डॉ सुशील कुमार तिवारी
एक नाम धरा पर ऐसा है, जिससे अनगिनत भाव जुड़े हैं। राम, जो सर्वव्यापी है, जो अविनाशी है, जो त्याग की पराकाष्ठा है, जो मानव भेष में महामानव और भगवान है, जो सत्य है, जो धर्म है, जो विजय है, जो अनंत है, जो अविनाशी है, जो भ्रातृत्व है, जो मित्रता है, जो सर्वप्रियता है, जो सर्वसमावेशी है, जो आदर्श है, मर्यादा पुरुषोत्तम है और वो सब भी है, जिससे जगत चलायमान है, पर अब तक शब्द नहीं बने हैं। भगवान होकर भी राम धरती पर आये, ये धरा प्रफुल्लित और आनन्दित हो गयी। जब सभी शक्ति और संसाधनों के लिए ये सोचकर प्रतिदिन संघर्ष करते हैं कि जब सब कुछ मिल जायेगा तो आराम करेंगे। ऐसे में सर्वशक्तिमान भगवान ने धरती पर काम चुना और आराम का त्याग किया। वो भी आसान काम या आरामतलबी जीवन नहीं, ऐसा जीवन जिसमें पग-पग पर चुनौती हो। ये भी ध्यान देने योग्य बात है कि सर्वशक्तिमान जब चाहे चमत्कार कर सकता था पर एक सामान्य व्यक्ति के रूप में राम के अवतार ने हर कठिनाई को व्यक्तिगत कौशल से मात दी, अलौकिक चमत्कार से नहीं। भगवान के धरती पर स्वयं आकर सामान्य रहकर शिक्षा ग्रहण करते हुए सभी गुण और कौशलों को तन्मयता से सीखने फिर उन कौशलों के सदुपयोग से विशालतम समस्याओं का समाधान कर देना, समस्त जगत के साधारण मनुष्यों के लिए अद्वितीय और अद्भुत सबक है। सोच कर देखिए ये भाव और निराला है कि जब भगवान कर सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं। इसलिए भगवान का स्वयं आना सार्थक और श्रेयष्कर है। सारी परिस्थितियों के विपरीत होने पर भी जब वो धर्म और सत्य का ऐसा राज्य स्थापित करते हैं, जो रामराज्य के नाम से आज भी शिखर लक्ष्य है जबकि हममें से कई सत्य और धर्म का साथ भौतिक लाभ के लिए बार बार छोड़ते हैं। क्या हम स्वार्थ के ऊपर सत्य, ईमानदारी, त्याग, दान आदि का मर्म कभी नहीं समझ पायेंगे? बिल्कुल समझ पायेंगे और रामराज्य का आनंद ले पायेंगे जहां कोई दुखी नहीं, ऐसी प्रतियोगिता नहीं, जिसमें दूसरे की शिकायत करके या योग्यता को मार कर आगे बढ़ने की होड़ हो, जहां चोरी नहीं और जहां कर्तव्य को कानून की जरूरत नहीं, वो ऐसे ही अधिकारों से ऊपर हो जाता है। तो रामराज्य संभव है, बशर्ते सब राममय हो जाये।
राममय होने के लिए अब सबसे उपयुक्त समय आ गया है। राजनीति करनेवाले कुछ लोग जिन्होंने अपने को धुरंधर समझा ऐसी आग लगायी कि कल्याणकारी राम के मंदिर के लिए संघर्ष करना पड़ा। राम इस बार भी शांतचित्त होकर मुस्कुराते रहे। चमत्कार उसी दिन कर सकते थे, जब एक आततायी ने एक धर्म को व्यक्तिगत बना कर अधर्म कर दिया। किंतु जब राम का अपना जीवन कर्तव्यनिष्ठा की पराकाष्ठा थी, तो आज जन जन में कर्तव्य का भाव आ जाये इसके लिए वो 500 वर्षों तक प्रतीक्षा क्यों न करते? उन्होंने राजनीति प्रेरित उठा पटक, ढंकना-छुपाना, आरोप-प्रत्यारोप, यहां तक कि गोली चलने से लेकर आग लगाने तक सब खेल अपने नाम पर देख लिया। काम बहुत आसान था सबको राममय होना था बस। दुख अपने ही दूर होने थे फिर भी कई तथाकथित धुरंधरों ने तात्कालिक लाभ के लिए रामविरोधी होने को उचित ठहराया। कई कहानियां गढ़ी गयीं और तो और शब्दों के अर्थ ऐसे परिभाषित किये गये कि रामविरोधी होना पता नहीं कैसे उचित बताया जाने लगा। राममय होने से इतने वर्षों तक रोक दिया गया, क्योंकि जब हर प्राणिमात्र में बसनेवाले राम के लिए हमारा ध्यान तो संघर्ष पर केंद्रित था। यह विजय दिवस राममय होने का विजय दिवस है, अब सब उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग को आत्मसात करने पर ध्यान दे सकते हैं और अब राममय जगत का सपना सच होगा। राम को पा के जन जन का दुख दूर होगा, चाहे आप अपनी जीवन की किसी भूमिका में होंगे। उन तथाकथित राजनीतिक धुरंधरों को ही सबसे पहले राम से शिक्षा लेनी चाहिए कि राज करने का वास्तविक अर्थ है -त्याग। कहानी गढ़ने से कुछ समय तो जनता मूर्ख बन सकती है पर देश के लिए या संस्कृति के लिए या भाई के लिए, पिता के वचन के लिए या माता के लिए; चाहे वो सौतेली ही क्यों न हो किंतु माता जिनको बोल दिए उनके लिए भी, राज छोड़ने तक को तैयार अटल चरित्र ही राजनीतिक शिखर का अधिकारी है। अब जब राजा बन गये तो भी प्रजा में बिना जातीय भेदभाव के ऐसी बात भी सुन ली, जो उनके सामने नहीं कही गयी और जिसमें उन्हें सबसे ज्यादा कष्ट हुआ, किंतु अपने त्याग से राजा की मर्यादा गढ़ी। प्रजा के लिए और अपने राम की मर्यादा के लिए माता सीता ने राज ठुकराया, आज विश्वसनीय नहीं पर ऐसी छवि भी राममय पत्नी की वास्तविक और सच्ची छवि है।
कितने विशाल व्यक्तित्व हैं मेरे, आपके और हम सबके श्रीराम का। जहां भी रहे समस्त वातावरण राममय हो गया। जिसने भी ज्ञान चक्षु खोला, वो राममय हो गया और जिसने अपने स्वार्थ देखे जैसे कैकेयी ने उसे घोर निरशा या पश्चाताप का सामना करना पड़ा। उनके ज्ञान चक्षु मंथरा रूपी भौतिक मोह माया ने बंद कर दिए थे। किंतु भरत तो राममय थे। ऐसे में अज्ञानी को तो पीछे हटना ही पड़ेगा, आज भी अज्ञानियों की संख्या बहुत कम रहे और शेष राममय होंगे तो भी देर सवेर रामराज्य संभव है। हां सब राममय हो जाये तो आज ही रामराज्य हो जाये। किंतु चुनौतियां बहुत हैं। केवल अज्ञानी ही नहीं हैं यहां जो पश्चाताप करेंगे एक दिन जैसे कैकेयी और मंथरा ने किया, रावण जैसे दंभी, अहंकारी और शक्ति, पद या किसी पोजीशन के मिल जाने पर मतवाले हाथी की तरह मनमाने काम करते हैं। रावण को अहंकार की वजह आज के अहंकारियों से कहीं बड़ी थी। सोने की लंका का वैभव, संसाधन, शक्ति, हथियार, अद्वितीय विश्व विजयी योद्धा और विशाल सेना पर तो किसी को अभिमान होगा। वो भी सामने दो वन वन भटकने वाले साधारण से दिखनेवाले भगवा वस्त्रधारी- राम और लक्ष्मण के सामने तो ये वास्तव में बहुत विशालकाय अंतर है। मगर एक अंतर और था वो ये कि रावण के साथ अधर्म था क्योंकि उसने माता सीता का अपहरण किया था, जबकि राम अपनी भार्या को छुड़ा कर लाने के कर्तव्य के साथ धर्म पर थे। बस यही अंतर शेष सभी वैभव, सामर्थ्य और शक्ति के अतुलनीय अंतरों पर भारी पड़ गया। यही नहीं राम रूपी धर्म ने अपने हनुमान और दूत अंगद के माध्यम से अधर्मी रावण को अवसर भी दिये कि ज्ञान चक्षु खोल और राममय हो जा। किंतु अहंकारी अधर्मी रावण को कभी लगा ही नहीं कि वो हार सकता है और वो समस्त जगत को रावणमय बनाने का स्वप्न देखता रहा। फिर तो उसका सर्वनाश निश्चित था और वही हुआ। सोने की लंका नहीं जली, हनुमान ने सबसे पहले भौतिक वैभवों को सब कुछ मानने वालों का अहंकार जलाया। फिर विश्व विजयी योद्धाओं के रूप में अधर्मियों का साथ देनेवालों या रावण रूपी अहंकार का सर्वनाश किया। ये बता दिया कि अंतिम सत्य तो राममय होना है।
रावण ने वनवासी राम के आदर्श व्यक्तित्व को भी बहुत कम करके आंका। उसे ये सही ज्ञान था कि राम अयोध्या की सेना नहीं लायेंगे, क्योंकि वो वचनपरायण थे और वचन दे चुके थे कि 14 वर्ष तक अयोध्या का तिनका भी प्रयोग नहीं करेंगे। इसमें रघुकुल धर्म की अभिव्यक्ति है-
रघुकुल रीत सदा चली आयी।
प्राण जाये पर वचन न जाई।।
किंतु रावण को ये ज्ञान नहीं था-
मोमे तोमे सरब मे जहं देखु तहं राम
राम बिना छिन ऐक ही, सरै न ऐको काम।
मुझ में तुम में सभी लोगों में जहां देखता हूं, वहीं राम है। राम के बिना एक क्षण भी प्रतीत नहीं होता है।
राम के बिना कोई कार्य सफल नहीं होता है।
सफलता तो राम के आशीर्वाद से ही मिल जाती है और ये तो राम का काम था। उसे ये पता ही नही था कि राम जहां भी जायेंगे, जिससे भी मिलेंगे सबको राममय करते जायेंगे। राममय हनुमान हो या सुग्रीव उनके लिए सेना तो क्या जान भी न्योछावर कर देंगे। जहां श्री राम के चरण पड़ेंगे, वहां कल्याण होगा ही। राममय होने से सुग्रीव के चिरकाल से चले आ रहे दुख का निवारण हुआ। इससे पहले भी देखें तो स्पष्ट है कि राम के साथ सभी राममय हो गये थे। जब राममय सुमित्रा लक्ष्मण को शक्तिबाण लगने पर कहती हैं कि लक्ष्मण के अलावा मेरा दूसरा पुत्र शत्रुघ्न अभी है और लक्ष्मण के स्थान पर राम के लिए वो वन चला जायेगा। वैसी वीरांगना माता की शक्ति को आज भी भारत के सभी शहीद वीर सैनिकों की राममय मां के हृदय में देखा जा सकता है। उस मां की कल्पना करके ही आप भाव विह्वल हों जायेंगे जो पुत्र के प्रति अतुलनीय स्नेह के बाद भी पुत्र मोह को त्याग करके राममय में लीन कर्तव्यपरायणता से असीम सुख की प्राप्ति की जा सकती है। त्याग की पराकाष्ठा आप उर्मिला के रूप में देख सकते हैं, जो लक्ष्मण कमजोर न हों इसलिए 14 वर्षों तक रोती भी नहीं और खुले दरवाजे के साथ अखंड ज्योति को बुझने नहीं देती, क्योंकि राममय होने से ऐसे कठिन कठिन तप पूरे हो जाते हैं। हां, राममय जगत कल्पना नहीं वास्तविकता है। हर व्यक्ति, समुदाय, समाज और देश के लिए एक आदर्श है। कोई जरूरी नहीं कि सब आदर्श स्थिति में पहुंच ही जायें, पर राममय होने का प्रयास करना हम सभी का कर्तव्य है क्योंकि यह स्वाभाविक गुण भी है। हम इसी लक्ष्य शिखर तक जाने के लिए जीवन यात्रा कर रहे हैं। यह प्राकृतिक परमसुख है, जो आश्चर्यजनक रूप से अलौकिक और सभी भौतिक सुखों से सर्वोत्तम आनंद की प्राप्ति है।
उहवन तो सब एक है, परदा रहिया वेश
भरम करम सब दूर कर, सब ही माहि अलेख।
परमात्मा के यहां सब एक समान है, लेकिन यह शरीर और वेश परदा की तरह काम करता है। हमें अपने समस्त भ्रम को दूर करना चाहिये तब हमें ईश्वर की उपस्थिति की अनुभूति हो सकती है।
(लेखक: जमशेदपुर महिला महाविद्यालय के शिक्षा संकाय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)