रांची। बकोरिया कांड पर हाइकोर्ट का फैसला आने के बाद अब पुलिस एक बार फिर कठघरे में दिखायी पड़ रही है। सीबीआइ जांच के आदेश के बाद अब यह स्पष्ट हो गया है कि कांड की जांच सही दिशा में नहीं चल रही थी और लीपापोती की कोशिशें की जा रही थीं। आठ जून 2015 की रात पलामू के सतबरवा थाना क्षेत्र के बकोरिया में हुई तथाकथित मुठभेड़ में 12 लोगों के मारे जाने की घटना की सीआइडी जांच पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी सवाल खड़ा किया था। डीजीपी को पत्र लिख कर अनुसंधानकर्ता और सुपरविजन करनेवाले पुलिस अफसर के खिलाफ कार्रवाई करने की बात कही थी। इतना ही नहीं, घटना के वक्त जो पुलिस अधिकारी पलामू और सतबरवा में पदस्थापित थे, उनका भी बयान दर्ज नहीं किया गया था। उल्लेखनीय है कि कथित मुठभेड़ के तुरंत बाद कई अफसरों का ट्रांसफर कर दिया गया था। सूत्रों के मुताबिक पुलिस महकमे को यह आशंका थी कि अगर वे अफसर वहां पदस्थापित रहे, तो मुठभेड़ का सच तुरंत सामने आ जायेगा।

थानेदार ने मुठभेड़ से किया था इनकार
बकोरिया कथित मुठभेड़ की जांच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी की थी। जांच टीम को पता चला था कि शवों को 407 वाहन से पलामू सदर अस्पताल स्थित पोस्टमार्टम हाउस लाया गया था। पोस्टमार्टम हाउस में स्कॉर्पियो की सीट पर रखी तौलिया को 407 के डाला में जमे खून और पानी से भिंगोते हुए देखा गया, फिर उस तौलिये को खून लगा दिखा कर जब्ती सूची में दर्ज किया गया। उसी रात डीजीपी के फोन के बाद एसपी ने थानेदार से पूछा, तो थानेदार ने मुठभेड़ से इनकार किया था।

एफआइआर में 117 खोखा की बात, जब्त एक भी नहीं

प्राथमिकी में घटनास्थल से 117 खोखा मिलने की बात कही गयी है, लेकिन जब्ती सूची में घटनास्थल से खोखा मिलने का जिक्र नहीं है। इतना ही नहीं पहले इस मामले की जांच पलामू पुलिस ने की। इसके बाद इसे सीआइडी को सौंप दिया गया। सीआइडी ने भी उन पुलिस अफसरों के मोबाइल फोन का सीडीआर और लोकेशन नहीं लिया, जिन्होंने मुठभेड़ में शामिल होने का दावा किया था। विशेषज्ञ बताते हैं कि अफसरों के मोबाइल का लोकेशन निकाल लिया गया होता, तो सच्चाई सामने आ जाती।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version