बिजली, सड़क, पानी, चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं आदिवासी
बरसात के दिनों में चार महीने टापू बन जाते हैं कई गांव, बच्चे स्कूल नहीं जा पाते
अनिल मिश्रा
खूंटी। अधिकारी चाहे आदिवासियों और आदिवासी बहुल गांवों के विकास के कितने ही दावे कर लें, पर गांवों की जमीनी सच्चाई इससे इतर नजर आती है। आजादी के 78 वर्षों के बाद भी सुदूर दुर्गम पर्वतीय इलाकों के गांवों की न तो तस्वीर बदली है और न ही गांव वांलों की तकदीर। खूंटी जिले के सैकड़ों गांव अधिकारियों के दावों की पोल खोल रहे हैं। आज भी ऐसे गांव हैं, जहां के लोग बिजली, सड़क, पानी, चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं। आदिवासियों और उनके गांवों के विकास के लिए हर साल करोड़ों रुपये बहाये जाते हैं, पर इसका कितना लाभ उन्हें मिल रहा है और गांव वालों का दर्द क्या है, इसे देखने और समझने वाला कोई नहीं है। उदाहरण के तौर पर हम तोरपा प्रखंड के एक पिछड़े गांव को ले सकते हैं। तोरपा प्रखंड के सबसे अंतिम छोर और पश्चिमी सिहंभूम की सीमा पर बसे हैं सींढीं टापू टोला और सींढीं गिरजाटोला। इन दोनों टोलों में लगभग दस परिवार रहते हैं। दोनों गांव दो तरफ से नदियों से तो दो ओर पहाड़ों से घिरे हैं। गांव में जाने के लिए कोई सड़क नहीं हैं। गांव तक पहुंचने के लिए पंगडंडी के सहारे पैदल पांव चलना पड़ता है। किसी के बीमार होने पर एंबुलेंस तक गांव में नहीं पहुंच पाती। गांव के लोग मरीज को खाट पर ढोकर तोरपा या खूंटी के अस्पताल तक ले जाते हैं। सालों भर दोनों टोलों के लोग आवागमन की समस्या से जूझते रहते हैं। लोग ऊंची-नीची पगडंडियों से होकर आना-जाना करते हैं। कारो व बनई नदी में पुल नहीं होने के कारण ग्रामीणों को काफी परेशानियो ंका सामना करना पड़ता है। पुल न होने का दर्द मरीजों के चेहरे और उनके स्वजनों पर तो नजर आता ही है, सबसे विकट समस्या गर्भवती महिलाओं को झेलनी पड़ती है। वाहनों के लिए रास्ता न होने के कारण उन्हें खाट पर लादकर अस्पताल पहुंचाया जाता है, जो कभी-कभी उनके लिए जानलेवा साबित होता है। अधिक परेशानी होने पर घर में ही महिला का प्रसव कराया जाता है।

बारिश में चार महीने बच्चे स्कूल नहीं जाते
नदियों पर पुल न होने का सबसे अधिक कष्ट छोटे-छोटे स्कूली बच्चों को होता है। बरसात के मौसम में चार महीने तक बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। बरसात में दोनों गांव चार महीनों तक टापू बना रहता है। चार महीने टापू के रूप में तब्दील होने के कारण ही संभवत: गांव का नामकरण सींढीं टापू टोला किया गया है। बरसात के दिनों में लोग गांव से बाहर नहीं निकल पाते हैं। बरसात के दिनों में नदियां अपने रौद्र रूप में रहती हैं, जिसे पार करना असंभव होता है। गांव के लोग बताते हैं कि हर साल बरसात के मौसम में यही स्थिति रहती है। पहले से ही पूरे बरसात के लिए गांव वाले राशन, पानी जमा करके रखते हैं, ताकि खाने-पीने की दिक्कत न हो। चावल, दाल, नमक, तेल, आलू, सोयाबीन बड़ी, साबुन, जरूरी दवा आदि का स्टॉक रख लेते हैं।

तीन दिन तक गांव नहीं लौट पाये थे तीन परिवार
एक सप्ताह पूर्व नदी में बाढ़ आ जाने के कारण टापू टोला के तीन परिवार के आठ लोग तीन दिनों तक गांव नही लौट पाये थे। इस गांव के लोगों का खेत नदी के पार में है। तीनों परिवार के लोग खेती करने सुबह में गये हुए थे। तभी मूसलाधार बारिश होने लगी। दोपहर बाद खेती-बारी का काम खत्म कर वापस गांव जाने के लिए निकले। तभी नदी का जलस्तर अचानक बढ़ गया। ग्रामीणों को लौटकर दूसरे गांव में शरण लेनी पड़ी थी।
सीढ़ीं गिरजाटोली और टापू टोली के लोग वर्षों से बनई और कारो नदी पर पुल बनाने की मांग करते आ रहे हैं, पर आजादी के 78 वर्ष बाद भी उनकी मांग पूरी नहीं हो सकी। पुल के लिए कई बार सरकारी अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों को ज्ञापन सौंपा गया, पर किसी ने इस ओर ध्यान नदीं दिया। अपनी उपेक्षा से गांव के लोग आहत हैं। ग्रामसभा में एक स्वर से अधिकारियों से बनई नदी में पुल बनवाने व गांव तक जाने के लिए सड़क बनवाने की मांग की गयी।

 

क्या कहते हैं ग्रामीण?
ग्रामीण आनंद मसीह बोदरा का कहना है कि ग्रामसभा में एक स्वर से अधिकारियों से बनई नदी पर पुल बनवाने व गांव तक जाने के लिए सड़क बनवाने की मांग की गयी। लेकिन अबतक कोई सुनवाई नहीं हुई। लोगों को सालों भर नदी पार करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बरसात में महिलाओं व बच्चों को ज्यादा परेशानी होती है। बीमार पड़ने पर भगवान भरोसे रहना पड़ता है। इस नदी पर पुल बनाना बहुत जरूरी है।
ग्रामीण जसुदा बोदरा ने कहा कि सदियों से उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं। गांव तक जाने के लिए न सड़क है और न पुल। बीमार होने पर एबुलेंस भी गांव तक नही पहुंच पाती है। पता नहीं सरकार कब हमारी सुधि लेगी।
पावल बरजो ने बताया कि टापू टोला गांव तक जाने के लिए बनई नदी तथा कारो नदी पार करना पड़ता है। दोनों नदियों पर पुल नहीं है। बरसात के दिनों में गांव में कैद होकर रहना पड़ता है। काफी परेशानी होती है।
बसंत गुडिया ने बताया कि यह समस्या कोई नई नहीं है। हर वर्ष बरसात में गांव टापू बन जाता है। परेशानी तब और होती है जब कोई बीमार पड़ जाये। एहतियात के तौर पर सामान्य दवाइयां घर में रख लेते हैं। बाकि भगवान भरोसे छोड़ देते हैं।

सलीम बोदरा ने कहा कि गांव तक जाने के लिए न सड़क है न पुल। पगडंडियों के सहारे आने-जाने में काफी परेशानी होती है। बरसात के दिनों में तो साइकिल चलाना भी मुश्किल होता है। सड़क और पुल बनना बहुत जरूरी है।
ग्रामीण असरिता बोदरा ने बताया कि बरसात के दिनों में चार महीना बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। बच्चे गांव में खेलकूद करके समय बिताते हैं। बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है। सरकार को जल्द इस ओर ध्यान देना चाहिए।

बीडीओ का समस्या के समाधान का आश्वासन
दोनों गांवों की इस समस्या के संबंध में पूछे जाने पर तोरपा के प्रखंड विकास पदाधिकारी नवीन चंद्र झा ने कहा कि यह उनके संज्ञान में है। इस संबंध में विभागीय अधिकारियों से पत्राचार किया गया है। समस्या के जल्द समाधान का प्रयास किया जा रहा है।

 

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