हम बात कर रहे हैं माइनस झाविमो विपक्षी महागठबंधन के गठन की और बाबूलाल मरांडी द्वारा हेमंत सोरेन के नेतृत्व को नकारे जाने की। विधानसभा चुनाव झारखंड में सिर पर हैं। अब सभी पार्टियां रैली और जुलूस से ऊपर उठ कर चुनावी रणनीतियों को अंतिम रूप देने में जुटी हैं। इसी कड़ी में विपक्ष के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती महागठबंधन को अंतिम रूप देना है। इसमें सबसे बड़ी पेंच सीट शेयरिंग की ही है। एक ओर हेमंत सोरेन अपने नेतृत्व और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने की दुहाई दे रहे हैं, तो वहीं कांग्रेस सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी होने का हवाला दे रही है। इन सबके बीच छोटे दल जो ताल ठोक रहे हैं, उसमें झारखंड विकास मोर्चा यानी कि बाबूलाल मरांडी खुद को पचा नहीं पा रहे। शायद यही कारण है कि उन्होंने महागठबंधन में शामिल होने को लेकर कभी कुछ स्पष्ट नहीं कहा। कहीं न कहीं उनके मन में हेमंत के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करने और झाविमो के तमाम नेताओं तथा दावेदारों को संतुष्ट करने की विवशता भी रही है। शायद विपक्षी दल भी झाविमो की भाषा समझ रहे हैं और यही कारण है कि उन्होंने अब माइनस झाविमो महागठबंधन को अंतिम रूप देने का प्रयास शुरू कर दिया है। कांग्रेस प्रभारी आरपीएन सिंह के रांची पहुंचने पर बुधवार को आया आलामगीर आलम का बयान भी इसकी पुष्टि करता है। कांग्रेस नेता आलमगीर आलम ने कहा कि महागठबंधन में जेवीएम के लिए जगह है, लेकिन ये तय बाबूलाल मरांडी को करना है कि वे महागठबंधन में रहना चाहते हैं या नहीं। इन सबसे यह बड़ी तेजी से स्पष्ट हो रहा है कि बाबूलाल मरांडी को हेमंत सोरेन यानी झामुमो का नेतृत्व स्वीकार नहीं है, क्योंकि यहीं पर वह अपने राजनीतिक आकंक्षाओं की बलि नहीं देना चाहते। पेश है दीपेश कुमार की रिपोर्ट।

बदलते राजनीतिक घटनाक्रम के बीच यूपीए महागठबंधन में झाविमो के शामिल होने पर असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। अब जो यूपीए में महागठबंधन का खाका तय हो रहा है, शायद उसमें झाविमो नहीं है। हाल के दिनों में झामुमो और झाविमो के बीच दूरियां बढ़ी हैं। झामुमो भी गठबंधन में झाविमो को रखने का मन पूरी तरह से नहीं बना पाया है। हालांकि, कांग्रेस महागठबंधन में झाविमो को शामिल करने के पक्ष में है। झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी ने हाल के दिनों में गठबंधन को लेकर कोई पहल नहीं की है। वह पहले कांग्रेस और झामुमो के बीच मामला तय होने तक इंतजार की मुद्रा में दिख रहे हैं।

चुनाव बाद नेतृत्व पर फैसला चाहता है झाविमो
झारखंड में माइनस जेवीएम महागठबंधन आकार ले रहा है। सूत्रों के मुताबिक सीट शेयरिंग को लेकर झामुमो-44, कांग्रेस-27, आरजेडी-5 और वाम दल-5 के फॉर्मूले पर बातचीत हो चुकी है। रांची पहुंचे प्रदेश कांग्रेस प्रभारी आरपीएन सिंह ने पार्टी नेताओं के साथ बुधवार की सुबह बैठक की। इसमें प्रदेश अध्यक्ष रामेश्वर उरांव और विधायक दल के नेता आलमगीर आलम भी मौजूद रहे। इस दौरान सहयोगियों के साथ सीटों के तालमेल को लेकर मंथन हुआ। इस सिलसिले में जल्द ही हेमंत सोरेन के साथ आरपीएन सिंह की बैठक होने वाली है। कांग्रेस नेता आलमगीर आलम ने कहा कि महागठबंधन के लिए लोकसभा चुनाव के समय हुए समझौते पर कांग्रेस अडिग है। सीट शेयरिंग का खाका भी तैयार हो गया है। जल्द ही इसकी घोषणा की जायेगी। बतौर आलमगीर महागठबंधन में जेवीएम के लिए जगह है, लेकिन ये तय बाबूलाल मरांडी को करना है कि वे महागठबंधन में रहना चाहते हैं या नहीं। इस बार वामदलों को भी महागठबंधन में शामिल किया जायेगा। दरअसल लोकसभा चुनाव के दौरान महागठबंधन में ये तय हुआ था कि संसदीय चुनाव में कांग्रेस बड़े भाई की भूमिका में रहेगी, जबकि विधानसभा चुनाव में झामुमो। विधानसभा चुनाव हेमंत सोरेन के नेतृत्व में लड़ा जायेगा, लेकिन अब झाविमो को हेमंत सोरेन के नेतृत्व पर आपत्ति है। झाविमो चुनाव बाद नेतृत्व पर फैसला चाहता है। इस सबके बीच झाविमो ने अकेले मैदान में उतरने की तैयारी भी शुरू कर दी है। बाबूलाल मरांडी ने साफ किया है कि कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत कर आगे की रणनीति तय की जायेगी।

अपनी विशेष रणनीति पर चल रहा झाविमो
झाविमो की रणनीति भाजपा, झामुमो और कांग्रेस जैसे दलों से बागी होनेवाले दावेदार को पार्टी में जगह देने की है। झाविमो प्रमुख की नजर पलामू में गढ़वा, भवनाथपुर, विश्रामपुर, छत्तरपुर के अलावा सिसई, गुमला, सिमडेगा, हटिया, खूंटी, कोडरमा, हजारीबाग, मांडू, धनबाद, दुमका, राजमहल, लिट्टीपाड़ा, जामताड़ा, मधुपुर जैसी सीटों पर है। मरांडी को भरोसा है कि इन सीटों पर कांग्रेस और झामुमो के बीच बात बनने के बाद बागी दावेदार झाविमो में ही ठौर तलाशेंगे। वहीं, भाजपा में दूसरे दलों से आनेवाले संभावित प्रत्याशियों की वजह से विक्षुब्धों की लंबी सूची तैयार हो रही है। इस सूची में कुछ बड़े चेहरे भी शामिल हैं। भाजपा के ऐसे बड़े चेहरों पर झािवमो की कड़ी नजर है। झाविमो को उम्मीद है कि गठबंधन के खेल में एसे विक्षुब्ध झाविमो के पाले में आ सकते हैं।

गठबंधन में ज्यादा सीटों की नहीं है उम्मीद
यूपीए महागठबंधन में झाविमो को 12 से अधिक सीटें हाथ लगने की उम्मीद नहीं है। बाबूलाल इतनी कम सीटों पर शायद ही मानें। वह मान रहे हैं कि गठबंधन में लड़ कर भी झाविमो को अधिक सीटें नहीं मिलेंगी। उतनी सीटें पार्टी अकेले लड़ कर भी ला सकती है। झामुमो ने बाबूलाल का रास्ता काटने के लिए यूपीए महागठबंधन में राजद एवं वाम दल का रास्ता खोल दिया है। हेमंत सोरेन का मानना है कि राजद और वाम दलों को 10 सीटें देकर गठबंधन का स्वरूप बड़ा किया जा सकता है। इस वजह से झामुमो बाबूलाल मरांडी को गठबंधन से दूर ही रखना चाहता है। झामुमो की राजनीति आदिवासी बहुल क्षेत्र में कांग्रेस या झाविमो को पैठ नहीं बनाने देने की है। ऐसे भी झामुमो को लगता है कि बाबूलाल का कद हेमंत सोरेन से छोटा नहीं है। ऐसे में महागठबंधन में बाबूलाल के होने से हेमंत के नेतृत्व को लेकर भी चुनौती पेश हो सकती है।

20 सीटों पर निगाह गड़ाये हैं बाबूलाल
बाबूलाल मरांडी की सोच झामुमो से ज्यादा अलग नहीं है। बाबूलाल मरांडी सीटों का आंकलन भी कर चुके हैं। 2014 के विधानसभा चुनाव में उन्हें कुल आठ सीटें मिली थीं। जबकि पांच सीटों पर उनके प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे थे। जिन सीटों पर झाविमो दूसरे नबंर पर रहा था, उनमें चतरा, जमुअ, धनवार, महागामा और शिकारीपाड़ा शामिल हैं। बाबूलाल जानते हैं कि इन सीटों पर थोड़ी मेहनत कर दें, तो सीट निकाल सकते हैं। पिछले चुनाव में झाविमो को मिलनेवाले वोटों का प्रतिशत 10 था। इस प्रकार बाबूलाल यह जानते हैं कि 14 से 15 सीटें वह अकेले लड़ कर भी निकाल सकते हैं, जबकि महागठबंधन में तो इतनी सीटें भी शेयरिंग में नहीं मिलेंगी। इतना ही नहीं, यदि झाविमो ने यदि 40 से 50 सीटों पर भी अपने प्रत्याशी दिये, तो पूरे चुनाव का समीकरण तो प्रभावित करेंगे ही। क्योंकि जिन सीटों पर वे जीत सकते हैं, वो तो हैं ही, पर जिन पर वह विफल होंगे, वहां भी 10 से 15 हजार वोट ले ही आयेंगे। और 10-15 वोटों का यह अंतर दूसरे दलों पर भारी जरूर पड़ सकता है। इससे झाविमो को एक और यह फायदा होने जा रहा है कि पार्टी की मान्यता के लिए जरूरी वोटों का प्रतिशत भी वह आसानी से हासिल कर लेंगे, तो महागठबंधन में रहने पर परेशानी का कारण बन सकता है।

एडजस्ट करने के मूड में नहीं झाविमो
महागठबंधन में शमिल दलों को सीटों के मामले में एडजस्टमेंट करनी पड़ सकती है। खास तौर पर झाविमो यदि महागठबंधन में शामिल रहा तो, कुछ ज्यादा ही। इधर, झाविमो को भी एडजस्ट करने के लिए भी कई सीटें छोड़नी होंगी। पर झाविमो अब एडजस्ट करने के मूड में नहीं है। इसके कई कारण हैं।
झाविमो के आठ में से सात विधायक दो चरणों में भाजपा में चले गये हैं, लेकिन दावा उनका उन सभी सीटों पर है, जहां पिछले चुनाव में वे जीते थे। जिन पांच सीटों पर झाविमो दूसरे नंबर पर रहा था, वहां भी उनका दावा कमजोर नहीं है। ऐसे में इस बात का आकलन किया गया कि झाविमो का कितनी सीटों पर दावा बनता है और इसी हिसाब से उनके लिए सीटें छोड़ी जायेंगी। 2009 चुनाव की तुलना में झामुमो और झाविमो ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए 2014 में अधिक वोट प्रतिशत हासिल किया था।

चुनाव बाद अपनी शर्तों पर समझौते का विकल्प खुला
देखा जाये, तो बाबूलाल मरांडी के दोनों हाथों में लड्डू है। महागठबंधन में रहे और यूपीए की सरकार बनी, तो नेतृत्व को तो वह चुनौती देंगे ही। पर यदि वह महागठबंधन से बाहर रह कर अकेले चुनाव लड़ते हैं, तो उनके लिए यह ज्यादा फायदेमंद सौदा हो सकता है। चुनाव में यदि भाजपा जीत के लिए निर्धारित सीटें नहीं ला पाती है और विपक्ष यानी महागठबंधन को सरकार बनाने का अवसर मिला, तो ऐसे में बाबूलाल अपनी शर्तों पर समझौता करने के लिए स्वतंत्र होंगे।
परिस्थितियां उनके अनुकूल होंगी और वह बेहतर स्थिति में रहेंगे। क्योंकि अंतत: विपक्ष का मुख्य उद्देश्य तो यही है कि भाजपा को हराना और अपनी सरकार बनाना। झाविमो महागठबंधन में रहा और सरकार उनकी बनी, तो अच्छा और यदि झाविमो महागठबंधन से बाहर रहा और भाजपा विरोधी सरकार बनीं, तो बहुत अच्छा। यानी कि दोनों हाथों में लड्डू।

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