- आत्मघाती है नीतीश का फैसला, पर नुकसान के लिए भाजपा भी कम दोषी नहीं
- बिहार की राजनीति का यह अध्याय हर पक्ष के लिए कुछ न कुछ संदेश दे रहा है
बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की नयी सरकार ने कामकाज संभाल लिया है। इस बेहद महत्वपूर्ण घटनाक्रम ने राजनीति के बड़े-बड़े पंडितों के सामने दो गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। पहला यह कि आखिर नीतीश कुमार ने इस तरह पाला बदलने की जरूरत क्यों समझी और इतना बड़ा रिस्क क्यों लिया। दूसरा यह कि भाजपा जैसी राजनीतिक ताकत ने बिहार की परिस्थितियों के आकलन में इतनी गंभीर चूक कैसे कर दी! ये दोनों सवाल वैसे तो अलग-अलग दिख रहे हैं, लेकिन दोनों के जवाब कुछ बिंदुओं पर एक हो जाते हैं। यदि एक नहीं होते, तो कम से कम समानांतर तो हो ही जाते हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नीतीश कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने उन्हें भाजपा से अलग किया है। यह उनके इस बयान से भी स्पष्ट हो जाता है कि 2024 में हम रहें या न रहें, 2014 वाले नहीं रहेंगे। लेकिन यह कदम उनके लिए बेहद आत्मघाती हो सकता है, क्योंकि उनके सामने मोदी के अलावा कई दूसरी चुनौतियां भी हैं, जिनसे पार पाना उनके राजनीतिक कद के लिए आसान नहीं दिखता। राहुल और शरद पवार जैसे केंद्र की राजनीति करनेवाले चेहरों को छोड़ भी दें, तो नीतीश के सामने ममता, नवीन पटनायक, केजरीवाल, अखिलेश और केसीआर जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप चुनौती पेश करेंगे। इनके मुकाबले नीतीश का कद यदि छोटा नहीं है, तो जनाधार के हिसाब से बराबर भी नहीं है। नीतीश कुमार को यह भी याद रखना होगा कि उन्होंने बिहार में जो ऊंचाइयां हासिल की हैं, उसमें भाजपा का महत्वपूर्ण योगदान रहा, क्योंकि अकेले दम पर तो 2014 में वह चुनाव मैदान में उतरे थे और तब उन्हें महज दो संसदीय सीटें मिली थीं। बिहार के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से उभरे दूसरे सवाल के जवाब में यही कहा जा सकता है कि भाजपा ने नीतीश को बार-बार अवसर देकर यही संदेश देने का प्रयास किया कि बिहार में उसके पास कोई दमदार नेता नहीं है। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को बिहार की राजनीति को समझने में अभी वक्त लगेगा, क्योंकि उसने नीतीश कुमार पर प्रगाढ़ भरोसा कर इस प्रदेश पर कभी उतना ध्यान ही नहीं दिया, जिसका परिणाम आज सामने है। बिहार के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की पृष्ठभूमि के आलोक में इन दोनों गंभीर सवालों के जवाब तलाशती आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह की खास रिपोर्ट।
बिहार में एक बार फिर सत्ता परिवर्तन हो चुका है। नीतीश कुमार आठवीं बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले चुके हैं। नीतीश कुमार फिर से उस लालू यादव की गोद में जा बैठे हैं, जिन्होंने उन्हें पलटूराम की उपाधि दी थी। उनके बारे में कहा था कि नीतीश सांप हैं। उनमें विषदंत है। हर दो साल में केंचुल की तरह नया चमड़ा धारण करते हैं। यह दूसरी बार है, जब नीतीश कुमार ने भाजपा की रामनामी चादर को उतार फेंका है। नीतीश कुमार की एक खासियत है। वह जब भी पाला बदलते हैं, उसकी भनक तक अपने साथी को नहीं लगने देते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। पिछले छह महीने से नीतीश रामनामी चादर उतारने की रणनीति तैयार कर रहे थे, लेकिन भाजपा को इसकी कानोंकान खबर नहीं थी। भाजपा इस मुगालते में थी कि नीतीश कुमार उसका साथ छोड़ कर उस परिवार के पास सरेंडर कर ही नहीं सकते, जिसे उन्होंने 2017 में भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर सरकार से बेदखल कर दिया था। उस समय महज 15 घंटे के भीतर पलटी मारते हुए नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी। उस वक्त उन्होंने कहा था कि मेरी प्रतिबद्धता जनता की सेवा करने के लिए है, एक परिवार की सेवा करने के लिए नहीं है।
2020 का बिहार विधानसभा चुनाव नीतीश ने भाजपा के साथ लड़ा। सीटें तो उन्होंने भाजपा के बराबर लीं, लेकिन उनके विधायक महज 43 सीटों पर जीत पाये और भाजपा के 74 विधायकों ने बाजी मार ली। कायदे से इस बार भाजपा का मुख्यमंत्री बनना चाहिए था, लेकिन भाजपा आलाकमान ने एक बार फिर प्रदेश के भाजपा नेताओं को उस काबिल नहीं समझा और कमान नीतीश कुमार के हाथ में सौंप दी। ऐसा करते समय शायद भाजपा को लगा कि नीतीश उसके एहसान तले दबे रहेंगे। लेकिन यह भाजपा का मुगालता था। नीतीश तो नीतीशे हैं। एक बार वह जो ठान लेते हैं, उसे करने की पूरी कोशिश करते हैं। चूंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में उनके मन में प्रधानमंत्री बनने का लड्डू फूटा था, सो वह ज्यादा दिनों तक कैसे उसे दबा पाते। उसे मूर्त रूप देने के लिए नीतीश को लगा कि यही सबसे उपयुक्त समय है, क्योंकि अभी कांग्रेस चारों ओर से घिरी हुई है। ममता भी रुख बदल चुकी हैं। शरद पवार की आभा भी कम हुई है, सो आरसीपी सिंह पर ठीकरा फोड़ नीतीश कुमार ने भाजपा से अपने को अलग कर लिया। फिर से वह पहुंच गये भतीजे के पास, जिस पर एक वक्त भ्रष्टाचारी का आरोप लगा त्याग कर दिया था। भतीजे ने भी उस वक्त चाचा को कहीं का नहीं छोड़ा था। तेजस्वी ने कहा था कि नीतीश से ज्यादा मौकापरस्त मुख्यमंत्री पूरे हिंदुस्तान में नहीं मिलेगा। और दोस्त लालू ने तो उनका ताजीवन नामकरण ही कर दिया था पलटूराम। लेकिन आज चाचा-भतीजा एक हो चुके हैं। दोनों ने मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली है। शपथ लेते ही नीतीश के सुर 2013 जैसे हो गये, जब उन्होंने भाजपा से किनारा किया था। नीतीश ने उस वक्त कहा था कि हम रहें या मिट्टी में मिल जायें, दोबारा भाजपा के साथ नहीं जायेंगे। लेकिन उन्होंने फिर राजद को खून के आंसू रुला कर 2017 में पलटीमार कर भाजपा के साथ सरकार बना ली थी।
आज फिर से मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश ने कहा है कि 2024 में हम रहें या न रहें, 2014 वाले नहीं रहेंगे। यानी उन्होंने अपनी ओर से यह भविष्यवाणी कर दी है कि मोदी अब नहीं आनेवाले। उनके दोनों बयानों में एक हिडन नाम है नरेंद्र मोदी। अब साफ जाहिर है कि नीतीश की नजर पीएम की कुर्सी पर ही है। कभी भाजपा से अलग होकर 2014 के लोकसभा चुनाव में अकेले दम पर लड़ कर मात्र दो सीट पानेवाले नीतीश कुमार आज प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले हुए हैं। वह भूल जाते हैं कि बिहार में लगातार उनका जनाधार घट रहा है और घटते-घटते उनकी पार्टी बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी बन गयी है। विधानसभा चुनाव में वह 43 सीटों पर सिमट गयी। और नीतीश कुमार का राजनीतिक कलेजा देखिये कि कभी वह बच्चा चिराग पासवान से डर जाते हैं, तो कभी अपने सबसे करीबी विश्वासी आरसीपी सिंह से। जानकारों की मानें तो भाजपा से अलग होना नीतीश के लिए आनेवाले समय में खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर होगा। राजनीति के जानकार तो यहां तक कह रहे हैं कि जिस व्यक्ति का खुद के बिहार में वोटों की संख्या गिरती जा रही है, उसे आखिर लोकसभा चुनाव में दूसरे राज्य में अपना नेता कोई क्यों मानेगा। सच तो यही है कि बिहार में संख्या बल के आधार पर आज तेजस्वी यादव नीतीश कुमार से बड़े नेता बन कर उभरे हैं। नीतीश यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगर तेजस्वी रूपी बैशाखी उनके पास रही, तो उसके सहारे वह उत्तरप्रदेश के अखिलेश यादव को भी प्रभाव में ले सकते हैं। बता दें कि तेजस्वी यादव अखिलेश यादव के रिश्तेदार हैं। लेकिन नीतीश कुमार यह भूल जाते हैं कि संख्या बल के हिसाब से पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी, दिल्ली के अरविंद केजरीवाल, तेलंगाना के केसीआर,ओड़िशा के नवीन पटनायक, उत्तरप्रदेश के अखिलेश यादव, महाराष्टÑ के शरद पवार उनसे बड़े हैं और कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी तो हैं ही कांग्रेस पार्टी के परमानेंट पीएम कैंडिडेट। ऐसे में नीतीश को विपक्ष पीएम कैंडिडेट क्यों चुनेगा। अगर चुन भी लिया, तो क्या गारंटी है जनता उन पर भरोसा कर ले।
शपथ लेते ही अपनी मंशा जाहिर कर दी नीतीश ने
नीतीश कुमार बुधवार को जब राजभवन के राजेंद्र मंडपम में आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, तो उनके मन के किसी कोने में सात, लोक कल्याण मार्ग की झलक जरूर होगी, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रहते हैं। राजभवन में सरकार बनाने का दावा पेश करने के बाद जब पत्रकारों ने तेजस्वी यादव से पूछा कि क्या नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे, तो तेजस्वी ने कहा, अब ये सवाल मैं मुख्यमंत्री जी पर ही छोड़ता हूं, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि वह इस देश के सबसे अनुभवी सीएम हैं। बगल में खड़े नीतीश कुमार ब्लश कर रहे थे। उनके चेहरे की लालिमा यह बता रही थी। पर, क्या खुद के मान लेने से नीतीश कुमार पीएम मटेरियल हो सकते हैं। इस तरह के प्रयास तो मायावती से लेकर शरद यादव तक ने किये, लेकिन सारे पिछले प्रयास तो विफल रहे हैं। तीसरा मोर्चा हो या साझा विपक्ष, कभी एक नेता पर सहमति नहीं बन सकी। फिर क्या राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड के साझा नेता के तौर पर नीतीश कुमार इतना आगे बढ़ सकते हैं। हां, एक बात आरजेडी के पक्ष में जाती है, लालू प्रसाद यादव। उनकी पहुंच सीधे दस जनपथ तक रही है और उनकी बात भी हिंदी पट्टी के सभी विपक्षी नेता सुनते आये हैं। ऐसा लगता है हाल में जेल से बाहर आने के बाद जब वह पटना में थे, तभी नीतीश को साथ लाने की पटकथा लिखी गयी थी। वहीं बुधवार को शपथ ग्रहण के बाद नीतीश कुमार मीडिया से मुखातिब हुए। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लिये बिना उन पर सीधा निशाना साधते हुए कहा, 2024 में हम रहें या न रहें, 2014 वाले नही रहेंगे। उनका यह बयां साफ इशारा कर रहा है कि उनकी मंशा और राजनीतिक महत्वाकांक्षा क्या है। प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर नीतीश कुमार ने कहा, मेरी कोई दावेदारी नहीं है। हमने जो भी निर्णय लिया है, अपनी पार्टी के साथियों के साथ लिया है। हालांकि, उन्होंने यह जरूर कहा कि हम निश्चित तौर पर विपक्ष को मजबूत करेंगे। नीतीश कुमार ने भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा पर भी इशारों इशारों में निशाना साधा। कहा, जिनको लगता है विपक्ष खत्म हो जायेगा, तो हम लोग तो आ ही गये हैं विपक्ष में। दरअसल, बीते दिनों बिहार में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते करते हुए भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था कि देश में क्षेत्रीय पार्टियां खत्म हो रही हैं। जो खत्म नहीं हुई हैं, हो जायेंगी। सिर्फ भाजपा ही बचेगी।
बिहार की राजनीति टेढ़ी है, लेकिन मेरी है
बिहार की राजनीति टेढ़ी है, लेकिन नीतीश कुमार के लिए बड़ी सीधी। मोबाइल सिम पोर्ट करने जैसी। जिसका नेटवर्क अच्छा, वही आॅपरेटर चुनो। जब मर्जी, बदल लो। वह सियासी गणित में माहिर हैं। अपना नफा-नुकसान साध कर चलते हैं। भाजपा को गच्चा दे ही दिया। यह पहला मौका नहीं है। 2013 में भाजपा से अलग हुए। 2017 में महागठबंधन छोड़ा। अब फिर भाजपा से किनारा। वह पलटते रहे हैं। उनकी फितरत है। अपनी सुविधा अनुसार राजनीति करते हैं। यही वजह है कि उनका कोई राजनीतिक दोस्त नहीं है, तो दुश्मन भी नहीं है। बहरहाल, बिहार का यह बदलाव बहुत कुछ बयां कर रहा है। इस ‘अवसरवादी राजनीति’ के मायने बड़े गहरे हैं। नीतीश को अपना अस्तित्व बिहार में ही दिखता है, जिसे इस यू-टर्न से उन्होंने सुरक्षित कर लिया है। छवि भले खराब हुई है। इससे वह बेपरवाह हैं। विपक्षी दलों के साथ आ जाने से निगाह देश पर है। अब वह खुद को राष्ट्रीय स्तर पर पेश करना चाहेंगे। नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में। यह उनकी पुरानी हसरत है। जाहिर है, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, सोनिया/राहुल गांधी के साथ अब एक नाम नीतीश कुमार का भी होगा।
लेकिन बिहार में सत्ता परिवर्तन के साथ बहुत कुछ हुआ है। राजनीतिक पंडितों के लिए सवाल तो हैं ही, साथ ही उन परिस्थितियों का आकलन भी हो रहा है, जिनमें यह सब हुआ और आगे होगा। लेकिन एक बात हर कोई मान रहा है कि आखिरकार जनता दल यूनाइटेड के सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार ने वही गलती कर दी है, जो भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और भारत के शायद सबसे अनुभवी नेताओं में से एक लालकृष्ण आडवाणी ने की थी। आडवाणी इस हकीकत को समझ नहीं पाये कि उनका न केवल दौर खत्म हो चुका है, बल्कि उन्होंने नौ साल से पार्टी का जिस तरह नेतृत्व किया, उससे नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय राजनीति के शीर्ष पर पहुंच गये हैं। आडवाणी अगर मोदी के करिश्मे को खामोश नाराजगी के साथ कबूल कर लेते, तो पार्टी में उनकी वरिष्ठता का भ्रम भी बरकरार रहता और पार्टी में उनका असर और रसूख भी कायम रहता। लेकिन आडवाणी ने गलती की और इसका नतीजा यह हुआ कि देश के इस कद्दावर नेता ने एक तरह से अपनी राजनीति का समापन कर लिया। यह किसी भी तरह से देश की राजनीति में पिछले 70 सालों से सक्रिय सियासतदां की राजनीतिक तकदीर नहीं होनी चाहिए थी। आडवाणी की इस स्थिति के बाद भाजपा के अंदर अब मोदी के खिलाफ कोई विरोध करने की जुर्रत भी नहीं करेगा। वास्तव में मोदी अब पार्टी से भी बड़े हो गये हैं। वही आडवाणी वाली गलती अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर रहे हैं। अंतर केवल इतना है कि नीतीश भाजपा के भीतर नहीं हैं। उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड पिछले कई साल से भाजपा की सहयोगी थी और 2020 के चुनाव के बाद नीतीश को सीएम की कुर्सी भी भाजपा की कृपा से ही नसीब हुई थी। यह भाजपा ही थी, जिसके कारण 2019 के लोकसभा चुनाव में जदयू को 16 सीटें मिली थीं। 2014 में तो इसके खाते में महज दो सीटें ही आयी थीं।
नीतीश कुमार ने 2014 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाये जाने का विरोध किया था, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था। जिस वक्त 2002 में गोधरा में ट्रेन के एक डिब्बे में कार सेवकों पर हमला किया गया था और जिसके बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क उठे थे, उस वक्त नीतीश कुमार ही तत्कालीन केंद्र सरकार में रेल मंत्री थे। उस समय उन्होंने कभी भी नरेंद्र मोदी के कामकाज पर या भाजपा के नजरिये पर कोई सवाल नहीं उठाया, तो फिर अचानक 2014 में उनके जेहन में धर्मनिरपेक्षता, गुजरात के दंगे और मोदी की छवि कहां से अचानक हिचकोले मारने लगी, यह बड़ा सवाल है।
इसलिए ही नीतीश के मन में इस बार अपने राजनीतिक जीवन की शायद अंतिम पारी खेलने की हिम्मत आयी। भाजपा से मिली ताकत को वह अपनी ताकत समझ बैठे हैं। वह भी क्षेत्रीय क्षत्रपों की तरह 2024 के आम चुनावों में त्रिशंकु लोकसभा की संभावनाओं को महसूस कर रहे हैं। उनको लगता है कि दिल्ली एक बार फिर राजनीतिक मछली बाजार बननेवाला है। नीतीश कुमार के दिमाग में कहीं न कहीं यह सपना दबा हुआ है कि उस मछली बाजार की अफरा-तफरी में प्रधानमंत्री की टोकरी उनके हाथ लग सकती है। लेकिन वह यह भूल रहे हैं कि उस मछली बाजार में ममता, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल और केसीआर जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप पहले से ही मौजूद हैं। उनके साथ अखिलेश और तेजस्वी तो हैं ही। इनके अलावा पहले से ही इस मछली बाजार में शरद पवार और राहुल जैसे बड़े खिलाड़ी अपनी जगह घेर कर बैठे हुए हैं। इन सबके बीच से नीतीश उस टोकरी को निकाल पाने में कैसे सफल होंगे, यह सोचनेवाली बात है।
नीतीश कुमार यह भी भूल रहे हैं कि उनका संबंध ऐसे राजनीतिक आंदोलन से रहा है, जो साम्यवाद की तरह अपने मायने खो चुका है। इनके नजरिये का बुनियादी पहलू कांग्रेस का विरोध रहा है। धर्मनिरपेक्षता अपने मौजूदा अर्थों में इनके सियासी नजरिये का अहम पहलू नहीं रहा है। इनकी पार्टी दूसरे राजनीतिक दलों के मुकाबले भाजपा से ज्यादा करीब नजर आती है। भाजपा के साथ रहने की वजह से न सिर्फ उनकी राजनीतिक ताकत बढ़ जाती है, बल्कि वे गठबंधन के अंदर मोदी के सामने जरूरत पड़ने पर संतुलन और ब्रेक का काम कर सकते थे। और अंतिम बात यह कि नीतीश भी आडवाणी की तरह इस हकीकत को समझ नहीं पा रहे हैं कि वह मोदी की तरह एक कामयाब राजनीतिक प्रबंधक नहीं हैं, जिसका अभी दौर चल रहा है। और साथ ही वह मोदी जितने लोकप्रिय भी नहीं हैं। नीतीश खुद अपने राज्य में तेजी से लोकप्रियता खो रहे हैं और इस वक्त वह एक कमजोर से प्लेटफॉर्म पर खड़े हो गये हैं। वैसे कहा जाता है कि बड़े ख्वाब देखना अच्छी बात है, लेकिन ख्वाब ऐसा न हो कि वह राजनीतिक खुदकुशी बन जाये।
भाजपा की चूक ने भी स्थिति को उलझाया
अब दूसरा सवाल कि क्या भाजपा ने बिहार की परिस्थितियों के आकलन में लापरवाही बरती। इसका उत्तर तो निश्चित ही सकारात्मक है। भाजपा की पहली भूल यह हुई कि उसने बिहार की सियासत के अलग रंग को कभी मान्यता ही नहीं दी। पार्टी यह भूल गयी कि बिहार की राजनीति वहां से शुरू होती है, जहां दूसरे राज्यों की राजनीति विराम लेती है। यही कारण है कि वह नीतीश कुमार और लालू जैसे राजनीति के धुरंधरों के मुकाबले सुशील मोदी, चिराग पासवान और आरसीपी सिंह को मोर्चे पर लगाया। भाजपा पर यह आरोप तो चस्पां किया ही जा सकता है कि उसने बिहार में केवल नीतीश की छवि देखी, जनाधार नहीं देखा और न ही स्वतंत्र नेतृत्व उभरने का अवसर ही हासिल किया। यही कारण है कि बिहार में भाजपा का आज कोई एक ऐसा नेता नहीं है, जो पूरे राज्य में जाना जाता है। अब तो कहा यहां तक जा रहा है कि वह भाजपा ही थी, जिसने करीब 20 महीने पहले, 11 नवंबर 2020 को, यानी बिहार विधानसभा चुनाव नतीजे आने के एक दिन बाद इस अलगाव के लिए जमीन तैयार कर दी थी। बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद जनता का थैंक यू जताने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रमुख नेताओं का पूरा अमला उस शाम दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में जुटा। समारोहों की भव्यता चुनावी सफलता के अनुपात में कुछ ज्यादा ही लग रही थी। एनडीए बमुश्किल बहुमत हासिल कर पाया था। 243 सदस्यीय विधानसभा में 125 सीटें, और नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को बड़ा झटका लगा था, जो 2015 के चुनावों में 71 सीटों की तुलना में केवल 43 सीटें ही जीत पायी थी। कहते हैं कि उस समारोह से नीतीश कुमार बुरी तरह आहत थे। वह समझ गये थे कि भाजपा उन्हें चैन से रहने नहीं देगी। दूसरी तरफ भाजपा के रणनीतिकार नीतीश को घेरने की जुगत लगाने लगे थे। इसे जारी रखते हुए ही भाजपा ने सुशील कुमार मोदी को राज्य से बाहर लाने का फैसला किया, जो 2005 के बाद से नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान उनके डिप्टी थे। दोनों के बीच परस्पर तालमेल काफी अच्छा था और दोनों ही सहयोगी दलों के बीच एक सहज संबंध सुनिश्चित करके आराम से सरकार चलाते रहे थे। सुशील मोदी को नीतीश के नये मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया और उनकी जगह अपेक्षाकृत छोटा सियासी कद रखने वाले दो नेताओं डिप्टी सीएम बनाया गया। सुशील मोदी को राज्यसभा लाया गया, लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया। भाजपा के इस कदम को नीतीश कुमार के साथ उनकी निकटता की सजा के तौर पर देखा गया।
भाजपा की यही भूल आगे चल कर घाव बन गयी, जिसका लाभ लालू ने खूब उठाया। उनकी ओर से नीतीश को यह भरोसा दिलाया गया कि भाजपा का अगला निशाना जदयू है। दूसरी तरफ भाजपा बिहार में अपना वजूद चिराग पासवान और आरसीपी सिंह जैसे नौसिखियों के सहारे मजबूत करना चाह रही थी। यहीं भाजपा चूक गयी और बिहार उसके हाथ से निकल गया। हालांकि भाजपा इसे अवसर के रूप में लेगी। अब वह खुद को सबसे बड़ी पार्टी बनाना चाहेगी। लालू राज और भ्रष्टाचार पर हमला करेगी। आक्रामक अभियान चलायेगी। 2024 से पहले एनडीए से एक पार्टी का अलग होना झटका हो सकता है, लेकिन बिहार में संदर्भ अलग हैं। भाजपा इसे ‘मुक्ति’ के रूप में देख रही है।