विशेष
-राजमहल, सारठ, गोड्डा और देवघर सीट पर होगी भाजपा की अग्निपरीक्षा
इनमें से कुछ सीटें छिटकेंगी, तो कुछ नयी सीटों पर उम्मीद कर सकती है भाजपा
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड विधानसभा चुनाव की तैयारियों के माहौल को समझने के लिए आजाद सिपाही का चुनावी रथ संथाल परगना में लगातार कैंप कर रहा है। इस चुनावी यात्रा के दौरान संथाल परगना के 18 विधानसभा क्षेत्रों के माहौल को नजदीक से देखने पर एक बात साफ होती है कि झारखंड की सत्ता की चाबी माने जानेवाले संथाल परगना में चुनावी मुकाबला बेहद रोमांचक होगा, हालांकि 2019 की तुलना में इस बार भाजपा के लिए राह कठिन दिख रही है। 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को संथाल परगना की 18 में से केवल चार विधानसभा सीटों पर ही जीत मिली थी, लेकिन हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में उसने यहां के आठ विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल की है संथाल की जिन चार विधानसभा सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी, उनमें से तीन, राजमहल, गोड्डा और सारठ अनारक्षित हैं, जबकि देवघर सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। इस बार भाजपा के सामने इन चार सीटों को अपने पास बनाये रखने की बड़ी चुनौती दिख रही है। इसका कारण यह नहीं है कि इन चार विधायकों का प्रदर्शन खराब है, बल्कि इसका मुख्य कारण संथाल परगना में भाजपा की लगातार कमजोर होती रणनीति है। भाजपा ने संथाल परगना को चुनावी दृष्टिकोण से बहुत आसान समझने की जो गलती लोकसभा चुनाव में की, वह अब भी कायम है। इसलिए कहा जा रहा है कि भाजपा के लिए ये चार सीटें बचाना आसान नहीं है। हालांकि यदि लोकसभा चुनाव के परिणाम पर नजर डाली जाये, तो उसने आठ सीटों पर बढ़त हासिल की थी और हो सकता है कि इनमें से कोई नयी सीट उसके कब्जे में आ जाये। क्या है इन चार सीटों का सियासी माहौल और इन पर भाजपा की स्थिति, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड की सत्ता की चाबी माने जानेवाले संथाल परगना का सियासी माहौल पूरी तरह चुनावी होता जा रहा है। बारिश और सावन के पवित्र महीने में हर तरफ ‘बोल बम’ की गूंज के बीच चुनावी चर्चाएं भी परवान चढ़ रही हैं। देवघर से लेकर बासुकीनाथ और गोड्डा से लेकर राजमहल तक हर तरफ अगले तीन महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव के बारे में बातें हो रही हैं। इन बातचीत में एक बात नोट करने लायक है कि लोग अब राजनीति के महीन और झीनी परतों को भी उधेड़ने से परहेज नहीं कर रहे हैं। चाहे विधायक हो या सांसद या किसी भी पार्टी का पदधारी, लोग उसके बारे में हर वह जानकारी दे देते हैं, जो पहले संभव नहीं थी। यह सब सोशल मीडिया के कारण संभव हुआ है। कौन किससे मिल रहा है, कहां जा रहा है और कैसा काम कर रहा है से लेकर गलत कामों को गिनाने में आम लोग पीछे नहीं हटते। इस तरह के माहौल में चुनावी संभावनाओं का आकलन करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है, लेकिन माहौल को समझना आसान हो गया है।
आजाद सिपाही का चुनावी रथ संथाल परगना में पड़ाव डाले हुए है। इस भ्रमण के दौरान एक बात साफ तौर पर नजर आयी कि इस बार संथाल परगना में भाजपा के लिए चुनाव किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है। झारखंड की राजनीति में संथाल परगना की भूमिका काफी अहम मानी जाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सबसे बड़े सोरेन परिवार के सभी सदस्य यहां की राजनीति करते हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव में झामुमो को सबसे बड़ी पार्टी बनाने के साथ सत्ता में लाने का काम संथाल परगना ने ही किया था। यहां की 18 विधानसभा सीटों में से 50 प्रतिशत यानी नौ सीटों पर झामुमो जीती थी। इंडिया गठबंधन की सहयोगी कांग्रेस ने यहां चार (प्रदीप यादव के शामिल होने के बाद पांच) सीटें जीती थी। संथाल परगना में मिली इस ऐतिहासिक सफलता ने झामुमो नेतृत्व और खास कर हेमंत सोरेन को अपनी राजनीतिक रणनीति पर दोबारा विचार करने पर मजबूर कर दिया। विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के बाद हेमंत सोरेन ने संथाल की किलेबंदी पर अधिक ध्यान दिया। उन्होंने कैबिनेट में तीन स्थान (खुद को मिला कर चार) के अलावा स्पीकर भी संथाल से बनाया।
भाजपा के लिए चुनौती भी और अवसर भी
संथाल परगना की झामुमो ने जिस तरह किलेबंदी की है, उससे भाजपा के लिए चुनौती बड़ी हो गयी है। संथाल परगना में आदिवासियों की बहुसंख्यक आबादी को अपने पक्ष में करने के लिए भाजपा लंबे समय से कोशिश कर रही है। उसकी कोशिशें लोकसभा चुनाव में सफल होती दिखने लगी थीं। हालांकि जेल से बाहर आने के बाद हेमंत सोरेन का पूरा फोकस संथाल परगना पर हो गया है। हेमंत सोरेन की रणनीति यह है कि भाजपा ने जिन चार सीटों को यहां से जीता है, उसे कैसे अपने पाले में किया जाये। इसके लिए झामुमो के लोग अभी से ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार दौरा कर रहे हैं और एक-एक व्यक्ति से संपर्क साध रहे हैं।
क्या है भाजपा की चार सीटों का माहौल
संथाल परगना में लोकसभा की तीन और विधानसभा की 18 सीटें हैं। 2019 के संसदीय चुनाव में भाजपा ने तीन में दो सीटें- दुमका और गोड्डा जीत ली थीं, जबकि इस बार उसे सिर्फ गोड्डा सीट से ही संतोष करना पड़ा। विधानसभा की 18 सीटों में सात अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। इनमें सात आरक्षित सीटों, दुमका, जामा, शिकारीपाड़ा, लिट्टीपाड़ा, महेशपुर, बोरियो और बरहेट के अलावा दो अनारक्षित सीटों, नाला और मधुपुर पर झामुमो का कब्जा है। उसकी सहयोगी कांग्रेस के पास पांच सीटें- जरमुंडी, पोड़ैयाहाट, महगामा, जामताड़ा और पाकुड़ हैं। भाजपा के पास चार सीटें- देवघर, गोड्डा, सारठ और राजमहल हैं। इन चार में से तीन सामान्य सीटें हैं, जबकि देवघर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है।
देवघर में नारायण दास के सामने चैलेंज
2019 के विधानसभा चुनाव में देवघर से भाजपा के नारायण दास जीते थे। उन्होंने राजद के सुरेश पासवान को करीब तीन हजार वोटों के अंतर से हराया था। नारायण दास को कुल 95 हजार 491 वोट और सुरेश पासवान को 92 हजार 867 वोट मिले थे। देवघर विधानसभा सीट गोड्डा संसदीय क्षेत्र के तहत आती है। हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में यहां से भाजपा को 1.53 लाख वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 1.17 लाख वोट मिले। वोटों का यह आंकड़ा भाजपा के पक्ष में झुका हुआ दिखता जरूर है, लेकिन देवघर विधानसभा क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या सांसद निशिकांत दुबे और नारायण दास के संबंधों को लेकर है। लोकसभा चुनाव के बाद दोनों के बीच की दूरी पूरी तरह सामने आ गयी। नारायण दास ने तो यहां तक कहा कि निशिकांत दुबे के दबंग लोग उनके लोगों को धमका रहे हैं। हालांकि बाद में इस पर परदा डालने की कोशिश की गयी, लेकिन यह सिर्फ ऊपर-ऊपर। जमीनी हकीकत यह है कि यहां दोनों के समर्थकों के बीच बड़ी अनबन है। यह अनबन विधानसभा चुनाव में भारी पड़नेवाली है।
राजमहल में डगमगा रही है अनंत ओझा की नाव
इसी तरह राजमहल विधानसभा क्षेत्र की बात करें, तो 2019 में यहां से भाजपा के अनंत ओझा ने जीत हासिल की थी। उन्होंने आजसू के ताजुद्दीन को 12 हजार से अधिक वोटों के अंतर से हराया था। अनंत ओझा को 88 हजार 777 और ताजुद्दीन को 76 हजार 163 वोट मिले थे। हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में यहां से झामुमो के विजय हांसदा ने जीत हासिल की है। इस विधानसभा क्षेत्र से झामुमो को 1.09 हजार से अधिक वोट मिले, जबकि भाजपा को 1.06 हजार वोट मिले। इस बार अनंत ओझा की नाव डगमगाती हुई नजर आ रही है, क्योंकि उनकी जीत का पूरा दारोमदार आजसू पर है। तालमेल हुआ तो ठीक, अन्यथा भाजपा के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है। वैसे विधायक के तौर पर अनंत ओझा के काम की शिकायत मतदाताओं के बीच नहीं है, लेकिन यहां जातीय समीकरण कुछ ऐसा है छोटी-सी बात भी नासूर बन जाती है।
सारठ में फंसे हुए हैं रणधीर सिंह
सारठ विधानसभा क्षेत्र के वर्तमान विधायक भाजपा के रणधीर सिंह हैं। 2019 में उन्होंने झाविमो के उदय शंकर सिंह को 18 हजार से अधिक वोट के अंतर से हराया था। रणधीर सिंह को 90 हजार 895 वोट मिले थे, जबकि उदय शंकर सिंह को 62 हजार 175 वोट मिले थे। यह सीट दुमका संसदीय क्षेत्र के तहत आती है। इस बार के लोकसभा चुनाव में हालांकि यहां से भाजपा की सीता सोरेन ने झामुमो प्रत्याशी नलिन सोरेन पर बढ़त बनायी, लेकिन इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा की आंतरिक गुटबाजी के कारण रणधीर सिंह की गाड़ी फंसी हुई नजर आती है। लोकसभा चुनाव में रणधीर सिंह और सीता सोरेन के समर्थकों के बीच तालमेल नहीं बन पाया। सीता सोरेन ने भी यह आरोप लगाया कि उन्हें सारठ से अपेक्षित सफलता नहीं मिली। जाहिर है, इसका असर विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा। ऐसे में देखना यह होगा कि रणधीर सिंह अपनी चुनावी नैया को कैसे पार लगाते हैं।
गोड्डा में अमित मंडल की राह में कांटे ही कांटे
अब बात गोड्डा विधानसभा सीट की, जो भाजपा का गढ़ माना जाता है। 2019 के चुनाव में यहां से भाजपा के अमित मंडल ने 87 हजार 578 वोट लाकर राजद के संजय प्रसाद यादव को चार हजार से अधिक वोटों के अंतर से हराया था। राजद प्रत्याशी को 83 हजार 66 वोट मिले थे। हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में गोड्डा विधानसभा क्षेत्र से भाजपा को 1.07 लाख से अधिक वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी को 90 हजार से अधिक वोट मिले थे। यह आंकड़ा भी भाजपा के पक्ष में दिखता है, लेकिन विधानसभा चुनाव के वोटिंग का पैटर्न बताता है कि इस बार यहां भाजपा की राह आसान नहीं है। वैसे अमित मंडल की अपनी एक पहचान है, साख है, वह किसी भी डैमेज को कंट्रोल करने की क्षमता रखते हैं।
2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम
यहां मिली भाजपा को बढ़त
दुमका (एसटी), जामा (एसटी), देवघर (एससी), जरमुंडी, नाला, सारठ, पोड़ैयाहाट, गोड्डा।
यहां मिली झामुमो को बढ़त
बोरियो (एसटी), बरहेट (एसटी), लिट्टीपाड़ा (एसटी), महेशपुर (एसटी), शिकारीपाड़ा (एसटी), पाकुड़, राजमहल, जामताड़ा।
यहां मिली कांग्रेस को बढ़त
मधुपुर, महागामा।