विशेष
-महंगाई ने तोड़ी आम आदमी की कमर, फिर भी नहीं है मुद्दा
-आम आदमी की इस सबसे बड़ी समस्या पर कोई बात ही नहीं करता
-लोगों को आंकड़ों के जाल में उलझा कर बस बयानबाजी ही होती है
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में सबसे अहम लोक होता है, लेकिन भारतीय संदर्भ में लोक आज सबसे हाशिये पर पहुंच गया है। यह बात हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि आज आम लोगों की सबसे बड़ी समस्या के बारे में कोई भी राजनीतिक दल या प्रतिनिधि बात नहीं करता। यह सबसे बड़ी समस्या है महंगाई, जिसने आम लोगों को परेशान कर दिया है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच साल में एक आम परिवार की आय महज 37 फीसदी बढ़ी है, जबकि महंगाई के कारण उसका खर्च 70 प्रतिशत तक बढ़ गया है। लोकसभा चुनाव संपन्न हुए अभी एक महीने ही हुए हैं और यदि इसी अवधि की बात की जाये, तो महंगाई करीब 10 फीसदी बढ़ गयी है, जबकि आय में बढ़ोत्तरी के कोई आसार फिलहाल नजर नहीं आ रहे हैं। आम लोगों के सामने सुरसा की तरह मुंह बाये महंगाई खड़ी हो गयी है, जो हर दिन उन्हें निगलने के लिए तैयार है। हालत यह हो गयी है कि आज एक मध्यम आय वाला भारतीय परिवार अपनी रोजमर्रा के खर्च का न तो कोई पूर्वानुमान लगा सकता है और न ही इस पर नियंत्रण कर सकता है। देश की अर्थव्यवस्था का यह सबसे महत्वपूर्ण पुर्जा, यानी मध्य वर्ग उपभोक्ता आज केवल बाजार की महंगाई से परेशान नहीं है, बल्कि सरकारी नियंत्रण में जो चीजें हैं, उनकी बढ़ती कीमतों ने भी उसे बेहाल कर रखा है। पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस के दाम पिछले 10 साल में लगभग दोगुने हो गये हैं। इस पर सबसे दुखद है कि यह मुद्दा किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में नहीं है और न ही संसद-विधानसभाओं में इस पर चर्चा होती है। राजनीतिक दलों के लिए अब महंगाई कोई मुद्दा नहीं रह गया है। क्या है महंगाई का आलम और आम आदमी कैसे इसके बोझ तले कराह रहा है, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह की खास रिपोर्ट।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने अभी एक महीने पहले ही अपनी नयी सरकार चुनी है, नयी लोकसभा चुनी है और अगले पांच साल के लिए शासन की बागडोर इसे सौंप दी है। इस देश के आम लोगों को अब भी यह उम्मीद है कि उसकी रोजमर्रा की समस्याओं से यह सरकार, यह लोकसभा छुटकारा दिलायेगी। सभी समस्याओं से नहीं, तो कम से कम उसके जीवन से जुड़ी सबसे अहम समस्या से और वह है महंगाई। आज भारत का हर आम परिवार महंगाई से इतना त्रस्त है कि उसे आगे का रास्ता ही नहीं सूझ रहा है। उसके इस घाव पर नमक छिड़क रहे हैं राजनीतिक दल और उसके चुने हुए प्रतिनिधि, जिनके पास इस मुद्दे पर बात करने का समय नहीं है।

क्या कहते हैं महंगाई के आंकड़े
जून महीने में सब्जियों और दालों में महंगाई में तेजी बनी हुई है। दालों के दाम में उछाल आया है, तो सब्जियों की महंगाई दर मई में 27.33 फीसदी रही है, जो अप्रैल में 27.80 फीसदी रही थी। फलों की महंगाई दर 6.68 फीसदी रही है, जो अप्रैल में 5.94 फीसदी रही थी। अनाज की महंगाई दर मई में 8.69 फीसदी रही है, जो अप्रैल में 8.63 फीसदी रही थी। मसालों की महंगाई दर घटकर मई में 4.27 फीसदी पर आ गयी है, जो अप्रैल में 7.75 फीसदी रही थी।
चीनी की महंगाई दर घटकर 5.70 फीसदी ही है, जो अप्रैल में 6.73 फीसदी रही थी। आलू-प्याज और सब्जियों के दाम बढ़ने से आम आदमी हांफ रहा है।

भोजन भी 71 फीसदी महंगा हुआ
लोकसभा चुनाव के दौरान नेताओं के मुंह से भले ही महंगाई का ज्यादा शोर नहीं सुनाई दे रहा हो, लेकिन जनता इससे परेशान है। एक सर्वे के मुताबकि करीब 23 प्रतशित लोग इसे बड़ा चुनावी मुद्दा मानते भी हैंं। आंकड़े बताते हैं कि पांच साल में जहां घर में तैयार शाकाहारी खाने की थाली की औसत कीमत 71 फीसदी तक बढ़ गयी है, वहीं इस दौरान नियिमति नौकरी करने वाले लोगों की मासकि आय मात्र 37 प्रतशित बढ़ी है। हालांकि अस्थायी काम करने वालों (कैजुअल मजदूरों) की कमाई इस दौरान 67 प्रतशित बढ़ी है। लेकिन एक सच यह भी है कि इन मजदूरों की कमाई का बड़ा हिस्सा खाना पर ही खर्च होता है। झारखंड के आंकड़े बताते हैं कि एक आम मध्यम वर्गीय परिवार के चार सदस्यों के लिए दो बार का शाकाहारी भोजन बनाने के लिए जरूरी सामग्रियों की औसत लागत इस साल 79.20 रुपये हो गयी है, जबकि पिछले साल यह 64.20 रुपये और 2019 में 46.20 रुपये आंकी गयी थी। इस तरह झारखंड के एक घर में हर दिन दो शाकाहारी थाली बनाने की मासिक लागत 2019 में 1386 रुपये से बढ़ कर 2024 में 2377 रुपये हो गयी है।

ऐसे निकाली गयी दो थालियों की कीमत
यह जानने के लिए कि झारखंड में घर पर औसतन दो शाकाहारी थालियों की कीमत कितनी है, उसे बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्रियों की कीमत निकाली गयी।

थाली में सफेद चावल, कोई एक दाल, प्याज, लहसुन, हरी मिर्च, अदरक, टमाटर, आलू, आटा, हरी सब्जी, तेल, मसाला और नमक के अलावा एलपीजी सिंलिंडर या बिजली और मेहनत की कीमत का आकलन किया गया। इसके बाद खपत की जानेवाली सामग्री की कीमत निकाली गयी। फिर उस कीमत को कमाने में खर्च की गयी रकम, यानी पेट्रोल-डीजल या भाड़ा जैसे खर्च को जोड़ा गया। तब अंतिम तौर पर यह आंकड़ा तैयार किया गया। खास बात यह है कि इसमें शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन और सामाजिक खर्च शामिल नहीं हैं, जो एक मध्य वर्ग परिवार के सिर पर हमेशा मंडराता रहता है।

क्या है वास्तविक स्थिति
आज एक आम भारतीय मध्यवर्ग परिवार हर पल इसी चिंता में डूबा रहता है कि जीवन की जद्दोजहद में वह अपने भविष्य की चिंता करे या वर्तमान की। महंगाई ने यकीनन पहले से सुलग रही समस्याओं की आग को और अधिक प्रज्ज्वलित कर दिया है। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद आम भारतीय की रोजमर्रा की परेशानियां दूर होने के स्थान पर बढ़ती जा रही हैं। केवल पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस ही नहीं, सरकार के नियंत्रण की हर चीज की कीमत बिना किसी पूर्व सूचना के बढ़ती जा रही है। चाहे रेल किराया हो या विमान का भाड़ा, टोल टैक्स हो या सरकारी अस्पतालों में जांच की दर, हर जगह महंगाई की आग ने तबाही मचा रखी है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है, जब खपत कम हो रही है, लोग परेशान हैं, मांग पर कोई अंतर नहीं पड़ा है, कच्चे माल की कीमत नहीं बढ़ी है, तो फिर सरकार आखिर इस महंगाई पर नियंत्रण क्यों नहीं करती। दरअसल हमारे देश में ऐसी अर्थनीति बन चुकी है, जो एकदम ही अमीर कॉरपोरेट सेक्टर को फायदा पहुंचा रही है। इसके कारण आम आदमी की जिंदगी दुश्वार हो गयी है। पिछले पांच वर्षों से जारी महंगाई दर ने पिछले सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये हैं। अमीर आदमी को यकीनन महंगाई से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, लेकिन एक गरीब इंसान की हालत कितनी बदतर हो चली है, इसका कुछ भी अंदाजा न सरकार को है और न राजनीतिक दलों को।

हालत यह है कि भारत के वर्तमान राजनीतिक माहौल ने कमरतोड़ महंगाई के सवाल पर जन मानस के गुस्से की अभिव्यक्ति को अत्यंत असहज कर दिया है, अन्यथा अपनी माली हालत को लेकर आम आदमी के भीतर जो जबरदस्त ज्वालामुखी धधक रहा है, उसके विस्फोट से एक अलग समस्या पैदा हो सकती थी। अमीर तबके के और अधिक अमीर हो जाने की अंतहीन लालच की खातिर आम आदमी को निचोड़ा जा रहा है। महंगाई के सवाल पर आम आदमी का रोष इसलिए भी राजनीतिक जोर नहीं पकड़ रहा कि प्राय: सभी राजनीतिक दलों के नेताओं का अपना चरित्र भी कॉरपोरेट परस्त होता जा रहा है। सांसद-विधायक अपना वेतन-भत्ता कई गुना बढ़ा चुके हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच वर्ष के दौरान खाने-पीने की वस्तुओं के दाम 16.5 प्रतिशत की दर से बढ़े हैं। यह दर हर तीन महीने पर तय होती है। चीनी के दाम 73 फीसदी, मूंग दाल की कीमत 113 फीसदी, उड़द दाल के दाम 71 फीसदी, अनाज के दाम 20 फीसदी, अरहर दाल की कीमत 58 फीसदी और आलू-प्याज के दाम 32 फीसदी बढ़ गये हैं। इसके अलावा खुदरा के दामों और थोक दामों में भारी अंतर बना ही रहता है। सरकारी आंकड़े महज थोक सूचकांक बताते हैं, जबकि आम आदमी तक माल पहुंचने में बहुत से बिचौलियों और दलालों की जेबें गरम हो चुकी होती हैं। वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था अब सटोरियों और बिचौलियों के हाथों में ही खेल रही है। अपना खून-पसीना एक करके उत्पादन करने वाले किसानों की कमर कर्ज से झुक चुकी है। खुदरा बाजार में खाद्य पदार्थों के दाम चाहे कुछ भी क्यों न बढ़ जायें, किसान वर्ग को इसका फायदा कदाचित नहीं पहुंचता। इतना ही नहीं, धीरे-धीरे उनके हाथ से उनकी जमीन भी छिनती जा रही है।

ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि मांग का दबाव न होने और भरपूर फसल होने के बावजूद कीमतों की उड़ान क्यों जारी है। इसका जवाब न किसी सरकार के पास है और न किसी राजनीतिक दल के पास। इस बेलगाम महंगाई का असली कारण यही है कि हमारे राजनीतिक दलों को को कुछ अधिक ही भरोसा हो गया है कि आम आदमी के गुस्से से निकट भविष्य में उनकी हैसियत को कोई खतरा नहीं।

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