फर्श से अर्श तक :2: कदम-दर-कदम पार्टी की सीढ़ियों पर चढ़े
झारखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्षों की कतार काफी लंबी है। बाबूलाल मरांडी से लेकर अभयकांत प्रसाद, पीएन सिंह से लेकर रवींद्र राय, रघुवर दास से लेकर लक्ष्मण गिलुवा तक ने झारखंड में पार्टी को मजबूत करने की दिशा में काफी कदम उठाये। सफलता भी मिली। इन अध्यक्षों ने पार्टी को झारखंड में सत्ता की कुर्सी तक पहुंचायी, तो केंद्र में भी झोली भर-भर कर सांसद भेजे। अब भाजपा के सामान्य कार्यकर्ता रहे दीपक प्रकाश के कंधों पर पार्टी को एक मुकाम तक पहुंचाने की जिम्मेदारी है। इन्होंने अपने अब तक के लगभग एक साल के कार्यकाल में पार्टी कार्यकर्ताओं में एक बार फिर से जोश जगाया है। उनमें पार्टी के प्रति समर्पण का भाव भरा है। कार्यकर्ताओं का भी भरपूर सहयोग उन्हें मिल रहा है। इन सबके बीच दीपक प्रकाश में जो खास है, वह यह कि अभी तक वह पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए सर या डॉक्टर नहीं बन पाये हैं। कार्यकर्ता उन्हें भैैया ही बोलते हैं और वह भैैया ही बने रहना चाहते हैं। दीपक प्रकाश के राजनीतिक सफर और संघर्षों पर प्रकाश डाल रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
- 1973 में कदम रखा था राजनीति में, उस समय गुजरात में थी युवा नरेंद्र मोदी की धूम
- पसंद है अमित शाह की आक्रामकता जेपी नड्डा से मिल रही सीख
दीपक प्रकाश की रोशनी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष तक ही सीमित नहीं है। प्रदेश अध्यक्ष तो एक पद है, एक सम्मान है, जो उन्हें केंद्रीय नेतृत्व ने पार्टी के लिए निर्लोभ राजनीतिक यात्रा के लिए प्रदान किया है। यह यात्रा सुगम-सरल नहीं रही है। इस यात्रा तक पहुंचने के लिए उन्हें टेढ़े-मेढ़े पथरीली-कंटक रास्तों से गुÞजरना पड़ा है। एक जमीनी कार्यकर्ता से शुरू हुआ उनका सफर, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष से लेकर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष और अब झारखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद के रूप में अपनी छाप छोड़ रहा है। कार्यकर्ता के रूप में उनके सेवा कार्यों को देखते हुए ही पार्टी ने उन्हें इस पद पर बैठाया है। जिस समय उन्हें भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी गयी, उस समय पार्टी के कार्यकर्ता घटाटोप निराशा के दौर से गुजर रहे थे। अचानक भाजपा के हाथ से सत्ता चले जाने के बाद कार्यकर्ताओं पर मानो पहाड़ सा प्रहार हो गया था और वे हतोत्साहित होकर अपने-अपने घरों में बैठ गये थे। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में दीपक प्रकाश के सामने इन कार्यकर्ताओं को नैराश्य भाव से निकाल कर पार्टी की गतिविधियों से सक्रिय रूप से जोड़ना एक कठिन काम था। कारण जो कार्यकर्ता सत्ता की चकाचौंध देख चुके थे, सत्ता दल के कार्यकर्ता होने के नाते उन्हें जो प्रशासनिक लाभ मिला था, अब वे प्रशासन के समक्ष एक अनजान सा चेहरा हो गये थे। यह बहुत बड़ी चुनौती थी और इस चुनौती से पार पाना बगैर काबिलियत के संभव नहीं था। दीपक प्रकाश ने राजनीतिक प्लेटफार्म मिलते ही परफार्म करना शुरू किया और इस क्रम में उनकी काबिलियत सामने आयी। और वह काबिलियत दिनोंदिन अपनी छाप छोड़ रही है। जन आशीर्वाद यात्रा के दरम्यान प्रदेश भाजपा ने अपनी जो जनशक्ति दिखायी है, पार्टी कार्यकर्ताओं ने जिस तरह से जन आशीर्वाद यात्रा को सफल बनाने में अपनी ताकत झोंकी है, वह दीपक प्रकाश के कुशल नेतृत्व के कारण ही संभव हो पाया है। इस यात्रा में न सिर्फ प्रदेश नेतृत्व के अधीन आनेवाले कार्यकर्ता या नेता ही जी जान से लगे, बल्कि छात्र संगठन से लेकर, महिला संगठन, किसान संगठन से लेकर यूथ संगठन सभी के सभी कंधे से कंधा मिला कर सड़क पर उतर गये हैं और केंद्रीय नेतृत्व को यह संंदेश दे रहे हैं कि दीपक प्रकाश के नेतृत्व में हम कोई भी जंग लड़ने को तैयार हैं। दरअसल, शिक्षा राज्यमंत्री अन्नपूर्णा देवी की जन आशीर्वाद यात्रा में जो रिस्पांस मिल मिला, वह प्रतिफल है जमीन से जुड़े नेता के नेतृत्व क्षमता का। अकसर देखा जाता है, जब नेता बड़ा होता है तो वह खुद को लार्जर देन लाइफ बनाने की कतार में लग जाता है। वह कार्यकर्ताओं से एक दूरी बना कर चलने लगता है। भीड़ से बचने की कोशिश करता है। वह ओहदे और प्रभाव के हिसाब से कार्यकर्ताओं-नेताओं को तरजीह देता है, लेकिन दीपक प्रकाश के राजनीतिक प्रकाश से पार्टी की ख्याति उसी तरह लोगों में पैठ बना रही है, मजबूत हो रही है, जिस तरह सूर्य की रौशनी मिलने से जमीन की होती है। बंजर जमीन भी सूर्य की रोशनी से उपजाऊ बन जाती है।
बात 1973 की है, जब युवा दीपक प्रकाश को राजनीति अपनी ओर आकर्षित करने लगी। उनमें राजनीतिक सेवा भाव पनपने लगा। छात्र जीवन में उनकी राजनीति में दिलचस्पी और लंबे समय तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से उनका जुड़ाव उन्हें राजनीति के गुर को समझने की दिशा में मदद कर रहा था। मन के किसी कोने में इच्छा हो रही थी, गुजरात की राजनीतिक खिड़की खोलने की। गुजरात की राजनीतिक शैली जानने-समझने की। गुजरात में 1973 में नरेंद्र मोदी नाम का एक युवा प्रचारक एबीवीपी से जुड़ कर कई आंदोलन में शामिल हो रहा था। आंदोलनों को गति दे रहा था। उस युवा की चर्चा भाजपा के हर विंग में हो रही थी। नरेंद्र मोदी नाम का वह युवा उस दौरान बढ़ती महंगाई और कई सामाजिक मुद्दों के साथ आम इंसान के लिए लड़ाई लड़ रहा था। उसी दौरान नरेंद्र मोदी नवनिर्माण आंदोलन में शामिल हुए और अपने कर्तव्य का निर्वहन सफलतापूर्वक कर रहे थे। इस आंदोलन को तब बल मिला, जब जयप्रकाश नारायण ने इसका समर्थन किया। देश के अन्य राज्यों के विद्यार्थी परिषद के युवाओं-छात्रों में गुजरात के नरेंद्र मोदी एक छाप छोड़ रहे थे और उनकी इस छाप से दीपक प्रकाश खासा प्रभावित हुए थे।
चलिए गुजरात की खिड़की अभी बंद करते हैं, रांची आते हैं। रांची उस वक़्त बिहार का हिस्सा था। हम बात कर रहे हैं 1990-2000 के दौर की। एकीकृत बिहार, जहां झारखंड अलग राज्य की आवाज तेजी से उठ रही थी। एक नये राज्य के उदय की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। एक नयी राजनीतिक पीढ़ी का भी उदय हो रहा था। एक तरफ जहां लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद का बोलबाला था, वहीं 90-95 में भाजपा अपनी जमीन तलाश रही थी। मीडिया का पूरा फोकस प्वॉइंट लालूप्रसाद यादव की पार्टी पर था। बाकी बचा स्थान कांग्रेस पा रही थी। राजद से जुड़ा हर छोटा-बड़ा नेता मीडिया की सुर्खियों में था। उनके तामझाम और लटके-झटके देखते ही बनते थे। वहीं अन्य पार्टी के नेता अपनी छोटी-छोटी प्रेस विज्ञप्ति छपवाने के लिए अखबार के आॅफिस के चक्कर लगाया करते थे। लेकिन यही चक्कर लगाना उन्हें मीडिया से भी करीब लाता गया। उनकी भी गतिविधि अखबारों के पन्नों पर दिखायी पड़ने लगी। उस दौर में यहां की मीडिया को भी एक नयी पहचान मिलने लगी। झारखंड की राजनीतिक सक्रियता को देखते हुए कई अन्य संस्थानों ने भी इस दरम्यान यहां से अखबार निकालने की योजना बना ली। और देखते ही देखते कई मीडिया संस्थानों का उदय भी हुआ। कुछ पुराने अखबार नये कलेवर में सामने आये। जो अखबार कभी किसी पार्टी विशेष के समर्थक के रूप में जाने जाते थे, उन्होंने पत्रकारिता के मर्म को समझा और उन अखबारों में सभी दलों को समान रूप से जगह मिलने लगी। अखबारों का आम लोगों से दरस-परस बढ़ा। उस दरम्यान अलग राज्य की आवाज भी मीडिया की सुर्खियां बनने लगीं। झारखंड के लिए हर तरफ अलग राज्य की आवाज उठने लगी। झारखंड का युवा वर्ग अंगड़ाई लेने लगा। युवाओं, राजनीतिक दलों का नया ठिकाना अब पार्टी कार्यालयों से निकल कर सड़कों पर बन गया। इधर जुलूस, उधर जुलूस, इधर घेराव, उधर घेराव। वैसे तो अलग राज्य की मांग 70 साल पहले ही जयपाल सिंह मुंडा ने बुलंद कर दी थी। साल 1930 में आदिवासी महासभा ने जयपाल सिंह मुंडा की अगुवाई में अलग राज्य का सपना देखा गया था। उसके बाद इसको लेकर समय-समय पर आंदोलन किया जाता रहा। अलग राज्य के लिए दिशोम गुरु शिबू सोरेन की तड़प कौन भूल सकता है। उनका अलग राज्य के लिए संघर्ष झारखंड के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से अंकित हो गया है। अलग झारखंड राज्य के आंदोलन के दौरान संताल परगना, छोटानागपुर, कोयलांचल और कोल्हान में शिबू सोरेन की एक हुंकार से लोग एकत्रित हो जाया करते थे। अलग राज्य झारखंड के लोगों के लिए एक नयी पहचान लेकर आनेवाला था। लेकिन इसको गति मिली 1990 के बाद, जब शिबू सोरेन ने पूरी ताकत झोंकी। उसके बाद भाजपा भी अलग वनांचल राज्य के लिए सक्रिय हुई और देखते ही देखते भाजपाई भी सड़कों पर उतर पड़े। उस समय इंदर सिंह नामधारी, समरेश सिंह, दीनानाथ मिश्र, प्रवीण सिंह और दीपक प्रकाश का नाम अचानक सामने आया। दीपक प्रकाश और मित्रों की एक टीम थी, जो एकमत किसी कार्यक्रम को सफल बनाने में जुटी रहती थी। जब आंदोलन पूरे उफान पर था और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी, तो अचानक भाजपा नेताओं का वजन बढ़ गया और उनकी आवाज को जगह मिलने लगी। इस आवाज ने असर दिखाया और अलग राज्य को अंजाम दिया भाजपा के स्तंभपुंज और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने। फिर आनेवाला था 15 नवंबर 2000 का दिन, जब भारत के नक़्शे पर एक नये राज्य का नाम अंकित होनेवाला था। झारखंड का उदय होनेवाला था। और सचमुच में 15 नवंबर ने इतिहास रच दिया। बाबूलाल मरांडी को झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री का ताज पहनाया गया। राज्य की राजनीति को नयी दिशा मिल गयी थी। हर जमीनी कार्यकर्ता को अब मकसद मिल गया था। उन्हें भी लगने लगा कि वह भी राजनीति की मुख्यधारा में आ सकते हैं। बाबूलाल मरांडी के मुख्यमंत्री बनने के बाद एक सामान्य से भाजपा के कार्यकर्ता दीपक प्रकाश को नयी ऊर्जा मिल गयी थी। उनके काम की बदौलत उनके चेहरे को पहचान मिलने लगी और दिल्ली के नेताओं के नजदीक दीपक प्रकाश आते गये। जब भी कोई नेता दिल्ली से झारखंड दौरे पर आता था, दीपक प्रकाश को विशेष जिम्मेदारी मिलती थी। 2000 से लेकर 2013 तक का भाजपा का सफर सबको पता है। इस बीच पार्टी को इतनी सीट नहीं मिली कि वह अकेले दम पर स्थायी सरकार बना सके। फिर आया 2014 का विधानसभा चुनाव, जिसमें भाजपा ने 37 सीटों पर अपना झंडा गाड़ दिया था। वहीं एनडीए गठबंधन 42 सीटों पर जीत दर्ज कर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता के दरवाजे पर खड़ा था और पिछले 14 साल में नौ मुख्यमंत्री देख चुके झारखंड में रघुवर दास की सरकार बननेवाली थी। ये भाजपा की झारखंड में अब तक की सबसे बड़ी जीत थी और राज्य को पहला गैर आदिवासी मुख्यमंत्री मिला। ये झारखंड में नये एक्सपेरिमेंट की शुरूआत थी। लेकिन 2019 आते-आते भाजपा एक ऐसे मोड़ पर खड़ी थी, जहां विधानसभा चुनाव में उसे मात्र 25 सीटों पर संतोष करना पड़ा और पार्टी सत्ता से विपक्ष में बैठ गयी। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष खुद चुनाव हार गये और मुख्यमंत्री रघुवर दास भी अपनी सीट गंवा बैठे।
इस हार के बाद पार्टी कार्यकताओं में नैराश्य भाव पनप गया। कार्यकर्ता अपने घरों में बैठ गये। पार्टी के उन कार्यकर्ताओं को मुख्यधारा में लाना एक कठिन चुनौती थी। पार्टी आला कमान ने बहुत सोच-समझ कर दीपक प्रकाश के सिर पर यह जिम्मेदारी सौंपी। जब दीपक प्रकाश प्रदेश अध्यक्ष बने, तो उनके लिए रास्तों में कांटे ही कांटे थे। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने एक-एक कार्यकर्ता को घर से निकाल कर मुख्यधारा में जोड़ दिया। उनकी काबिलियत का बड़ा उदाहरण उस समय मिला, जब आलाकमान ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के साथ-साथ राज्यसभा का टिकट दिया। इस चुनाव में दीपक प्रकाश ने निर्दलीय विधायक सरयू राय और अमित यादव का वोट भी ले लिया, जो भाजपा से खफा होकर अलग हो गये थे और निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा था। इन दोनों विधायकों ने हेमंत सोरेन के नेतृत्व में बनी सरकार को समर्थन दिया था, लेकिन जब राज्यसभा में भाजपा ने दीपक प्रकाश को उम्मीदवार बनाया तो इन दोनों ने अपने तमाम मतभेद भुला कर दीपक प्रकाश के पक्ष में मतदान किया। सरयू राय ने कहा भी था कि वह दीपक प्रकाश को वोट दे रहे हैं, एक जमीनी कार्यकर्ता को वोट दे रहे हैं। उनके व्यवहार से वह प्रभावित हैं। अभी जन आशीर्वाद यात्रा के दरम्यान दीपक प्रकाश ने दोबारा अपनी काबिलियत का परिचय दिया है, जब पार्टी का एक-एक कार्यकर्ता और नेता, सांसद और विधायक सड़क पर उतर कर नयी-नयी शिक्षा राज्यमंत्री बनीं अन्नपूर्णा देवी को अपना आर्शीवाद दे रहा है। गजब का माहौल है, गजब का उत्साह है। गजब का जोश और यह सब पैदा किया है दीपक प्रकाश के नेतृत्व ने।
रिपोर्ट को विराम देने के पहले हम एक बार फिर गुजरात की उस खिड़की को हलके ढंग से खोल रहे हैं। गुजरात के उस युवा के हाथ में देश की कमान मिल चुकी थी यानी नरेंद्र मोदी भारत के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में लोगों के सामने अपनी सेवा दे रहे थे और अपने नेतृत्व में भाजपा को एक नया आयाम भी। अमित शाह के साथ मिल कर नरेंद्र मोदी भाजपा को जन-जन की पार्टी बनाने की कोशिश में रम गये और उन्होंने राज्य स्तर पर भी पार्टी की कमान को ऐसे लोगों के हाथ में सौंपने का निश्चय किया, जिनका जीवन संघर्षों से तप कर निकला हो, जिन्होंने जन सेवा को सर्वोपरि माना हो। अगर अचानक से दीपक प्रकाश के हाथ प्रदेश की कमान सौंप दी गयी और साथ में राज्यसभा में उन्हें भेजा गया, तो यह अचानक नहीं था। उस 1973 में दीपक प्रकाश ने विद्यार्थी परिषद के माध्यम से जरूर सेवा देकर कोई जगह बनायी थी , जिसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने महसूस किया था और समय आने पर झारखंड की कमान उनके हाथ सौंप दी। उस दीपक प्रकाश के हाथ, जो सहज हैं, सरल हैं, मिलनसार हैं। जिनमें परोपकार कूूट-कूट कर भरा है। वह ऐसे नेता हैं, जिनके लिए हर कार्यकर्ता के दिल में भैया की जगह है, कार्यकर्ता उन्हें सर नहीं कहता, दीपक प्रकाश भी भैया ही बना रहना चाहते हैं। उनमें सेवा भावना कैसे कूट-कूट कर भरी है, इसे देखना है तो कभी उनके आवास पर जाइये। रांची ही नहीं, दिल्ली आवास पर भी, जहां का दरवाजा हर कार्यकर्ता के लिए खुला है। नेता से लेकर कार्यकर्ता तक को एक सा सम्मान। अगर कोई गया, तो सबसे पहले दीपक प्रकाश उसे अपने आवास में ठहराते हैं। खाना खिलाते हैं। यही नहीं, अगर वह बाहर रहना चाहता है, तो उसके रहने की व्यवस्था करवाते हैं। इलाज के लिए अगर कोई गया, तो दीपक प्रकाश एम्स के पास एक कमरा भी लेकर रखे हुए हैं, जहां रह कर कार्यकर्ता या व्यक्ति अपने मरीज की देखभाल कर सकता है। संसद की कार्यवाही के दौरान दीपक प्रकाश के आवास पर मेला-सा लगा रहता है। ऐसे हैं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश। भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी इनके आदर्श रहे, गोविंदाचार्य से इन्हें काफी स्रेह मिला था। राजनीति में नरेंद्र मोदी इनके प्रणेता हैं। वहीं अमित शाह की फैसला लेने की क्षमता इन्हें काफी प्रभावित करती है। भाजपा के राष्टÑीय अध्यक्ष जेपी नेड्डा से ये सीख रहे हैं। इनके जीवन में नितिन गडकरी और वेंकैया नायडू ने भी छाप छोड़ी है।
दीपक प्रकाश की एक और खासियत है। जब वह भाषण देते हैं तो उनकी मुट्ठी बंध जाती है। यह उस विश्वास का प्रतीक है, जो उन्होंने अपने कर्मों से अर्जित किया है। जीवन संघर्ष से अर्जित किया है। भाजपा का जन्म ही संघर्ष से हुआ है तो दीपक प्रकाश के संघर्षों को पार्टी नजरअंदाज कैसे कर देती।