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    Home»विशेष»तीन दशक से जारी है संथाल परगना क्षेत्र में बांग्लादेशियों की घुसपैठ, जानिए कैसे होती है घुसपैठ
    विशेष

    तीन दशक से जारी है संथाल परगना क्षेत्र में बांग्लादेशियों की घुसपैठ, जानिए कैसे होती है घुसपैठ

    shivam kumarBy shivam kumarJuly 30, 2024No Comments11 Mins Read
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    विशेष
    -राजनीतिक नहीं, सामाजिक समस्या है घुसपैठ
    -तीन दशक से जारी है संथाल परगना क्षेत्र में बांग्लादेशियों की घुसपैठ
    -पहली बार 2001 में राज्य के गृह विभाग ने सरकार के संज्ञान में यह मामला लाया था
    -इसके बाद 2009 में गृह विभाग ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी थी, जिसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया
    -झारखंड के हित के खिलाफ है यूनियन टेरिटरी की मांग करना

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    झारखंड में आसन्न विधानसभा चुनाव से पहले इन दिनों राज्य में घुसपैठियों का मुद्दा बेहद गरम है। दो दिन पहले पाकुड़ में हुई घटना और उसके बाद आदिवासी युवाओं का सड़क पर उतरना इसी मुद्दे का एक पहलू है। पाकुड़ की घटना के बाद राजनीति भी तेज हो गयी है और सत्ता पक्ष और विपक्ष इसे अपने-अपने नजरिये से देख रहा है, राजनीति कर रहा है। लेकिन यह हकीकत है कि झारखंड में घुसपैठियों की समस्या राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक है। यह समस्या हेमंत सोरेन की सरकार के समय उत्पन्न नहीं हुई है, बल्कि तीन दशक से भी अधिक समय से यह पैदा हुई है। झारखंड की भौगोलिक संरचना ही ऐसी है कि यहां के 24 में से 22 जिले जहां दूसरे राज्यों की सीमा से मिलते हैं, वहीं संथाल परगना का साहिबगंज और पाकुड़ जिला बांग्लादेश की सीमा से सटा हुआ है। राज्य में घुसपैठ की समस्या नयी नहीं है, बल्कि अलग राज्य बनने से एकीकृत बिहार के समय से ही इस तरफ सरकारों का ध्यान खींचा गया था। झारखंड बनने के बाद पहली बार 2001 में घुसपैठ सामने आयी थी, जब जनगणना के दौरान साहिबगंज में एक वर्ग विशेष की आबादी में अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की गयी थी। झारखंड अलग राज्य बनने के बाद कम से कम तीन बार राज्य के गृह विभाग ने सरकार का ध्यान इस तरफ आकृष्ट कराया। सबसे पहले 2001 में राज्य के गृह विभाग ने सरकार के संज्ञान में या मामला लाया, फिर 2009 में इसकी विकरालता के बारे में जानकारी दी गयी, लेकिन कभी किसी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। 2018 में राज्य में मिनी एनआरसी लागू करने की बात भी इसीलिए कही गयी थी, लेकिन फिर इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। अब एक बार फिर यह मुद्दा उठा है, तो सभी राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि इसके लिए सभी राजनीतिक दल समान रूप से जिम्मेवार हैं। सबसे दुखद तो यह है सत्ता हासिल करने के इरादे से कुछ लोग या दल इस पर हाय-तौबा मचा रहे हैं। चुनाव खत्म होते ही यह आवाज बंद हो जायेगी। अलबत्ता इसी बीच पाकुड़ की घटना ने एकबारगी सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यह पहली बार हुआ है, जब वहां के छात्र संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लिखित रूप से प्रशासन के सामने इस समस्या को उठाया है। इस पर राजनीति नहीं, बल्कि सभी को आत्ममंथन करने की जरूरत है। इसके लिए सिर्फ हेमंत सरकार को दोषी ठहराना न्यायोचित नहीं होगा, क्योंकि जिस सीमा से बांग्लादेशी घुसपैठिये घुसते हैं, उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। सवाल सीमा की सुरक्षा करनेवालों से भी है कि जब वे दावा करते हैं कि सुरक्षा इतनी है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता, फिर ये घुसपैठिये कैसे घुस जाते हैं। ऐसा बिहार के कुछ जिलों में भी हुआ है और पश्चिम बंगाल में भी। घुसपैठ की पीड़ा असम के लोग भी झेल चुके हैं। अगर इस पर सभी दलों ने चिंतन-मनन नहीं किया और समाधान नहीं निकला, तो क्या हो सकता है इसका सामाजिक असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    दो दिन पहले पाकुड़ में हुई घटना से फिर साबित हो गया है कि झारखंड में घुसपैठ की समस्या गंभीर है। महेशपुर के गायबथान में 18 जुलाई को जिस तरह आदिवासी परिवार के साथ मारपीट की गयी, उससे आदिवासी समाज के लोग आक्रोशित हो गये। इस घटना के विरोध में पाकुड़ की सड़कों पर जिस तरह आदिवासी युवाओं ने विरोध प्रदर्शन किया और डीसी-एसपी को ज्ञापन सौंपा, उसने घुसपैठ की समस्या को न केवल रेखांकित किया है, बल्कि इसके खतरनाक सामाजिक परिणाम की तरफ भी इशारा किया है।

    हाइकोर्ट ने भी जतायी है चिंता
    इसी महीने झारखंड हाइकोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार को कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों को चिह्नित कर वापस भेजने की योजना बनाने का निर्देश दिया। उससे पहले हाइकोर्ट ने केंद्र सरकार से भी यह पूछा कि इसका समाधान कैसे निकलेगा। इसके बाद यह मामला सुर्खियों में आ गया। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह भी पूछा है कि क्या केंद्र सरकार यहां सीएए के तहत सीधे घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है। कोर्ट ने इसे गंभीर मामला बताते हुए कहा कि इस पर केंद्र सरकार को भी राज्य सरकार के साथ मिल कर काम करने की जरूरत है।

    आदिवासियों की आबादी में बदलाव
    विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार संथाल परगना में आदिवासियों की संख्या धीरे-धीरे घट रही है। उनका अस्तित्व खतरे में है। जनसंख्या के सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि संथाल परगना प्रमंडल के छह जिलों दुमका, पाकुड़, साहिबगंज, गोड्डा, जामताड़ा और देवघर की डेमोग्राफी में काफी बदलाव आया है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक इन छह जिलों में 1951 में आदिवासियों की आबादी 44.66 प्रतिशत थी, जो 2011 में घट कर 28.11 फीसदी हो गयी, वहीं मुस्लिमों की आबादी 9.44 से बढ़ कर 22.73 प्रतिशत हो गयी। साल 2000 में राज्य बने झारखंड की आबादी 1951 की जनगणना में करीब 97 लाख थी, जो 2011 में बढ़ कर 3 करोड़ 30 लाख हो गयी। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि संथाल परगना के इन सभी छह जिलों में आबादी में औसत सात से आठ लाख का इजाफा हुआ है। कुछ लोगों का आरोप है कि घुसपैठ के बिना इतनी तेजी से आबादी का बढ़ना नामुमकिन है। पाकुड़ की घटना को इसी पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है कि कैसे एक आदिवासी की जमीन पर कब्जा किया जा रहा है।

    कैसे होती है घुसपैठ
    संथाल परगना के कुछ जिले बांग्लादेश की सीमा से महज 40-50 किलोमीटर दूर हैं। इनमें पाकुड़ सबसे नजदीक है। पश्चिम बंगाल के मालदा जिले का मोहदीपुर बांग्लादेश की सीमा से सटा हुआ है। इस इलाके में कहीं बाड़ है, तो कहीं सीमा खुली हुई भी है। मोहदीपुर से पश्चिम बंगाल के कालियाचक होते हुए एनटीपीसी फरक्का मोड़ से राजमहल के लिए सीधी सड़क है। इस रास्ते में कोई चेकपोस्ट नहीं है। कालियाचक से महज 15 किलोमीटर की दूरी पर बांग्लादेश की सीमा है। सीमा पार कर कोई अगर बंगाल के कालियाचक आ जाये, तो वह नाव से साहिबगंज में आसानी से दाखिल हो सकता है। फरक्का के तालतला घाट से नाव के सहारे साहिबगंज जिले के उधवा नाला पहुंचने का भी एक जरिया है। इन इलाकों में पर्याप्त चेकिंग नहीं होती है। घुसपैठिये पूरे सिस्टमेटिक तरीके से आते हैं। इस इलाके में सभी जगह घुसपैठ करानेवाले एजेंट हैं। घुसपैठियों को सिस्टमेटिक ढंग से यहां बसाया जाता है। झारखंड में अधिकांश बांग्लादेशी फरक्का, उधवा, पियारपुर, बेगमगंज, फुदकलपुर, अमंथ, श्रीधर, दियारा, बेलूग्राम, चांदशहर और प्राणपुर से आते हैं। पुलिस का भी मानना है कि बांग्लादेशियों के आने से अपराध और देशविरोधी गतिविधियां बढ़ी हैं। इन घुसपैठियों ने दलालों और स्थानीय लोगों की मदद से वोटर आइडी, आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस तक बनवा रखा है। उधवा पक्षी अभ्यारण्य और वन विभाग की जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया गया है। साहिबगंज और पाकुड़ समेत अन्य जिलों की डेमोग्राफी में पिछले तीन दशक में जबरदस्त बदलाव रिकॉर्ड किया गया है।

    अधिकारी की भविष्यवाणी
    अब बात एक भविष्यवाणी की। वह वर्ष 2015 था। झारखंड सरकार के गृह विभाग के एक वरीय अधिकारी ने अनौपचारिक बातचीत के दौरान बताया कि झारखंड में घुसपैठ की समस्या अगले 10 साल में इतनी विकराल होनेवाली है कि इससे पार पाना मुश्किल हो जायेगा। उन्होंने सरकारी आंकड़े के हवाले से बताया कि झारखंड में करीब 15 लाख ऐसे लोग आकर बस गये हैं, जो भारत के नागरिक नहीं हैं। उस अधिकारी ने 2022 में एक बार फिर संपर्क किया और झारखंड के छोटे-छोटे जिलों में हुए सांप्रदायिक हिंसा के बाद पैदा हुए तनाव का जिक्र करते हुए सात साल पहले दी गयी अपनी चेतावनी की याद दिलायी। और आज उस अधिकारी की भविष्यवाणी एकदम सटीक साबित होती हुई नजर आ रही है। पाकुड़ की घटना ने उस भविष्यवाणी की याद बरबस ही दिला दी है। उस अधिकारी ने कहा था कि पहले रांची, जमशेदपुर और हजारीबाग जैसे शहर सांप्रदायिक दृष्टिकोण से संवेदनशील माने जाते थे, लेकिन अब तो पाकुड़, गोड्डा, लोहरदगा, सिमडेगा और बरही जैसे शहरों में तनाव पसरने लगा है। अधिकारी की इस चेतावनी और झारखंड में घुसपैठ की समस्या को समझने और उसके समाधान के लिए सबसे पहले यह मानना होगा कि यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक समस्या है।

    किसी सरकार ने कुछ नहीं किया
    यह एक हकीकत है कि बांग्लादेशी हों या फिर रोहिंग्या मुसलमान, भारत के विभिन्न भागों में दोनों की घुसपैठ गंभीर समस्या है। देश का शायद ही कोई राज्य हो, जहां बांग्लादेशी और रोहिंग्या लोग अवैध रूप से ना बसे हों। राष्ट्रीय स्तर पर यह मामला उठता ही रहता है और स्वाभाविक रूप से झारखंड भी इससे अछूता नहीं है। राज्य का प्राय: हर जिला कमोबेश इससे प्रभावित है। प्रशासन को पता है कि संथाल परगना के जिलों और कस्बों में भारी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठिये आ गये हैं और उन्हें वैध नागरिकता प्रमाण पत्र उपलब्ध कराये जा रहे हैं। पूरी दुनिया जानती है कि भारत में यह घुसपैठ बांग्लादेश गठन के बाद से चली आ रही है और पिछले कुछ वर्षों में इसमें बहुत तेजी आयी है। चूंकि संथाल परगना की सीमा बांग्लादेश से लगती है, तो यहां घुसपैठ और बसने की सुविधा अधिक है। अविभाजित बिहार में ऐसी घुसपैठ की सुध नहीं ली गयी। फिर झारखंड का गठन हुआ, लेकिन इस मुद्दे को गंभीरता से लिया ही नहीं गया। पहली बार 2001 में जब राज्य सरकार के गृह विभाग ने यह मामला तत्कालीन सरकार के संज्ञान में लाया, तो पूरे मामले को ही दबा दिया गया। इसके बाद 2009 में गृह विभाग ने एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी, जिसमें संथाल परगना ही नहीं, गढ़वा, लोहरदगा और कोडरमा जिलों में घुसपैठियों के बसने की बात कही गयी थी। उस रिपोर्ट को भी कहीं ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

    2018 में हुई थी एनआरसी लागू करने की सिफारिश
    इस समस्या पर नियंत्रण के लिए 2018 में असम की तर्ज पर झारखंड में नेशनल रजिस्टर आॅफ सिटीजंस (एनआरसी) लागू करने की सिफारिश पर राज्य पुलिस ने बल दिया था। राज्य पुलिस मुख्यालय ने एनआरसी की जरूरतों और बांग्लादेशियों के बढ़ते प्रभाव को लेकर एक रिपोर्ट गृह विभाग को भेजी थी। इसमें जिक्र था कि बांग्लादेशी नागरिक बिहार और बंगाल के रास्ते झारखंड में शरण ले रहे हैं। झारखंड में अवैध प्रवासियों की संख्या उस समय 10-15 लाख बतायी गयी थी। इस समय यह संख्या 26 लाख के करीब बतायी जा रही है। अवैध प्रवासियों की बढ़ती आबादी से सांस्कृतिक और सुरक्षात्मक खतरे उत्पन हुए हैं। रिपोर्ट में अवैध प्रवासियों को चिह्नित करने के लिए सर्किल, जिला और राज्य स्तर पर टास्क फोर्स गठित करने की सिफारिश भी की गयी थी। टास्क फोर्स में वरिष्ठ अधिकारी, सेवानिवृत्त लोकसेवक या पुलिस अधिकारी को रखने की सिफारिश थी। लेकिन इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया, क्योंकि इसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील माना गया था।
    फिर झारखंड पुलिस की विशेष शाखा ने 2 जून, 2023 को राज्य के सभी जिलों के डीसी और एसपी को एक पत्र लिख कर बांग्लादेशी नागरिकों के अवैध रूप से प्रवेश करने की सूचना दी थी। 13 दिसंबर, 2023 को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक दस्तावेज जारी कर कहा था कि 120 से अधिक नकली वेबसाइट के जरिये फर्जी जन्म प्रमाण पत्र बनाये जा रहे हैं। इसे लेकर झारखंड को विशेष रूप से आगाह किया गया था।
    यह सही है कि घुसपैठिये नागरिकता प्रमाण पत्र हासिल कर रहे हैं और उन्हें संरक्षण भी मिल रहा है। लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि यह सिलसिला झारखंड बनने के पहले से चल रहा है। इन घुसपैठियों ने स्थानीय स्तर पर इतनी गहरी पैठ बना ली है कि अब इनकी पहचान लगभग असंभव हो गयी है। घुसपैठियों ने स्थानीय स्तर पर सामाजिक रिश्ते कायम कर लिये हैं, जमीन खरीद ली है और आधार कार्ड-वोटर आइडी तक हासिल कर लिया है। उनके बच्चे झारखंड के स्कूलों में पढ़ रहे हैं और कई लोग तो सरकारी नौकरी में भी हैं।

    सियासत नहीं, समाधान जरूरी
    झारखंड में घुसपैठ की समस्या पर सियासत उचित नहीं है। राजनीतिक दलों द्वारा एक-दूसरे पर दोषारोपण करने से इसका समाधान नहीं हो सकता। हकीकत यही है कि झारखंड की यह समस्या पांच साल की नहीं है, बल्कि बहुत पुरानी है। इसलिए इसकी जिम्मेदारी हर राजनीतिक दल को लेनी होगी। केंद्र सरकार को भी मामले की संवेदनशीलता को समझना होगा, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सीमा से घुसपैठ रोकने की पहली जिम्मेवारी उसकी ही है। इसके बाद राजनीतिक दलों के गांव स्तर के कार्यकर्ताओं को किसी बाहरी व्यक्ति के गांव में बसने पर ध्यान देना होगा, ताकि समय पर इसकी सूचना अधिकारियों को दी जा सके। इसके लिए एक सशक्त अभियान चलाने की जरूरत है, ताकि लोग जागरूक हो सकें। जब तक घुसपैठ की समस्या को सामाजिक नजरिये से नहीं देखा जायेगा, इसका समाधान नामुमकिन है। यही नहीं, झारखंड के कुछ जिलों और बंगाल बिहार के कुछ जिलों को मिला कर यूनियन टेरिटरी बनाने की मांग भी गलत है। झारखंड ऐसे ही दबा हुआ है, जरूरत इसे वृहद करने की है, न कि यूनियन टेरिटरी बनाने की।

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