रांची: झारखंड का पाकुड़, साहेबगंज, गोड्डा, जामताड़ा और कोल्हान के बार्डर इलाके बांग्लादेशी घुसपैठियों के गढ़ बन रहे हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार 1971 के बाद से अब तक इन जिलों में दस लाख के आसपास बांग्लादेशी पनाह पा चुके हैं और यह सिलसिला अब भी जारी है। दरअसल वोट की राजनीति और दलगत स्वार्थ के कारण कुछ दल विशेष के नेताओं द्वारा न सिर्फ इस गंभीर समस्या की अनदेखी की जाती रही है, बल्कि उन्हें मदद भी दी जाती है। वोट बैंक की संभावना दिखने के कारण उन्हें सक्षम भारतीय नागरिक तथा मतदाता बनाने में हरसंभव मदद कुछ राजनीतिक दलों की ओर से दी जाती रही है। दुष्परिणाम यह हुआ है कि घुसपैठ की समस्या और विकराल रूप ले चुकी है। हालात इतने बदतर हैं कि आज संथाल से लेकर कोल्हान तक बांग्लादेशियों का गढ़ बनता जा रहा है। इन लोगों ने आदिवासियों की संस्कृति को ही बिगाड़ दिया है और अब उनके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है।
1971-72 से शुरू हुआ घुसपैठ का सिलसिला
गौरतलब है कि वर्ष 1971-72 से ही तत्कालीन अविभाजित साहेबगंज के (वर्तमान पाकुड़ जिला सहित) छह विधानसभा क्षेत्रों में बांग्लादेशी घुसपैठियों के आकर बसने की शिकायतें मिलने लगी थीं। यह सिलसिला 1980-81 में बहुत तेज हो गया। उसी समय उनके खिलाफ वहां आवाज उठने लगी थी, लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवियों और धर्मनिरपेक्ष दलों ने इसे भाजपा या संघ परिवार का अनर्गल प्रलाप बता कर अनदेखा कर दिया। हालांकि ऐसी शिकायतों के मद्देनजर चुनाव आयोग के निर्देश पर वर्ष 1993 में मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम करवाया गया था। पुनरीक्षित मतदाता सूची के आधार पर साहेबगंज के तत्कालीन डीसी डॉ सुभाष शर्मा ने जिले के छह विधानसभा क्षेत्रों के कई प्रखंडों में संदिग्ध बांग्लादेशियों के आकर बसने की पुष्टि की थी। डीसी शर्मा ने विस्तृत छानबीन कर आवश्यक कार्रवाई का आदेश भी दिया था। डीसी के इस आदेश से न सिर्फ साहेबगंज, बल्कि बिहार विधानसभा तक में राजनीतिक भूचाल सा आ गया था। उस वक्त संदिग्ध नागरिकता वाले अधिकांश लोगों के खिलाफ बांग्लादेशी होने के सबूत भी मिले थे, लेकिन लालू प्रसाद यादव की सरकार के राजनीतिक दबाव में पूरे मामले को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
आज अधिकार छीन रहे झारखंडियों का
पश्चिम बंगाल की सीमा से लगे पाकुड़, साहेबगंज के साथ-साथ गोड्डा और जामताड़ा जिले में घुसपैठियों के आकर बसने का क्रम आज भी जारी है, लेकिन वोट बैंक के सौदागरों की स्वार्थजनित चुप्पी तथा इस पर रोक लगाने एवं कार्रवाई करने की पहल करनेवाले सरकारी अमलों को आज ऐसा करना आग से खेलने जैसा लगता है। जानकार बताते हैं कि 90 के दशक से ही इन इलाकों में बांग्लादेशी घुसपैठ के दुष्परिणाम नजर आने लगे थे। शुरुआती दौर में तो यहां की आम जनता को ये लोग महज एक मेहनती मजदूर और मजबूर लग रहे थे। दोनों की भौगोलिक संरचना, भाषा, वेशभूषा, रहन-सहन और उपासना की पद्धति लगभग एक जैसी थी। लेकिन बदलते वक्त के साथ ये स्थानीय लोगों के हक और अधिकार पर कब्जा जमाने लगे। लोगों को उनकी असलियत समझ में आयी, पर तब तक बड़ी देर हो चुकी थी। जब किसी दल ने घुसपैठियों के खिलाफ आवाज बुलंद की, तो उन्हें ही सांप्रदायिक करार दे दिया गया। नतीजा स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गयी।
आज कहां हैं, चिह्नित घुसपैठिये
आज की तिथि में ये चिह्नित घुसपैठिये कहां हैं, इसका जवाब किसी के पास नहीं है, जबकि मामला आज भी जांच के दायरे में है। कहनेवाले कहते हैं कि ये आज पूरे झारखंड में फैल गये हैं और खतरनाक रूप से अपनी आबादी बढ़ाने की साजिश में जुटे हैं। बांग्लादेशी घुसपैठ और घुसपैठियों के यहां बसे होने की बात को खारिज करने वाले राजनीतिक दलों और संगठनों को उस वक्त झटका लगा, जब वर्ष 1994 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकताओं ने 18 बांग्लादेशी घुसपैठियों को पांच लाख रुपये के तस्करी के सामानों के साथ पकड़ा। उन्हें पाकुड़ नगर पुलिस को सुपुर्द किया गया था, पर पाकुड़ के तत्कालीन डीएसपी ओलिवर मिंज ने राजनीतिक दबाव में उन्हें गरीब लोग बताकर आधी रात के बाद छोड़ दिया था। इसके खिलाफ परिषद् के कार्यकताओं ने पटना उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी। लंबी अदालती कार्यवाही के बाद डीएसपी ओलिवर मिंज के साथ ही तत्कालीन पुलिस निरीक्षक सीएम लागुरी तथा नगर थाना प्रभारी डीएन विश्वास को आखिरकार जेल जाना पड़ा था।
संथाल परगना में पनाह पा चुके बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुख्य निशाना यहां के बड़े जोतदार और कामकाजी लड़किया हैं। जिनके पास ज्यादा जमीन है, उनसे ये घुसपैठिये पहले मेलजोल बढ़ाते हैं और फिर उनकी लड़कियों से शादी कर उनकी संपत्ति पर आधिपत्य जमा लेते हैं। वहीं उनकी नजर उन लड़कियों पर भी रहती है, जो सरकारी नौकरियों में हैं। वे उनके आसपास डोरा डालने लगते हैं। पहले मीठी-चुपड़ी बातों में उन्हें भरमाते हैं और फिर शादी का प्रस्ताव रख देते हैं। चूंकि यहां की लड़कियां सीधी-साधी हैं, इसलिए वे उनके षडयंत्र को समझ नहीं पातीं और फिर उनके जाल में फंस जाती हैं।
अधिकारियों और राजनीतिक दलों की मिलीभगत
यहां बांग्लादेशी घुसपैठियों को पनाह देने में एक जाति विशेष के अधिकारियों और वोट की राजनीति के सौदागरों की बड़ी भूमिका है। अधिकारियों की मदद से घुसपैठिये आसानी से पहचान पत्र और आवासीय प्रमाण पत्र बना लेते हैं और राजनीतिक दलों की मदद से उनका नाम मतदाता सूची में शामिल हो जाता है। आज कई बूथों ये घुसपैठिये बहुमत में हैं। चुनाव के समय कुछ राजनीतिक दलों द्वारा इन्हें गाय-बैल दिये जाते हैं और शराब की नदियां बहा दी जाती हैं। यह काम चुनाव वे पंद्रह दिन पहले से शुरू कर दिया जाता और चुनाव के दिन तक जारी रहता है। चुनाव में गांव के गांव गाय-बैल और शराब की मांग करते हैं और उन्हें मिलता भी है। यही कारण है कि राजनीतिक दलों की ओर से उन्हें प्रश्रय दिया जाता रहा है।
संयुक्त राष्ट्र ने बताया भारत के लिए खतरा
संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1993-94 में ही अपनी रिपोर्ट में बांग्लादेशी घुसपैठ को भारत के लिए खतरा बताया था। कहा था कि भारत पर इसका सीधा असर पड़ेगा। यह सच साबित हुआ। पलायन कर आये यही घुसपैठिये तुष्टिकरण में लिप्त भारतीय राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए वोट बैंक साबित हुए। बांग्लादेशी घुसपैठ वहां की सरकार की अंतरराष्ट्रीय राजनीति और कूटनीतिक साजिश के तहत चली गयी चाल है। इस नीति का मूल प्रारूप तैयार किया था ढाका विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ सादिक खान तथा प्रोफेसर डॉ शाहिदुज्जमां ने। यह नीति हिटलर की विस्तारवादी नीति के आधार पर तैयार की गयी थी, जिसका एक मात्र उद्देश्य घुसपैठ के जरिये सीमावर्ती भारतीय भूभाग पर कालांतर में जनसंख्या के बल पर राजनैतिक संरक्षण में दावेदारी ठोंकना है।