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    Home»राज्य»उत्तर प्रदेश»मुलायम ने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया
    उत्तर प्रदेश

    मुलायम ने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया

    adminBy adminOctober 10, 2022Updated:October 14, 2022No Comments12 Mins Read
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    विशेष
    भारतीय राजनीति में सिद्धांतों के प्रति बेहद कठोर माने जानेवाले इटावा जिले के सैफई में जन्मे मुलायम सिंह यादव ने भले ही दुनिया को अलविदा कह दिया हो, लेकिन जब भी राजनीति की बात होगी, तो उनका नाम जरूर लिया जायेगा। शिक्षक और पहलवानी से लेकर राजनीति तक का सफर नेताजी का शानदार रहा। उनके विधायक से लेकर सीएम बनने तक के सफर के बारे में तो कई लोगों को मालूम ही है, लेकिन उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं की जानकारी लोगों को नहीं है। इटावा के मशहूर समाजवादी नेता अर्जुन सिंह भदौरिया कमांडर से समाजवाद का ककहरा सीख कर 1967 से लगातार आठ बार विधायक और सांसद के रूप में रक्षा मंत्री बन कर मुलायम ने राजनीति की उन तमाम ऊंचाइयां हासिल कीं, जिनका सपना एक आम राजनीतिक कार्यकर्ता देखता है। मुलायम की गिनती उन राजनेताओं में होती है, जिन्होंने सहकारिता की ताकत को पहचाना और उसे अपनी राजनीति से जोड़ा। जनता पार्टी का प्रयोग फेल होने के बाद मुलायम राजनीति के फलक पर बहुत तेजी से उभरे। इसकी वजह थी कि वह हमेशा जमीन से जुड़े रहे। हर कार्यकर्ता उनसे सीधे बात करता था और वह सभी की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। इसलिए यूपी से लेकर दिल्ली तक की राजनीति में मुलायम ने ढेरों दोस्त बनाये, लेकिन उनका दुश्मन शायद ही कोई बना रहा। अपने राजनीतिक विरोधियों को भी वह बहुत जल्दी अपना बना लेते थे। लेकिन अफसोस इसी बात का है कि उनके अपने ही घर में मुलायम को वह जगह नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे। भारत की राजनीति में सबसे बड़ा कुनबा लेकर आगे बढ़ने-बढ़ाने का आरोप लगने के बावजूद मुलायम कभी विचलित नहीं हुए। उनकी शख्सियत को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने के लिए विवादित भी माना गया, लेकिन मुलायम ने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। नेताजी के नाम से लोकप्रिय मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन के कुछ पहलुओं पर रोशनी डाल रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव की जवानी के दिनों में अगर उनका हाथ अपने प्रतिद्वंद्वी की कमर तक पहुंच जाता था, तो चाहे वह कितना ही लंबा या तगड़ा हो, उसकी मजाल नहीं थी कि वह अपने-आपको उनकी गिरफ्त से छुड़ा ले। आज भी उनके गांव के लोग उनके ‘चरखा दांव’ को नहीं भूले हैं, जब वह बिना अपने हाथों का इस्तेमाल किये हुए पहलवान को चारों खाने चित कर देते थे। लोग बताते हैं कि अखाड़े में जब मुलायम की कुश्ती अपने अंतिम चरण में होती थी, तो लोग अपनी आंखें बंद कर लिया करते थे। उनकी आंखें तभी खुलती थीं, जब भीड़ में से आवाज आती थी, ‘हो गयी, हो गयी’ और लोगों को लग जाता था कि मुलायम ने सामने के पहलवान को पटक दिया है। स्कूल का अध्यापक बनने के बाद मुलायम ने पहलवानी पूरी तरह से छोड़ दी थी, लेकिन अपने जीवन के आखिरी समय तक वह अपने गांव सैफई में दंगलों का आयोजन कराते रहे।
    उत्तरप्रदेश पर नजर रखनेवाले कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कुश्ती के इस गुर की वजह से ही मुलायम राजनीति के अखाड़े में भी उतने ही सफल रहे, जबकि उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी। मुलायम सिंह की प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना था प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक नेता नाथू सिंह ने, जिन्होंने 1967 के चुनाव में जसवंतनगर विधानसभा सीट का उन्हें टिकट दिलवाया था। उस समय मुलायम की उम्र सिर्फ़ 28 साल थी और वह प्रदेश के इतिहास में सबसे कम उम्र के विधायक बने थे। उन्होंने विधायक बनने के बाद अपनी एमए की पढ़ाई पूरी की थी। जब 1977 में उत्तरप्रदेश में रामनरेश यादव के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो मुलायम सिंह को सहकारिता मंत्री बनाया गया। उस समय उनकी उम्र थी सिर्फ 38 साल।

    मुख्यमंत्री की दौड़ में अजीत सिंह को हराया
    चौधरी चरण सिंह मुलायम सिंह को अपना राजनीतिक वारिस और अपने बेटे अजीत सिंह को अपना कानूनी वारिस कहा करते थे। लेकिन जब अपने पिता के गंभीर रूप से बीमार होने के बाद अजीत सिंह अमेरिका से वापस भारत आये, तो उनके समर्थकों ने उन पर जोर डाला कि वह पार्टी के अध्यक्ष बन जायें। इसके बाद मुलायम सिंह और अजीत सिंह में प्रतिद्वंद्विता बढ़ी, लेकिन उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का मौका मुलायम सिंह को मिला। 5 दिसंबर, 1989 को उन्हें लखनऊ के केडी सिंह बाबू स्टेडियम में मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी और मुलायम ने रुंधे हुए गले से कहा था, लोहिया का गरीब के बेटे को मुख्यमंत्री बनाने का पुराना सपना साकार हो गया है। मुख्यमंत्री बनते ही मुलायम सिंह ने उत्तरप्रदेश में तेजी से उभर रही भारतीय जनता पार्टी का मजबूती से सामना करने का फैसला किया। उस जमाने में उनके कहे गये एक वाक्य बाबरी मस्जिद पर एक परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा, ने उन्हें मुसलमानों के बहुत करीब ला दिया। यही नहीं, जब 2 नवंबर, 1990 को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद की तरफ बढ़ने की कोशिश की, तो उन पर पहले लाठीचार्ज हुआ, फिर गोलियां चलीं, जिसमें दर्जनों कारसेवक मारे गये। इस घटना के बाद से ही भाजपा के समर्थक मुलायम सिंह यादव को ‘मौलाना मुलायम’ कह कर पुकारने लगे। इस एक घटना का कलंक मुलायम जीवन भर झेलते रहे, लेकिन कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। 4 अक्तूबर, 1992 को उन्होंने समाजवादी पार्टी की स्थापना की। उन्हें लगा कि वह अकेले भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते हुए ग्राफ को नहीं रोक पायेंगे। इसलिए उन्होंने कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया। कांशीराम से उनकी मुलाकात दिल्ली के अशोक होटल में उद्योगपति जयंत मल्होत्रा ने करवायी थी। 1993 में हुए उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 260 में से 109 और बहुजन समाज पार्टी को 163 में से 67 सीटें मिली थीं। भारतीय जनता पार्टी को 177 सीटों से संतोष करना पड़ा था और मुलायम सिंह ने कांग्रेस और बसपा के समर्थन से राज्य में दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। लेकिन यह गठबंधन बहुत दिनों तक नहीं चला, क्योंकि बहुजन समाज पार्टी ने अपने गठबंधन सहयोगी के सामने बहुत सारी मांगें रख दीं। मायावती मुलायम के काम पर बारीक नजर रखतीं और जब भी उन्हें मौका मिलता, उन्हें सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने से नहीं चूकतीं। कुछ दिनों बाद कांशीराम ने भी मुलायम सिंह यादव की अवहेलना करनी शुरू कर दी।

    इंतजार का वह मशहूर किस्सा
    इस दरार का एक किस्सा बहुत मशहूर है। एक बार कांशीराम लखनऊ आये और सर्किट हाउस में ठहरे। उनसे पहले से समय लेकर मुलायम सिंह उनसे मिलने पहुंचे। उस समय कांशीराम अपने राजनीतिक सहयोगियों के साथ मंत्रणा कर रहे थे। उनके स्टाफ ने मुलायम से कहा कि वह बगल के कमरे में बैठ कर कांशीराम के काम से खाली होने का इंतजार करें। कांशीराम की बैठक दो घंटे तक चली। जब कांशीराम के सहयोगी बाहर निकले, तो मुलायम ने समझा कि अब उन्हें अंदर बुलाया जायेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक घंटे बाद जब मुलायम ने पूछा कि अंदर क्या हो रहा है, तो उन्हें बताया गया कि कांशीराम दाढ़ी बना रहे हैं और इसके बाद वह स्नान करेंगे। मुलायम बाहर इंतजार करते रहे। इस बीच कांशीराम थोड़ा सो भी लिये। चार घंटे बाद वह मुलायम सिंह से मिलने बाहर आये। इस बात का तो पता नहीं कि उस बैठक में क्या हुआ, लेकिन यह साफ था कि जब मुलायम कमरे से बाहर निकले, तो उनका चेहरा लाल था। कांशीराम ने यह भी मुनासिब नहीं समझा कि वह उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री को बाहर उनकी कार तक छोड़ने आते। उसी शाम कांशीराम ने भाजपा नेता लालजी टंडन से संपर्क किया और कुछ दिनों बाद बहुजन समाज पार्टी ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इससे पहले 2 जून को जब मायावती लखनऊ आयीं, तो मुलायम के समर्थकों ने राज्य गेस्ट हाउस में मायरवती पर हमला किया और उन्हें अपमानित करने की कोशिश की। इसके बाद इन दोनों के बीच जो खाई पैदा हुई, उसे दो दशकों से भी अधिक समय तक पाटा नहीं जा सका।

    मुलायम सिंह और अमर सिंह की दोस्ती
    29 अगस्त 2003 को मुलायम सिंह यादव ने तीसरी बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस बीच उनकी अमर सिंह से गहरी दोस्ती हो गयी। मुलायम ने अमर सिंह को राज्यसभा का टिकट दे दिया और बाद में उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया। इसकी वजह से पार्टी के कई बड़े नेताओं ने, जिनमें बेनी प्रसाद वर्मा भी शामिल थे, मुलायम सिंह यादव से दूरी बना ली। तब वर्मा ने कहा था, मैं मुलायम सिंह को बहुत पसंद करता था। एक बार रामनरेश यादव के हटाये जाने के बाद मैंने चरण सिंह से मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री बनाये जाने की सिफारिश की थी। लेकिन चरण सिंह मेरी सलाह पर हंसते हुए बोले थे कि इतने छोटे कद के शख्स को कौन अपना नेता मानेगा। तब मैंने उनसे कहा था, नेपोलियन और लाल बहादुर शास्त्री भी तो छोटे कद के थे। जब वे नेता बन सकते हैं, तो मुलायम क्यों नहीं। चरण सिंह ने मेरा तर्क स्वीकार नहीं किया था।

    प्रधानमंत्री पद से चूके
    मुलायम सिंह यादव 1996 में संयुक्त मोर्चा की सरकार में रक्षा मंत्री बने। प्रधानमंत्री के पद से एचडी देवगौड़ा के इस्तीफा देने के बाद वह भारत के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये। उस समय नेतृत्व के लिए हुए आंतरिक मतदान में मुलायम सिंह यादव ने जीके मूपनार को 120-20 मतों के अंतर से हरा दिया था। लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी दो यादवों लालू और शरद ने उनकी राह में रोड़े अटकाये और इसमें चंद्रबाबू नायडू ने भी उनका साथ दिया, जिसकी वजह से मुलायम को प्रधानमंत्री का पद नहीं मिल सका। अगर उन्हें वह पद मिला होता, तो वह गुजराल से कहीं अधिक समय तक गठबंधन को बचाये रखते।

    विश्वसनीयता पर सवाल
    मुलायम सिंह भारतीय राजनीति में कभी भी विश्वसनीय सहयोगी नहीं माने गये। पूरी उम्र चंद्रशेखर उनके नेता रहे, लेकिन जब 1989 में प्रधानमंत्री चुनने की बात आयी, तो उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह का समर्थन किया। थोड़े दिनों बाद जब उनका वीपी सिंह से मोह भंग हो गया, तो उन्होंने फिर चंद्रशेखर का दामन थाम लिया। वर्ष 2002 में जब एनडीए ने राष्ट्रपति पद के लिए एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे किया, तो वामपंथी दलों ने उसका विरोध करते हुए कैप्टन लक्ष्मी सहगल को उनके खिलाफ उतारा। मुलायम ने आखिरी समय पर वामपंथियों का समर्थन छोड़ते हुए कलाम की उम्मीदवारी पर अपनी मुहर लगा दी। वर्ष 2008 में भी जब परमाणु समझौते के मुद्दे पर लेफ्ट ने मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लिया, तो मुलायम ने उनका साथ न देते हुए सरकार के समर्थन का फैसला किया, जिसकी वजह से मनमोहन सिंह की सरकार बच गयी। 2019 के आम चुनाव में भी उन्होंने कई राजनीतिक विश्लेषकों को आश्चर्यचकित कर दिया, जब उन्होंने कहा कि वह चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनें।

    सोनिया गांधी को मना करने के पीछे की कहानी
    1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के गिरने के बाद मुलायम सिंह ने कांग्रेस से कहा कि वह उनका समर्थन करेंगे। उनके इस आश्वासन के बाद ही सोनिया गांधी ने कहा था कि उनके पास 272 लोगों का समर्थन है। लेकिन बाद में वह इससे मुकर गये और सोनिया गांधी की काफी फजीहत हुई।

    दो शादियां की थीं मुलायम सिंह यादव ने
    1957 में मुलायम सिंह यादव का विवाह मालती देवी से हुआ। 2003 में उनके देहावसान के बाद मुलायम सिंह यादव ने साधना गुप्ता से दूसरी शादी की। इस संबंध को बहुत दिनों तक छिपा कर रखा गया और शादी में भी बहुत नजदीकी लोग ही सम्मिलित हुए। इस शादी के बारे में लोगों को पहली बार तब पता चला, जब मुलायम सिंह यादव ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि उनकी एक पत्नी और हैं। जब मुलायम ने 2003 में साधना गुप्ता से शादी की, तो पहली पत्नी से उनके पुत्र अखिलेश यादव की न सिर्फ शादी हो चुकी थी, बल्कि उनको एक बच्चा भी हो चुका था।

    परिवारवाद बढ़ाने के आरोप
    मुलायम सिंह यादव पर परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप भी लगे। 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को उत्तरप्रदेश में कुल पांच सीटें मिलीं और ये पांचों सांसद यादव परिवार के सदस्य थे। 2012 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव को अपना उत्तराधिकारी बनाया। लेकिन मुलायम द्वारा सरकार को ‘रिमोट कंट्रोल’ से चलाने के आरोपों के बीच अखिलेश 2017 का विधानसभा चुनाव हार गये। चुनाव से कुछ दिनों पहले अखिलेश ने उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से हटा दिया। मुलायम ने चुनाव प्रचार में भाग नहीं लिया और हार का ठीकरा अपने बेटे पर फोड़ते हुए कहा कि अखिलेश ने मुझे अपमानित किया है। अगर बेटा बाप के प्रति वफादार नहीं है, तो वह किसी का भी नहीं हो सकता। मुलायम की इच्छा के खिलाफ अखिलेश ने मायावती के साथ मिल कर 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा। एक साल पहले तक इस गठबंधन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यह अलग बात है कि इस गठबंधन को मुंह की खानी पड़ी और कुछ दिनों के भीतर यह गठबंधन भी टूट गया।

    बाबरी मस्जिद विवादित ढांचा और अयोध्या
    1989 में मुलायम सिंह पहली बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। अयोध्या में मंदिर आंदोलन तेज हुआ तो कार सेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया। मुलायम यादव द्वारा यह कृत्य उनके राजनीतिक जीवन पर एक ऐसा लाल छींटा है, जो कभी धूल नहीं पायेगा। मुलायम को मुल्ला मुलायम का तमगा भी उन्हें उस गोलीकांड के बाद ही मिला। लेकिन उन्होंने इसकी परवाह कभी नहीं की।

    akhilesh yadav mulayam singh yadav uttar pradesh
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