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    Home»Top Story»जीवनभर दबे-कुचलों की बेहतरी के लिए लड़ते रहे फादर स्टेन स्वामी
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    जीवनभर दबे-कुचलों की बेहतरी के लिए लड़ते रहे फादर स्टेन स्वामी

    sonu kumarBy sonu kumarJuly 7, 2021Updated:July 7, 2021No Comments4 Mins Read
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    रांची। जीवनभर दबे-कुचलों की बेहतरी के लिए लड़नेवाले फादर स्टेन स्वामी का पूरा नाम स्टैनिस्लॉस लोर्दूस्वामी था। वे एक रोमन कैथोलिक पादरी थे। 1990 के दशक से ही उन्होंने अपना पूरा जीवन झारखंड के आदिवासियों और वंचितों के अधिकारों के लिए काम करने में लगा दिया। स्टेन स्वामी का जन्म अंग्रेजी शासनकाल के दौरान 26 अप्रैल 1937 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में हुआ था। उन्होंने थियोलॉजी और मनीला विश्वविद्यालय से 1970 के दशक में समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की। बाद में ब्रसेल्स में भी पढ़ाई की। यहां उनकी दोस्ती आर्चबिशप होल्डर कामरा से हुई। ब्राजील के गरीबों के लिए किये गये उनके काम ने स्टेन स्वामी को प्रभावित किया। 1975 से 1986 तक उन्होंने बेंगलुरू स्थित इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट के निदेशक के तौर पर काम किया। झारखंड में आदिवासियों के लिए एक कार्यकर्ता के रूप में करीब 30 साल पहले उन्होंने काम करना शुरू किया। उन्होंने जेलों में बंद आदिवासी युवाओं की रिहाई के लिए काम किया, जिन्हें अकसर झूठे मामलों में फंसाया जाता था। इसके साथ ही उन्होंने हाशिये पर रहनेवाले उन आदिवासियों के लिए भी काम किया, जिनकी जमीन का बांध, खदान और विकास के नाम पर बिना उनकी सहमति के अधिग्रहण कर लिया गया था।
    बिरसा एनजीओ बनायी थी
    स्टेन स्वामी के साथ बिरसा एनजीओ में काम कर चुके चाईबासा के सामाजिक कार्यकर्ता दामू वानरा ने बताया कि समाजशास्त्र से एमए करने के बाद कैथोलिक्स की ओर से चलाये जा रहे बेंगलुरू स्थित इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट में निदेशक के तौर पर काम करने के दौरान ही स्टेन स्वामी चाईबासा आने लगे। उन्होंने गरीबों तथा वंचितों के साथ रह कर उनके जीवन को नजदीक से देखने और समझने की कोशिश की। इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट से 1986 में रिटायर होने के बाद स्टेन स्वामी चाईबासा में ही जाकर रहने लगे और वहां उन्होंने आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने के वास्ते बिरसा नाम के एनजीओ की स्थापना की। वहीं, मुख्य रूप से मिशनरी के सामाजिक कार्य के लिए जोहार नाम का एनजीओ का शुरू किया। वर्ष 2003 तक तो स्टेन स्वामी चाईबासा के आदिवासियों और मिशनरियों के ही होकर रह गये, लेकिन उसके बाद वह रांची के नामकुम में जाकर रहने लगे और चाईबासा में कभी-कभी जाते थे। पादरी होने के बाद भी स्टेन स्वामी कभी भी लोगों से दूर नहीं होते थे। उनसे कभी भी कोई भी जाकर मिल सकता था। स्वामी स्वयं चाईबासा के गांव-गांव से जुड़े हुए थे। बड़ी संख्या में वहां ऐसे गांव हैं, जहां लोग स्वामी को व्यक्तिगत तौर पर जानते थे।
    शुरूआती दिनों में उन्होंने पादरी का काम किया, लेकिन फिर आदिवासी अधिकारों की लड़ाई लड़ने लगे। बतौर मानवाधिकार कार्यकर्ता झारखंड में विस्थापन विरोधी जनविकास आंदोलन की भी स्थापना की। यह संगठन आदिवासियों और दलितों के अधिकारों की लड़ाई लड़ता है। फादर स्टेन स्वामी झारखंड आॅर्गेनाइजेशन अगेंस्ट यूरेनियम रेडियेशन से भी जुड़े रहे, जिसने 1996 में यूरेनियम कॉरपोरेशन के खिलाफ आंदोलन चलाया था, जिसके बाद चाईबासा में बांध बनाने का काम रोक दिया गया। वर्ष 2010 में फादर स्टेन स्वामी की जेल में बंद कैदियों का सच नाम की किताब प्रकाशित हुई, जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि कैसे आदिवासी नौजवानों को नक्सली होने के झूठे आरोपों में जेल में डाला गया। उनके साथ काम करने वाली सिस्टर अनु ने बताया कि स्वामी गरीब आदिवासियों से जेल में भी मिलने जाते थे और 2014 में उन्होंने एक रिपोर्ट तैयार की, जिसमें कहा गया कि नक्सली होने के नाम पर हुई तीन हजार गिरफ्तारियों में से 97 प्रतिशत मामलों में आरोपी का नक्सल आंदोलन से कोई संबंध नहीं था। इसके बावजूद ये नौजवान जेल में बंद रहे। अपने अध्ययन में उन्होंने यह भी बताया कि झारखंड की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में 31 प्रतिशत आदिवासी हैं और उनमें भी अधिकतर गरीब आदिवासी।

    Father Stan Swami fought for the betterment of the downtrodden throughout his life
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