• 2024 विधानसभा चुनाव की बदली परिस्थितियों में कांग्रेस के समक्ष जीती हुई सीटों को बचा पाना आसान नहीं
• केशव महतो कमलेश तपे-तपाये नेता हैं, लेकिन दूसरे नेताओं का किनारे बैठ तमाशा देखना कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है
झारखंड में आसन्न विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक दलों की गतिविधियां पूरे उफान पर हैं। सीट शेयरिंग से लेकर उम्मीदवार चयन और चुनाव प्रचार अभियान की रणनीति बनायी जा रही है, वोटों का जातीय समीकरण साधने की जुगत लगायी जा रही है और संसाधन जुटाने का काम तेजी से चल रहा है। ऐसे माहौल में यदि कोई पार्टी इन चुनावों से निश्चिंत दिख रही है, तो वह है कांग्रेस, जिसके बड़े से लेकर छोटे नेता और कार्यकर्ता झारखंड में दिखाई ही नहीं दे रहे हैं। ये नेता अपने राज्य के विधानसभा चुनावों से बेफिक्र कश्मीर की वादियों में चुनाव प्रचार कर रहे हैं, क्योंकि वहां झारखंड कांग्रेस के प्रभारी गुलाम अहमद मीर विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। झारखंड कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता भले ही झारखंड में कोई जनाधार नहीं रखते हों, प्रभारी के सामने खुद को साबित करने के लिए कश्मीर में प्रचार अभियान चला रहे हैं और वह भी निजी खर्च पर। झारखंड कांग्रेस के नेता कश्मीर में क्या कर रहे हैं और कितना प्रभाव डाल रहे हैं, यह तो चुनाव परिणाम ही बतायेगा, लेकिन सबसे आश्चर्य इस बात का है कि झारखंड के नेता कश्मीर में भाषा की समस्या से कैसे निबट रहे हैं, लोगों से कैसे संवाद कर रहे हैं। झारखंड कांग्रेस के जो एकमात्र नेता यहां पसीना बहा रहे हैं, वह हैं प्रदेश अध्यक्ष केशव महतो कमलेश, लेकिन विधानसभा चुनाव की गहमा-गहमी के बीच उनकी मदद के लिए कोई नहीं है। इसलिए कांग्रेस के सामने प्रत्याशी चयन से लेकर दूसरे चुनावी कार्य संपन्न करने और अपनी सीट दोबारा हासिल करने की बड़ी चुनौती है। क्या है झारखंड कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति और क्या हो सकता है विधानसभा चुनाव में इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राहुल सिंह।

झारखंड में विधानसभा चुनाव का एलान किसी भी वक्त हो सकता है। यहां का सियासी पारा पूरे उफान पर है। एक तरफ सत्ताधारी दल झामुमो और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन लगातार लोगों के बीच जाकर प्रदेश भाजपा और केंद्र पर निशाना साध रहे हैं। वहीं भाजपा का केंद्र और प्रदेश नेतृत्व झारखंड में सत्ताधारी दल झामुमो, कांंग्रेस और राजद पर पूरी तरह से हमलावर दिखाई दे रहा है। भाजपा के साथ-साथ एनडीए में शामिल आजसू भी पूरी शक्ति के साथ सत्ता पक्ष पर हमला बोल रहा है। दूसरी तरफ सत्ताधारी दल की सहयोगी कांग्रेस की तरफ से प्रदेश अध्यक्ष केशव महतो कमलेश ही ऐसे नेता हैं, जिन्होंने जिस दिन से प्रदेश नेतृत्व की कमान संभाली है, उस दिन से दिन रात एक किये हुए हैं। वहीं कांग्रेस के दो दर्जन से अधिक नेता नेता, प्रत्याशी का आवेदन देकर या तो चुपचाप बैठ गये हैं या घूमने में व्यस्त हैं। ये नेत जम्मू कश्मीर में चुनाव लड़नेवाले कांग्रेस के प्रभारी गुलाम अहमद मीर की विधानसभा में घूम रहे थे। कई तो पंद्रह दिन पहले ही चले गये थे, तो कई एक हफ्ता तक वहां डेरा डाले हुए थे। इनका कश्मीर दौरा नेताओं के साथ-साथ गुलाम अहमद मीर को सवालों के घेरे में ले लिया है। सवाल इसलिए कि जिस राज्य में विधानसभा का चुनाव सिर पर है, प्रदेश अध्यक्ष दिन-रात एक किये हुए हैं, वहीं दूसरी कतार के नेता कश्मीर का दौरा कर रहे हैं। इनके जाने से गुलाम अहमद मीर को चुनाव में कितना लाभ मिलेगा, यह तो समय बतायेगा लेकिन इनकी अनुपस्थिति जरूर चौंका गयी है। वहीं हाल के दिनों में जमशेदपुर में कांग्रेस के कार्यकर्ता जिस तरह से मलयुद्ध पर उतर आये थे, उससे कहीं ना कहीं कांग्रेस को निश्चित रूप से नुकसान होगा।
इससे यह भी पता चलता है कि आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष के अलावा अन्य के नेताओं में कितनी गंभीरता है। इन सबका क्या असर पड़ेगा इस पर प्रकाश डाल रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राहुल सिंह।

बात शुरू करते हैं कांगे्रस के नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष केशव महतो कमलेश से। सही मायनो में देखा जाये तो प्रदेश अध्यक्ष केशव महतो कमलेश को छोड़ कर कांग्रेस का कोई भी बड़ा नेता या कार्यकर्ता संगठित रूप से चुनाव को लेकर उतना गंभीर नहीं दिख रहा। इनमें से किसी नेता की सक्रियता अगर सामने भी आ रही है, तो अपने चुनाव क्षेत्र तक। प्रदेश अध्यक्ष बनते ही केशव महतो कमलेश पर इतनी बड़ी जिम्मेदारी डाल कर एक तरह से दूसरे नेता निश्चिंत हो गये हैं। उनका मानना है कि कांग्रेस की नैया को पार लगाने की जिम्मेदारी केशव महतो कमलेश की ही है, क्योंकि अध्यक्ष वही हैं। कांग्रेस के कई पुराने सहयोगी किनारे पर बैठ राजनीतिक तपिश से बच कर ठंडी हवा का मजा ले रहे हैं।
प्रदेश अध्यक्ष केशव महतो कमलेश लगातार संवाद आपके साथ कार्यक्रम के तहत अपने प्रखंड और मंडल स्तर के कार्यकर्ताओं के साथ मिल बैठ कर उनकी बात सुन रहे हैं। उनकी सलाह ले रहे हैं। इस कार्यक्रम का अंतिम चरण 19 से 21 सितंबर तक संथाल जिला जामताड़ा, दुमका, गोड्डा, साहिबगंज और पाकुड़ में शुरू हो रहा है।

कौन हैं केशव महतो कमलेश
केशव महतो कमलेश कांग्रेस पार्टी में लंबे समय से हैं। वे अविभाजित बिहार में सिल्ली विधानसभा सीट से विधायक रह चुके हैं। 1985 में वह पहली बार सिल्ली विधानसभा सीट से विधायक चुने गये। इसके बाद वह बिहार सरकार में मंत्री भी बने।
साल 1995 में केशव महतो कमलेश फिर सिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत कर विधायक बने। लेकिन साल 2000 में वह सुदेश महतो से हार गये। इसके बाद वह फिर कभी विधायक नहीं बने। वह इससे पहले कार्यकारी अध्यक्ष का भी पदभार संभाल चुके हैं। उनकी पहचान एक साफ सुथरी छवि के नेता रूप में है। उनके ऊपर अब तक किसी प्रकार का कोई भी आपराधिक मामला दर्ज नहीं है। उन्होंने 1976 से 1978 के बीच रांची विश्वविद्यालय से एमए की पढ़ाई की है।

कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक हैं केशव महतो कमलेश
कांग्रेस ने सोच-समझ कर केशव महतो कमलेश को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी है और बड़ा ओबीसी दांव खेला है। राज्य में महतो (कुर्मी) जाति को साधने की रणनीति के हिसाब से कांग्रेस ने यह कदम उठाया है। झारखंड में ओबीसी की आबादी करीब 42 प्रतिशत है। ऐसे में एक बड़े वोट बैंक को कांग्रेस ने अपने पाले में करने के लिहाज से ये राजनीतिक रणनीति अपनायी है। केशव महतो कमलेश व्यवहार कुशल, सादा जीवन व्यतीत करने वाले नेता के तौर पर जाने-पहचाने जाते हैं। इनके सामने कांग्रेस और गठबंधन के पक्ष में ओबीसी वोट को गोलबंद करने की सबसे बड़ी चुनौती होगी।

कुर्मी वोटरों को साधने की है तैयारी
कुर्मी वोटरों की गोलबंदी को लेकर कांग्रेस केंद्रीय नेतृत्व ने केशव को अध्यक्ष बनाया है। झारखंड में कुर्मी समुदाय की अच्छी खासी जनसंख्या है। कई जिलों मसलन रामगढ़, हजारीबाग, बोकारो, धनबाद, जमशेदपुर समेत कई इलाकों में कुड़मी वोटर्स निर्णायक की भूमिका में हैं।

कांग्रेस को आत्ममंथन करने की है जरूरत
अब समय आ गया है कि कांग्रेस आलाकमान और झारखंड के सभी नेता-कार्यकर्ता आत्ममंथन करें। सिर्फ अपनी-अपनी उम्मीदवारी और दावेदारी जता कर, कार्यक्रमों में माला पहन कर और कश्मीर की सैर करके चुनाव नहीं जीता जा सकता। अब जरूरत है धरातल पर उतर कर अपनी आवाज बुलंद करने की। हाल ही में झारखंड कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी गुलाम अहमद मीर ने विधायक दल की बैठक में साफ शब्दों में कहा था कि हर हाल में पार्टी की पहली प्राथमिकता 18 विधानसभा सीट को पहले जीतना है। यह सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन क्या प्रदेश प्रभारी गुलाम अहमद मीर इसके लिए खुद गंभीर हैं, यह समझने वाली बात है। झारखंड में किसी भी वक्त विधानसभा चुनाव का एलान हो सकता है, यह जानते हुए कांग्रेसियों का कश्मीर दौरा कितना उचित था। इस दौरे पर कांग्रेस आलाकमनान को आत्ममंथन करने की जरूरत है।
दरअसल, गुलाम अहमद मीर ने जिन 18 विधानसभा सीटों का जिक्र किया था, वहां से कांग्रेस के विधायक हैं। कांग्रेस की पाकुड़, जामताड़ा, पोड़ैयाहाट, महागामा, जरमुंडी, बरही, बेरमो, झरिया, बड़कागांव, मांडू, मांडर, खिजरी, जमशेदपुर पश्चिमी, जगरनाथपुर, कोलेबिरा, सिमडेगा, मनिका और लोहरदगा विधानसभा सीट पर दोबारा जीतने की चुनौती है। यह तभी मुमकिन है, जब कांग्रेस अन्य राज्यों में सैर-सपाटा बंद कर झारखंड में अपने प्रदेश अध्यक्ष केशव महतो कमलेश के साथ चुनावी मैदान में कंधे से कंधा मिला कर संगठित तरीके से जनता के बीच में जाये।

 

फंस सकती हैं कांग्रेस की कई सीटें
वैसे तो कांग्रेस ‘विनिंग आॅल सीटिंग सीट’ की बात कर रही है, लेकिन अगर 2019 के विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करें तो कई सीट फंसती नजर आ रही है। वहां पर कांग्रेस को बहुत कम अंतर से जीत मिली थी।

• विधायक दल के नेता रामेश्वर उरांव के लिए बड़ी चुनौती
इसमें पहला नाम राज्य के वित्त मंत्री और कांग्रेस विधायक दल के नेता रामेश्वर उरांव का है, जिनकी विधानसभा सीट लोहरदगा पर कड़ा मुकाबला है। वैसे तो रामेश्वर उरांव तपे-तपाये नेता हैं, लेकिन लोहरदगा में जिस तरह से गुटबाजी हावी है और वहां विधायक और सांसद समर्थकों के बीच जिस तरह म्यान खींची रहती है, उससे साफ दिख रहा है कि अगर वहां कांग्रेस ने संगठित तरीके से चुनावी मैदान नहीं संभाला, आपस की दूरियां नहीं मिटीं, तो चुनाव बहुत फाइटवाला होगा।
2019 में आजसू से गठबंधन न हो पाने का नुकसान भाजपा को उठाना पड़ा था। तब आजसू की ओर से नीरू शांति भगत 39916 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रही थीं और भाजपा प्रत्याशी सुखदेव भगत 44230 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे थे। वहीं कांग्रेस प्रत्याशी रामेश्वर उरांव 74380 वोट पाकर 30150 वोटों से विजयी हुए थे। साफ है कि भाजपा-आजसू के बीच वोटों के जबरदस्त बंटवारे के कारण कांग्रेस की जीत आसान हो गयी थी। इस बार आजसू भाजपा के साथ है, जबकि बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो का भी भाजपा में विलय हो चुका है।

पूर्व कृषि मंत्री बादल को भी करना पड़ेगा संकट का सामना
झारखंड में 2019 के मुकाबले 2024 की बदली राजनीतिक परिस्थितियों में जरमुंडी विधानसभा सीट भी पर भी कांग्रेस फंसती नजर आ रही है।
2019 के विधानसभा चुनाव के दौरान जेएमएम, कांग्रेस और आरजेडी के मजबूत महागठबंधन के बावजूद बादल पत्रलेख महज 3099 वोटों से जीत हासिल कर पाये थे। तब भाजपा या कहें एनडीए बिखरा हुआ था। ऐसे में पूर्व कृषि मंत्री बादल पत्रलेख के लिए इस बार विजय रथ पर सवार होना आसान नहीं लग रहा है, क्योंकि 2019 के चुनाव में बादल पत्रलेख को जरमुंडी विधानसभा सीट से 52507 वोट मिले थे और भाजपा के देवेंद्र कुंवर को 49408 वोट मिले थे। यहां गौर करनेवाली बात यह है कि उस समय तत्कालीन झारखंड विकास मोर्चा भी मैदान में था और उसके उम्मीदवार संजय कुमार को 9242 वोट मिले थे। आज की तारीख में झारखंड विकास मोर्चा का भारतीय जनता पार्टी में विलय हो चुका है और बाबूलाल मरांडी प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष हैं। आजसू भी भाजपा के साथ है, ऐसे में जरमुंडी विधानसभा सीट से बादल पत्रलेख की जीत इस बार आसान नहीं दिख रही है।

अंबा प्रसाद को देनी होगी अग्निपरीक्षा
बड़कागांव विधानसभा के इतिहास पर नजर डालें तो यह सीट कांग्रेस की सुरक्षित विधानसभा सीटों में से एक है, क्योंकि पिछले तीन विधानसभा चुनाव/उपचुनाव में एक ही परिवार ने जीत दर्ज की है। बड़कागांव विधानसभा सीट पर पहले योगेंद्र साव, फिर निर्मला देवी और फिर अंबा प्रसाद ने कांग्रेस का परचम लहराया है।
हालांकि, 2019 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर गौर करें तो यह साफ हो जाता है कि भाजपा और आजसू के बीच गठबंधन ना होने के कारण अंबा प्रसाद की जीत आसान हो गयी थी।
2019 में अंबा प्रसाद ने 98862 वोट हासिल किये थे और आजसू पार्टी के उम्मीदवार रोशनलाल चौधरी 67348 वोट और भाजपा के लोकनाथ महतो को 31761 और जेवीएम उम्मीदवार दुर्गाचरण प्रसाद को 3347 वोट मिले थे।
इससे साफ है कि 31514 वोटों से जीत हासिल करने वाली अंबा को अब भाजपा-आजसू की जोड़ी का सामना करना पड़ेगा, जो आसान नहीं होगा।

जगन्नाथपुर सीट पर मुश्किल में कांग्रेस
2019 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी सिंहभूम की जगन्नाथथपुर विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। उस समय कांग्रेस सांसद गीता कोड़ा और पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के कांग्रेस में होने के साथ-साथ भाजपा, आजसू-झाविमो प्रत्याशियों के बीच वोटों के बंटवारे का लाभ कांग्रेस को मिला था। तब कांग्रेस प्रत्याशी सोनाराम सिंकू ने 32499 वोट पाकर झाविमो के मंगल सिंह बोबोंगा को 11606 वोटों से हराया था। तब मंगल सिंह बोबोंगा को 20893 वोट मिले थे, जबकि भाजपा प्रत्याशी सुधीर कुमार सुंडी को 16450 और आजसू प्रत्याशी मंगल सिंह सुरेन को 14222 वोट मिले थे। आंकड़े बताते हैं कि वोटों के बंटवारे के कारण कांग्रेस प्रत्याशी की जीत हुई थी। फिलहाल मधु कोड़ा और गीता कोड़ा भाजपा में हैं, आजसू एनडीए का हिस्सा है और झाविमो का भाजपा में विलय हो चुका है।

खिजरी सीट बन सकती है कांग्रेस के लिए चुनौती
2019 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से खिजरी सीट छीन ली थी, जिसका मुख्य कारण भाजपा और आजसू के बीच गठबंधन न हो पाना और बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो का भी मैदान में उतरना था। उस समय भाजपा के मौजूदा विधायक रामकुमार पाहन को कांग्रेस उम्मीदवार राजेश कच्छप के हाथों 5469 वोटों से हार का सामना करना पड़ा था। तब राजेश कच्छप को 83829 वोट मिले थे, जबकि रामकुमार पाहन को 78360 वोट मिले थे और आजसू उम्मीदवार रामधन बेदिया को 29091 वोट मिले थे।
उस समय झाविमो उम्मीदवार अंतु तिर्की को भी छह हजार से अधिक वोट मिले थे। लेकिन इस बार 2024 में परिस्तिथियां अलग होंगी और कांग्रेस के लिए कड़ी चुनौती होगी।

बेहद कम वोटों से सिमडेगा जीती थी कांग्रेस ने
कांग्रेस की सीटिंग सीटों में सिमडेगा सीट भी ऐसी सीट है, जहां इस बार कांग्रेस की जीत आसान नहीं दिख रही है। 2019 के विधानसभा चुनाव में इस सीट से त्रिकोणीय मुकाबले में कांग्रेस उम्मीदवार भूषण बाड़ा महज 285 वोटों से जीत पाये थे। यहां भले ही आजसू नहीं थी, लेकिन तब जेवीएम का सिंबल मोहन बड़ाइक को दिया था और उन्हें 2137 वोट मिले थे। लेकिन अब जेवीएम के भाजपा में विलय के कारण यह अंतर पाटना कांग्रेस के लिए आसान नही होगा।

कांग्रेस को देनी होगी अग्निपरिक्षा
यह तो स्पष्ट है कि इस बार का विधानसभा चुनाव 2019 के मुकाबले बेहद रोचक होनेवाला है। झामुमो हो या भाजपा दोनों खुल कर चुनावी मैदान में उतर चुके हैं और इस बार की परिस्थितियां भी काफी बदल चुकी हैं और यह बदली हुई परिस्तिथि सत्ताधारी दलों के लिए कड़ी चुनौती पेश कर सकती है खासकर कांग्रेस के लिए । 2019 में जहां भाजपा और आजसू की राह अलग थी, इस बार वे दोनो साथ हैं और वहीं बाबूलाल जैसा बड़ा हथियार भी भाजपा के पास है। जाहिर है कि अगर कांग्रेस के तमाम नेता आपसी मतभेद भुला कर संगठित तरीके से चुनाव मैदान में नहीं उतरे, तो चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही होगा।

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