अगर संसद के शीतकालीन सत्र में हो रही देरी को लेकर सवाल उठ रहे हैं, तो यह एकदम स्वाभाविक है। संसद के साल में तीन सत्र होते हैं: बजट सत्र, मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र। शीतकालीन सत्र अमूमन नवंबर के तीसरे सप्ताह में शुरू होता रहा है। पर यह अब साफ हो चुका है कि इस बार शीतकालीन सत्र समय से शुरू नहीं होने जा रहा। कब शुरू होगा, इसकी भी कोई तारीख फिलहाल मालूम नहीं है। संसदीय मामलों के लिए मंत्रिमंडल की बाकायदा एक समिति होती है। पर इस समिति ने शीतकालीन सत्र की बाबत क्या निर्णय लिया, इसकी कोई सार्वजनिक सूचना नहीं आई है। संसद का कोई भी सत्र शुरू होने से करीब पखवाड़े भर पहले सांसदों को सूचना भेजी जाती है, ताकि वे यात्रा में या दौरे पर हों तो समय से दिल्ली पहुंच सकें और संभावित मुद््दों से संबंधित अपने नोटिस या प्रश्न वगैरह तैयार करने का वक्त उन्हें मिल पाए। लिहाजा, उन्हें एक-दो नवंबर तक सूचना भेज दी जानी चाहिए था। मगर जब दस-बारह नवंबर तक भी उन्हें शीतकालीन सत्र के लिए बुलावा नहीं आया, तो संदेह और सवाल उठने लगे। और अब सत्र का टाला जाना एकदम साफ हो चुका है। ऐसा क्यों? इस बारे में सरकार कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सकी है।

अलबत्ता सरकार का पक्ष रखते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने यह जरूर कहा है कि पहले भी, यानी कांग्रेस के शासनकाल के दौर में भी, सत्र टाले गए हैं। लेकिन सवाल है कि नियम और परिपाटी का पालन किया जाना चाहिए, या उससे कभी हुए विचलन का? देश को कांग्रेस से मुक्त करने का दम भरने वाले कांग्रेस के किसी गलत फैसले को अपने लिए अनुकरणीय क्यों मान रहे हैं! 2008 में कांग्रेस ने विवादास्पद विश्वास मत हासिल करने के बाद मानसून सत्र को कोई तीन-चार महीने के लिए टाल दिया था और फिर शीतकालीन सत्र की बलि चढ़ा दी थी। लेकिन वह एक सरकार की अपना वजूद बचाने की छटपटाहट में की गई कारगुजारी थी, जो वोट के बदले नोट कांड का सबब बनी थी। भाजपा और मोदी उसका अनुसरण क्यों करना चाहती है? संसद सत्र टाले जाने के पीछे कोई विश्वसनीय कारण न होने से स्वाभाविक ही यह धारणा बनी है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के चलते सत्र टाला गया है। भाजपा और गुजरात का अपना गढ़ बचाने की फिक्र करें, इसमें कुछ भी गलत नहीं है, पर एक राज्य के विधानसभा चुनाव के कारण वे संसद का सत्र टाल दें, यह संसदीय लोकतंत्र के प्रति उनकी अगंभीरता को ही दर्शाता है। इससे संसदीय परिपाटी और संसद की गरिमा को ठेस पहुंची है।

पहले ही, रिजर्व बैंक से लेकर राज्यपाल के पद और निर्वाचन आयोग तक, तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर अनुचित दबाव डालने के आरोप सरकार पर लग चुके हैं। अब हमारे लोकतंत्र की सिरमौर संस्था संसद के साथ खिलवाड़ करने के आरोप से भी वह बच नहीं सकी है। शीतकालीन सत्र टाले जाने से विपक्ष को सरकार पर संसद की तौहीन करने का आरोप जड़ने के अलावा यह कहने का भी मौका मिला है कि सत्तापक्ष अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी के प्रभाव और जीएसटी की विसंगतियों जैसे कठिन सवालों से बचने की कोशिश कर रहा है। इस सारे विवाद के बीच एक सांसद ने साल के शुरू में ही संसदीय कैलेंडर जारी कर देने का सुझाव दिया है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए।

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