बिहार विधानसभा के चुनाव की घोषणा होने के साथ ही राज्य के 243 विधानसभा क्षेत्रों का सियासी माहौल गरमाने लगा है। राजधानी पटना में विभिन्न राजनीतिक दलों के दफ्तरों में बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया है। बिहार का चुनाव इस बार खास इसलिए भी है, क्योंकि कोरोना काल में यह पहला बड़ा चुनाव होने जा रहा है, जिसमें न जुलूस होंगे, न रैलियां होंगी और न लाउडस्पीकर का शोर होगा। डोर-टू-डोर जनसंपर्क में भी ताम-झाम नहीं होगा और न ही चिल्ल-पों मचेगी। इसके बावजूद तीन चरणों में होनेवाला यह चुनाव बिहार की तकदीर लिखेगा। इस बार का चुनाव ‘जीरो’ पर हो रहा है, क्योंकि 1990 के बाद लगातार 15 साल राजद का शासन रहा और फिर उसके बाद 15 साल तक एनडीए ने बिहार की सत्ता संभाले रखी। इसलिए यह चुनाव बराबरी के आधार पर होगा। लेकिन सवाल यह है कि आखिर वे कौन से मुद्दे हो सकते हैं, जो राजनीतिक रूप से अति संवेदनशील बिहार के मतदाताओं को प्रभावित कर सकते हैं। मुद्दों की कमी तो किसी चुनाव में नहीं रही, लेकिन इस बार मामला दोनों पक्षों के लिए थोड़ा पेंचीदा हो सकता है। ‘15 साल के लालू राज बनाम 15 साल के सुशासन’ के नारे के बीच बिहार के चुनावी परिदृश्य पर नजर डालती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

शुक्रवार 25 सितंबर को जब बिहार विधानसभा के चुनाव की घोषणा हुई, उसके कुछ देर बाद पटना के एक मीडियाकर्मी से बात हो रही थी। उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के कहा, इस बार का चुनाव जीरो-जीरो होगा, क्योंकि लालू के 15 साल के शासनकाल के बाद नीतीश ने भी 15 साल तक यहां शासन किया है। इस बार बिहार की जनता का फैसला देखने लायक होगा। उन्होंने यह भी कहा कि मुकाबला किसी भी पक्ष के लिए आसान नहीं होगा। जरा सी चूक से बाजी पलट सकती है।
उनका कहना बिल्कुल सही था। बिहार का राजनीतिक माहौल देश के दूसरे हिस्सों से हमेशा से अलग रहा है। 1977 के बाद से बिहार में जिस राजनीति का उदय हुआ, उसने बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों को हैरान कर दिया। इस बार भी मामला कुछ अलग नहीं है। इसके बावजूद बड़ा सवाल यह है कि बिहार में इस बार वे कौन से मुद्दे हो सकते हैं, जिनका चुनाव पर असर होगा।
निश्चित रूप से ऐसा पहला मुद्दा विपक्ष का आकार ही होगा। अगले सात दिनों में विपक्षी गठबंधन का आकार तय होगा। जीतनराम मांझी का हम विपक्षी खेमे से छिटक चुका है। उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और पप्पू यादव को राजद के नेतृत्ववाले गठबंधन में पर्याप्त जगह नहीं मिली, तो फिर एनडीए का रास्ता आसान हो सकता है, क्योंकि ये तीनों नेता ओवैसी की पार्टी के साथ तीसरो मोर्चा बना सकते हैं। विपक्ष के साथ दूसरी समस्या नेतृत्व को लेकर है। तीन दशक में यह पहला मौका होगा, जब लालू सीधे चुनावी परिदृश्य से बाहर होंगे। राजद के पोस्टर से वह पहले ही बाहर हो चुके हैं। ऐसे में तेजस्वी यादव जैसे अनुभवहीन नेता की कमान में महागठबंधन कितनी दूर तक चल पायेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। तेजस्वी यादव इस बार खुद को अगली पीढ़ी के नेता के रूप में पेश कर चुनाव लड़ रहे हैं। उन्होंने लालू राज में हुई गड़बड़ियों के लिए माफी भी मांगी है। लालू के एमवाइ फॉर्मूले से बाहर निकल कर उन्होंने इस बार खुद को पूरे बिहार के नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है। उन्होंने रोजगार को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है। लेकिन अभी भी राजद के अंदर और गठबंधन में नेता के रूप में उन्हें पूरी तरह स्वीकार्यता नहीं मिली है। ऐसे में वह खुद को अपने गठबंधन से लेकर जनता के बीच किस तरह स्वीकार्य बनायेंगे, यह भी दिलचस्प होगा। इसके अलावा लालू परिवार की अंदरूनी लड़ाई भी चुनावी नतीजों पर असर डालेगी। लालू-राबड़ी की बड़ी बहू ऐश्वर्या के मैदान में उतरने से राजद के रास्ते में कांटा उग सकता है। फिर रघुवंश बाबू की अंतिम चिट्ठी तो माहौल को दूसरा रुख दे सकती है।
यह तो हुई विपक्षी गठबंधन की बात। सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में भी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जदयू और भाजपा में लोजपा को लेकर चिंता है। उधर भाजपा ने बड़े भाई-छोटे भाई का रिश्ता खत्म कर जुड़वां भाई का रिश्ता बना लिया है, जिससे जदयू की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक है। हालांकि मांझी के आने से महादलितों के बीच एनडीए का आधार बढ़ा है। लेकिन चिराग पासवान का रवैया इसमें पलीता लगाने में सक्षम है। इसके बाद वह मुद्दा है, जिसने अब तक हुए सभी चुनावों में सत्ताधारी गठबंधनों या दलों की नींद उड़ा कर रखी है। यह मुद्दा है एंटी इनकमबैंसी का। नीतीश कुमार 15 साल से सत्ता में हैं। पिछले चुनाव के बाद उनके बदले रवैये ने थोड़ा नुकसान तो जरूर किया है। ऐसे में चुनाव प्रचार के बीच नीतीश कुमार जनता को समझाने में कितने सफल होते हैं कि उनका सुशासन जिंदा है और वे अभी भी बिहार में अपना सर्वश्रेष्ठ देने में सफल हो सकते हैं, इस पर भी यह चुनाव निर्भर करेगा।
एक और फैक्टर, जो बिहार चुनाव के परिणाम में बड़ी भूमिका निभायेगा, वह है मतदान का प्रतिशत। आशंका व्यक्त की जा रही है कि कोविड के कारण मतदान में कमी रह सकती है। वैसे भी बिहार में 60 फीसदी से कम वोटिंग होती रही है। ऐसे हालात में जो गठबंधन अपने वोटर को बूथ तक लाने में सफल होगा, परिणाम उसके पक्ष में ही जायेगा। इसलिए इस बार बूथ मैनेजमेंट भी अहम माना जायेगा। चुनाव इस बार त्योहारों के बीच हो रहा है। इसलिए बिहार का मतदाता इस बार चुनाव पर कितना ध्यान देता है, यह देखनेवाली बात होगी। इसके अतिरिक्त प्रवासी मजदूर, बिहारी अस्मिता, सुशांत सिंह राजपूत की मौत और राज्यसभा की घटना के साथ दूसरे मुद्दे भी हैं, जिनसे चुनाव परिणाम प्रभावित हो सकता है। इन तमाम मुद्दों के बीच बिहार के सात करोड़ मतदाता अगले पांच साल के लिए अपनी सरकार चुनेंगे और यह देखना बेहद रोमांचक होगा कि इस बार पटना में किसकी दिवाली मनेगी और किसका दिवाला निकलेगा।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version