विशेष
सिर्फ बैठक, भोज और मोदी विरोध से तो आइएनडीआइए अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकता
उदयनिधि स्टालिन जैसे बड़बोले नेता भी हैं, जो विपक्षी एकता की हवा निकाल रहे हैं
राहुल गांधी की बहुप्रचारित मुहब्बत की दुकान पर नफरत परोसा जा रहा है

तमिलनाडु के युवा मामलों के मंत्री और मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के पुत्र उदयनिधि मारन द्वारा सनातन धर्म के खिलाफ की गयी आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद गर्म हुए राजनीतिक माहौल में एक सवाल तैरने लगा है और वह यह कि विपक्ष के मोदी हटाओ के नारे का इस तरह की टिप्पणी के बाद कितना असर पड़ सकता है। यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है कि पिछले एक साल से, जब राहुल गांधी की बहुप्रचारित भारत जोड़ो यात्रा शुरू हुई थी और उनकी मुहब्बत की दुकान खुलने का दावा किया जा रहा था, तब से लगातार मोदी हटाओ का नारा बुलंद किया जा रहा था, लेकिन अब जाकर यह नारा लगानेवालों को समझ में आ गया है कि नारा तो ठीक है, लेकिन मोदी को हटाया कैसे जाये, इसका रास्ता क्या हो सकता है, यह तो कोई बता ही नहीं रहा है। विपक्षी दल एकजुट होकर आइएनडीआइए नामक छतरी के नीचे तो आ गये हैं और मजबूत इरादा भी जाहिर कर चुके हैं, लेकिन दुनिया के सबसे लोकप्रिय नेता बन चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जहां पहुंच चुके हैं, वहां तक इस तरह के हथकंडों की पहुंच नहीं है। केवल बैठक और भोज के सहारे मोदी को हराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। और इस नामुमकिन टास्क को दुरूह बनाते हैं उदयनिधि स्टालिन जैसे नेताओं के उलजुलूल बयान और इस बयान का समर्थन करते विपक्ष के कई और नेता और तो और ममता-नीतीश-केजरीवाल की महत्वाकांक्षा भी तो है। लालू यादव का राहुल गांधी के लिए प्रेम से परोसा गया मटन भोज से तो मोहब्बत की दुकान तो जरूर चल सकती है, लेकिन चंपारण मटन के फॉर्मूले से मोदी को हराया तो नहीं जा सकता। तो फिर मोदी को हराने का रास्ता तो फिलहाल बंद ही दिख रहा है। क्या है पूरा मामला और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
थोड़ा पीछे चलते हैं। 1971 में लोकसभा का चुनाव हो रहा था। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। चुनाव में इंदिरा का नारा था ‘गरीबी हटाओ’, जबकि उनके खिलाफ विपक्षी दलों के मोर्चे ने ‘इंदिरा हटाओ’ का नारा बुलंद किया था। चुनावी सभाओं में इंदिरा कहती थीं, ‘वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ।’ इंदिरा गांधी ने इन 10 मामूली शब्दों के साथ उस चुनाव में विपक्षी दलों के विशाल मोर्चे को हरा दिया था। उस ‘महागठबंधन’ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ओ), संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ के बीच गठबंधन था। इसमें के कामराज, मोरारजी देसाई, एस निजलिंगप्पा, मीनू मसानी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता थे। इनमें से कुछ नेता इंदिरा गांधी से भी अधिक समय से राष्ट्रीय राजनीति और कांग्रेस पार्टी में सक्रिय रहे थे। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी को ठीक दो साल पहले 1969 में कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आइ) के बीच बंटवारे का सामना करना पड़ा था। ‘ओ’ का मतलब असली था और ‘आइ’ का मतलब इंदिरा था। इसका मतलब था कि वह कांग्रेस की इकलौती नेता नहीं थीं। सत्ता के लिए उनकी दावेदारी को चुनौती देने के लिए पार्टी के कई दिग्गज एक साथ मिल गये थे। फिर भी उन सबका मिल कर भी इंदिरा गांधी से कोई मुकाबला नहीं था। उन्होंने कांग्रेस के अपने गुट को 518 में से 352 सीटों के साथ भारी जीत दिलायी। उस समय के महागठबंधन को महज 53 सीटें मिलीं।

महागठबंधन का वर्तमान दौर
अब लौटते हैं वर्तमान हालात और 2024 की संभावनाओं पर। आज भाजपा और इसके सबसे लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी के सामने 26 विपक्षी दलों के महागठबंधन का एक नया रूप है, जिसकी हाल ही में मुंबई में तीसरी बैठक संपन्न हुई है। पिछले वाले के उलट इसने अपना एक आकर्षक नाम आइएनडीआइए (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस या भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन) दिया है। अगर कोई इसके सभी साझेदार दलों के नेताओं के भाषणों को सुने, तो यह साफ हो जायेगा कि इनका मुख्य एजेंडा अगले संसदीय चुनावों में मोदी को हराना है। इसके नेताओं ने नारा तो ‘मोदी हराओ’ का दे दिया है, लेकिन इसके प्रति ये कितने गंभीर हैं, इसकी विवेचना अभी बाकी है।
एक साल पहले राहुल गांधी ने अपनी बहुप्रचारित भारत जोड़ो यात्रा के सहारे 2024 में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने का अभियान शुरू किया था। साढ़े तीन हजार किलोमीटर की इस यात्रा से उनकी छवि बदली, लेकिन जहां तक कांग्रेस की संभावनाओं का सवाल है, तो यह उनके ही बयानों-टिप्पणियों से धूमिल पड़ती गयी। कभी अमेरिका और ब्रिटेन जाकर भारत विरोधी स्टैंड, तो कभी आर्थिक मसलों पर अनर्गल टिप्पणियों ने राहुल गांधी की सुधरी हुई छवि को बिगाड़ना शुरू कर दिया। उनकी ‘मुहब्बत की दुकान’ हिमाचल और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में जरूर खुली, लेकिन देश के दूसरे हिस्सों पर या तो वैसी दुकानें खुली ही नहीं या फिर उन पर ताला लगने लगा। राहुल चुपचाप यह सब देखते रहे। राजद सुप्रीमो लालू यादव द्वारा दूल्हा करार दिये जाने के बावजूद राहुल ‘मोदी हराओ’ का रास्ता नहीं बता सके, बल्कि खुद आजादपुर सब्जी मंडी से हरियाणा के खेतों तक और ट्रक ड्राइवरों के साथ शिमला से बाइक से लेह-लद्दाख जाने के रास्ते पर आगे बढ़ते रहे।
लगभग इसी दौरान कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे, राजद के चंद्रशेखर, सपा के स्वामी प्रसाद मौर्य और टीएमसी की ममता बनर्जी की देखादेखी तमिलनाडु के युवा द्रमुक नेता उदयनिधि स्टालिन भी बदजुबानी पर उतर आये। सनातन धर्म, इसके महान ग्रंथों और परंपराओं के खिलाफ इन नेताओं की टिप्पणी से विपक्षी दलों को नुकसान ही होनेवाला है।

मोदी और भाजपा की लोकप्रियता
विपक्षी दलों के इस असमंजस के बरअक्स एक नजर मोदी और भाजपा की रणनीति पर डालना जरूरी हो जाता है। यदि 1971 में इंदिरा गांधी के 10 शब्दों से उधार लेकर मोदी 2024 में एक नारा बना देंगे, तो कल्पना की जा सकती है कि विपक्ष कहां होगा। पीएम मोदी ने इस साल स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से भारत की तीन समस्याओं का जिक्र किया था। वे समस्याएं थीं, भ्रष्टाचार, परिवारवाद और तुष्टिकरण। इन तीन में से यदि केवल तुष्टिकरण को ही नारे में ले लिया जाये, तो इसका 140 करोड़ की आबादी और करीब 110 करोड़ मतदाताओं वाले देश में क्या असर होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। नारे से अलग देखें, तो मतदाताओं के सामने मोदी की अपील उनकी सरकार के दो कार्यकाल की कामयाबियों और उन्हें आगे बढ़ाने और मजबूत करने के वादे पर निर्भर करेगी। इसमें कोई शक नहीं है कि भारत ने 2014 के बाद से कुछ क्षेत्रों में शानदार तरक्की की है। हमारी अर्थव्यवस्था दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले काफी बेहतर प्रदर्शन कर रही है। हमारे बुनियादी ढांचे का आधुनिकीकरण और विस्तार जिस तरह हुआ है, वह लोगों को दिखाई देता है। हमारा राजमार्गों का विश्वस्तरीय नेटवर्क पहले के मुकाबले बहुत बड़ा हो गया है। वंदे भारत ट्रेनों की मौजूदगी ने भारतीय रेलवे को एक नया तेवर दिया है और यह मध्यवर्ग की ख्वाहिशमंद जनता की निगाहों से छिपा नहीं है, जिसका आकार बढ़ता जा रहा है। दुनिया में भारत की छवि काफी मजबूत हुई है और यह भी मोदी सरकार के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। इसके अलावा जहां तक भाजपा के समर्पित हिंदुत्व वोट की बात है, यह विपक्ष के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति से प्रभावित होता रहेगा।

आइएनडीआइए को भाजपा को हरानेवाली रणनीतियों पर जोर देना होगा
तो फिर सवाल वही है कि मोदी को हराने का रास्ता क्या हो सकता है। अगर महागठबंधन ज्यादा से ज्यादा सीटों पर भाजपा के खिलाफ एक साझा उम्मीदवार खड़ा कर पाता है, तो भाजपा को पिछले दो चुनावों में विपक्षी वोटों के बंटवारे का जो बड़ा फायदा मिला था, वह कम हो सकता है। लेकिन फिलहाल इसकी संभावना नगण्य है। आइएनडीआइए गठबंधन को कई बड़े राज्यों में यह सामांजस्य दिखाने की जरूरत होगी। तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी, समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव और आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल की मौजूदगी में कांग्रेस और इन पार्टियों के बीच पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश और पंजाब/दिल्ली में सीट बंटवारे की व्यवस्था आसान नहीं होगी। हिंदू और हिंदू धर्म को पानी पी-पीकर गाली देने से भाजपा को लाभ ही होगा। अगर विपक्ष यह सोचता है कि हिंदू धर्म को गाली देकर वह अल्पसंख्यकों के वोट को बल्क में अपने पाले में कर लेगा, तो यह भी याद रखना होगा कि जब अल्पसंख्यक आक्रामक होंगे, उनके वोटों का धु्रवीकरण होगा, तो हिंदू भी अपनी राह तलाशेगा।

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