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    Home»लाइफस्टाइल»ब्लॉग»शिक्षा के सत्तर साल
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    शिक्षा के सत्तर साल

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीOctober 21, 2016No Comments6 Mins Read
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    रमेश दवे : लार्ड मैकाले को कोसते-कोसते आजादी के सत्तर साल गुजर गये, मगर उसके प्रारूप का आज भी असर यह है कि देश के हर शिक्षा मंच से लाखों प्रारूपों का समय नष्ट कर दिया गया, मगर मैकाले का प्रारूप हर समय हम अपनी छाती से चिपकाए फिरते हैं। मैकाले के पहले मुनरो और उसके बाद आॅकलैंड के प्ररूप भी आए, लेकिन उन पर बहस इसलिए नहीं होती कि वे शिक्षा के बजट से ज्यादा जुड़े थे। जर्मनी ने स्कूली शिक्षा की स्थापना में सबसे पहले पहल की और उसका मॉडल ही स्कूली उपनिवेश की तरह अंगरेजों ने भारत में फैला दिया। डॉ. बेल नामक एक अंगरेज ने तत्कालीन मद्रास में भारत का स्वदेशी स्कूल मॉडल रचा था और मॉनीटरियल प्रणाली का पहला नवाचार कर यह बताया था कि भारत की हर चार सौ आबादी के गांव में एक-एक स्वदेशी शिक्षालय है, जिसे समाज चलाता है। इसी स्वदेशी स्कूल की ग्राम-व्यवस्था को गांधी ने गोल्डन ट्री या ब्यूटीफुल ट्री का नाम दिया था,

    जिसका संदर्भ देकर धर्मपाल ने साक्ष्य सहित अपनी पुस्तक ह्यद ब्यूटीफुल ट्री लिखी। अब सवाल है कि क्या सत्तर साल तक मैकाले या अंगरेजों की औपनिवेशिक शिक्षा को गाली देते-देते हम कोई ऐसा परिवर्तन ला सके, जिससे शिक्षा उपनिवेश-मुक्त होती, स्वदेशी होती और एक प्रकार लोक-क्रांति से जनता में शिक्षा का शंखनाद कर देती? क्या हर एक किलोमीटर पर प्राथमिक, तीन या पांच किलोमीटर पर माध्यमिक और पांच हजार की आबादी पर हाईस्कूल या उच्च माध्यमिक स्कूल देने से, हर जिला, तहसील में कॉलेज सरकारी या प्राइवेट स्थापित करने से और तकनीकी, चिकित्सा, प्रबंधन आदि की शिक्षा के राजसी शिक्षा-महल खड़े कर देने से सवा सौ करोड़ जनता की कोई शैक्षिक चेतना जाग्रत हुई। साक्षरता के तमाम अभियान सुविधाभोगी एनजीओ और तंत्र के वायुयान में उड़ कर शिक्षा की स्वदेशी जमीन का स्पर्श ही भूल गये।

    हमारी शिक्षा के तमाम आयोग वर्ष 1948 से लेकर आज तक और शिक्षा की नीतियां भी संसद से निकलकर सड़क पर औंधे मुंह गिर पड़ीं। शिक्षा बेहोश है और सत्ताओं के पास होश की दवा नहीं है। शिक्षा में अठारहवीं सदी से आज तक इतिहास पढ़ाते-पढ़ाते इतिहास स्वयं शमिंर्दा होने लगा। अंगुलियों पर गिने जाने वाले कुछ नाम हमारे इतिहास में तस्वीर की तरह चिपक तो गये, मगर जिस मांटेसरी ने बाल-शिक्षा का मनोरम संसार रचा था, उसे हमने आज अमीर बच्चों के प्ले-स्कूल और नर्सरी, केजी वन, केजी टू आदि बना दिया। जिन गिजुभाई वधेका ने गुजरात के भावनगर में देश का पहला बालमंदिर दक्षिणामूर्ति में खोला था, उनकी प्रणाली ने शिक्षा के सरकारी तंत्र को चुनौती देकर एक सरकारी स्कूल का कायाकल्प कर दिया था, उन्हें न तो हम आगे ले जा सके, न याद रख सके।

    शिक्षा आयोगों की रिपोर्टों के किसी भी पृष्ठ पर गिजुभाई का कहीं कोई नामोनिशान नहीं है, जबकि दुनिया भर के स्कूलों और प्रणालियों का इस तरह उल्लेख है जैसे विदेशी शिक्षा की विदेश में सफलता को ही हम भारत की स्वदेशी शिक्षा की सफलता मान बैठे हों। विदेशी उपनिवेश की जगह स्वदेशी उपनिवेश ब्लॉक से लेकर राज्य स्तर तक छा गये। परीक्षा के बोर्ड बन गए, विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों के जाल बिछा दिये गये, निजीकरण के व्यापारी पैदा हो गये और गरीब, गांव और वंचितों की शिक्षा सरकारी खंडहरों, दिहाड़ी मजदूरों जैसे शिक्षकों और तंत्र की तानाशाही के हवाले कर दी गयी।

    जिस किसी प्रशासक, कलेक्टर, संचालक, नेता ने शिक्षा के प्रति संवेदनशीलता दिखायी, जोश से काम किया, परिवर्तन की भूमिका रचने की कोशिश की वह सत्ता के समक्ष या राजनीति के समक्ष टिक न सका। शिक्षा चाहे स्कूली हो या उच्च, दोनों ने देश को क्या दिया? कितनी भी खराब कही जाये, मगर इस उपनिवेशवादी मॉडल में कहीं अपराध करने, बलात्कार, लूटपाट, हत्या, बेईमानी और भ्रष्टाचार करने, सरकारी वस्तुओं को चुराने या नष्ट करने का कोई पाठ्यक्रम नहीं है, फिर पढ़े-लिखे, उच्च शिक्षा प्राप्त छात्र-छात्राएं, किशोर और युवा इन अपराधों को कैसे सीख गये? शिक्षा से वेदना तो पैदा हुई, संवेदना पैदा क्यों नहीं हुई? शिक्षा के प्रति सच्ची भावना और संभावना सत्ता से लेकर समाज तक क्यों नहीं हम इन सत्तर सालों में रच पाए? क्या बांध बांधना, कारखाने लगाना, सड़क बनाना, रेल-मोटर चलाना ही विकास के प्रतीक हैं; स्कूल और अस्पताल नहीं? क्या हमारे गांव और गरीब केवल मजदूर-उत्पादन और पूंजीपतियों और सामंतों के बंधुआ पैदा करने के लिए हैं। जब तक गांव और गरीब का स्वाभिमान नहीं जागता, उसके श्रम के प्रति सम्मान नहीं जागता, उसे जुल्म और ज्यादती, पुलिस, दफ्तर और नकली एनजीओ के डरावने शोषण से मुक्त नहीं किया जाता, जब तक एक किसान को अपनी आवाज तंत्र के कानों तक पहुंचाने की सरल-सहज प्रक्रिया नहीं मिलती।
    जब तक न्याय त्वरित नहीं होता, तब तक स्वदेशी हो या विदेशी, उपनिवेशवादी हो या लोकवादी, कोई भी शिक्षा-मॉडल न सफल हो सकता है, न परिवर्तन ला सकता है। शिक्षा हो या चिकित्सा, वह शोध और विचार के आधार पर समन्वय बनाता है। दुनिया में जहां कहीं भी अच्छा है, प्रभावशाली और परिवर्तनकारी है, उसे अपनाने से गुलाम नहीं होते, बल्कि गुलाम तो होते हैं अपनी ही जड़ताओं, अंधविश्वासों और संकीर्णताओं से चिपके रहने से। शिक्षा ने आज स्कूल से लेकर उच्च और तकनीकी शिक्षा तक संवाद तो रचा है, सेमिनारों में विचार विनिमय रचा है, स्वस्थ आलोचना का अधिकार रचा है, लेकिन निंदा या भर्त्सना का उपशब्दी व्यवहार शिक्षा का संस्कार नहीं है। गुलाम क्या होता है, इसके लिए एशिया-अफ्रीका ने जो भोगा है, उसका इतिहास जानना होगा। हमारे अधिकतर स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी अपने कपड़ों से स्वदेशी या विदेशी नहीं माने गए।

    उन्होंने अंगरेजी पढ़ कर भी जो देशभक्ति निभाई वह हम आज अपनी भाषाओं के जरिए लड़ तो रहे हैं, मगर देशभक्ति का वह रूप कहां रच पा रहे हैं जो हमें अपने पूर्वजों की याद दिला दे? अब शिक्षा तंत्र को बदलना मुश्किल है, क्योंकि हम लोकतंत्र में हैं। अब स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, संस्थान आदि न मिटाए जा सकते हैं न उनका सर्वमान्य विकल्प हमारे पास है, क्योंकि हम जनतंत्र में हैं। अब जनता के बजाय सत्ता जो चाहती है, वही शिक्षा होती है, क्योंकि हम सत्तातंत्र में हैं। अब वही नीति होगी, जो सत्ता लागू करेगी क्योंकि हम राजनीति में हैं। इसलिए जो व्यवस्था है उसे ही ठीक करना होगा, प्रभावी बनाना होगा, उसी से स्वदेशी मानस रचना होगा। स्वदेशी केवल नारा नहीं, कर्म बने, स्वदेशी राजनीति नहीं, आस्था बने और सत्तर साल की शिक्षा पर हंसने या रोने के बजाए हमें गंभीर होकर सोचना होगा कि हम क्या कर सकते हैं, कैसे कर सकते हैं?

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