, मनोज यादव और राधाकृष्ण किशोर जैसे कद्दावर नेताओं की अनुपस्थिति की कीमत झारखंड को चुकानी पड़ रही है और आगे भी चुकानी होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।