• केंद्र और राज्य में मंत्री से लेकर सांसद-विधायक तक बने

रांची। आज झारखंड की राजनीति में हेमंत सोरेन की बहुत चर्चा होती है। वह प्रदेश के सबसे बुजुर्ग और प्रतिष्ठित राजनेता शिबू सोरेन के पुत्र हैं। हेमंत की चर्चा से पहले यह बताना जरूरी है कि झारखंड के 18 साल के इतिहास में ऐसे दर्जन भर राजनीतिज्ञ हुए, जिनकी संतानों ने उनकी राजनीतिक विरासत को अच्छी तरह ही नहीं, बल्कि शानदार तरीके से संभाल रखी है।

झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष और झारखंड में विपक्ष के नेता हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन तो आज भी पार्टी के अध्यक्ष हैं। इसके अलावा वह सांसद भी हैं और राजनीति में सक्रिय हैं। हेमंत ने लोकसभा और विधानसभा के पिछले चुनाव में अपनी राजनीतिक समझदारी का बेहतरीन नमूना पेश किया था और भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन कर उभरे थे। इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में छोड़ कर सक्रिय राजनीति में उतरनेवाले हेमंत सोरेन ने राज्य के मुख्यमंत्री और अब नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी भी बखूबी संभाली है। कुछ मायनों में तो वह अपने पिता को भी पीछे छोड़ चुके हैं। हेमंत आज तक विधानसभा का कोई भी चुनाव नहीं हारे हैं, जबकि शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री रहते हुए तमाड़ से पराजय का मुंह देखना पड़ा था।

इसके अलावा हेमंत ने अपने पिता से अधिक दिनों तक कुर्सी संभाली है। लेकिन हेमंत से पहले जो नाम सबसे प्रमुख राजनीतिक युवराज के रूप में लिया जाता है, वह है जयंत सिन्हा का। देश के कद्दावर नेता, विदेश और वित्त मंत्री की जिम्मेदारी संभाल चुके यशवंत सिन्हा ने लोकसभा का पिछला चुनाव नहीं लड़ा, बल्कि उन्होंने अपनी विरासत अपने पुत्र जयंत सिन्हा को सौंप दी। आइआइटी और हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से पढ़े जयंत सिन्हा को कोई राजनीतिक अनुभव नहीं था। लेकिन उन्होंने न केवल हजारीबाग से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा, बल्कि शानदार जीत हासिल कर खुद को साबित किया। बाद में वह केंद्र में मंत्री भी बनाये गये। पिछले साढ़े चार साल में कई अवसरों पर जयंत सिन्हा ने अपनी राजनीतिक समझदारी का परिचय दिया है और कहीं भी अपने पिता के नाम का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं किया है।

इसी तरह झरिया के भाजपा विधायक संजीव सिंह हैं, जो एक राजनीतिक परिवार में पैदा हुए और अपनी राजनीतिक पहचान बनायी। उनके पिता सूर्यदेव सिंह एकीकृत बिहार में विधायक थे और तत्कालीन समाजवादी राजनीति में उनका अलग स्थान था। संजीव की मां कुंती सिंह भी झारखंड विधानसभा की सदस्य थीं। पिछले चुनाव में कुंती सिंह ने अपने पुत्र के लिए झरिया सीट छोड़ दी और संजीव सिंह ने अपनी मां की राजनीतिक विरासत को अच्छी तरह संभाल लिया। संजीव सिंह का पूरा परिवार कोयलांचल की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसलिए संजीव को राजनीति का दांव-पेंच जानने-समझने में अधिक समय नहीं लगा।

कोल्हान के बहरागोड़ा सीट से झामुमो के विधायक हैं कुणाल षाड़ंगी। उनके पिता डॉ दिनेश षाड़ंगी भाजपा के कद्दावर नेता रह चुके हैं। उन्होंने मंत्री की जिम्मेदारी भी संभाली है। चुनावी राजनीति से अलग होने से पहले उन्होंने अपने पुत्र को विरासत सौंपी। आज कुणाल षाड़ंगी ने विधायक के रूप में अपनी अलग पहचान बनायी है। इतना ही नहीं, वह अपनी राजनीतिक समझदारी भी साबित कर रहे हैं।
झारखंड विधानसभा में अभी चार ऐसे सदस्य हैं, जो अपने पिता की सीट से चुन कर आये हैं।

इनमें पांकी से कांग्रेस के देवेंद्र सिंह उर्फ बिट्टू सिंह, जामताड़ा से कांग्रेस के ही डॉ इरफान अंसारी, तमाड़ से आजसू के विकास मुंडा और गोड्डा से भाजपा के अमित मंडल के नाम शामिल हैं। इनमें से डॉ अंसारी को छोड़ बाकी सभी के पिता का निधन हो चुका है। बिट्टू सिंह के पिता विदेश सिंह पांकी से ही विधायक थे और उनके निधन के कारण वहां उप चुनाव हुआ था। अमित मंडल के पिता रघुनंदन मंडल गोड्डा से विधायक थे और उनके निधन के बाद भाजपा ने अमित मंडल को टिकट दिया। विकास मुंडा के पिता रमेश सिंह मुंडा तमाड़ के जदयू विधायक थे और नक्सली हिंसा में उनकी मौत हो गयी थी।

इरफान अंसारी के पिता फुरकान अंसारी ने पिछले विधानसभा चुनाव में अपने बेटे को उतारा था। इनके अलावा डालटनगंज के विधायक आलोक चौरसिया के पिता अनिल चौरसिया वहां के कद्दावर राजनेता थे। हालांकि वह चुनावी राजनीति में कभी सफल नहीं हो सके, लेकिन उनकी अपनी पहचान थी। आलोक को अपने पिता की राजनीतिक पहचान की मदद भी मिली। मांडू के विधायक जयप्रकाश भाई पटेल के पिता टेकलाल महतो झामुमो के कद्दावर नेताओं में शुमार थे। वह सांसद और विधायक भी बने। जयप्रकाश भाई पटेल ने अपने पिता की विरासत को कुशलता के साथ संभाल रखा है।

इन युवराजों की फेहरिस्त में दो और नाम हैं, जो अभी सांसद-विधायक तो नहीं हैं, लेकिन राजनीति में सक्रिय हैं। पहला नाम है विनोद सिंह का, जो भाकपा माले के विधायक रहे महेंद्र सिंह के पुत्र हैं। महेंद्र सिंह की हत्या के बाद माले ने विनोद सिंह को बगोदर से उम्मीदवार बनाया था। वह एक बार विधायक भी रहे। पिछले चुनाव में उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था। अभी वह गिरिडीह-बगोदर इलाके में जन समस्याओं को लेकर मुखर हैं। विनोद सिंह ने विधायक के रूप में अपने पिता द्वारा स्थापित शानदार परंपरा का निर्वाह किया। वह अकेले ऐसे विधायक थे, जिन्होंने विधानसभा में विधायकों का वेतन-भत्ता बढ़ाने के प्रस्ताव का न केवल विरोध किया था, बल्कि बढ़ा हुआ वेतन लेने से भी मना कर दिया था।

अपने पिता की राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में कांग्रेस की गीताश्री उरांव का नाम भी प्रमुख है। वह सिसई (गुमला) से विधायक रह चुकी हैं और हेमंत सोरेन मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री की जिम्मेदारी संभाल चुकी हैं। गीताश्री उरांव के पिता कार्तिक उरांव कांग्रेस के आदिवासी नेताओं की पहली पंक्ति में शामिल थे। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी सुमति उरांव भी सांसद और केंद्र में मंत्री बनीं। गीताश्री उरांव आज भी कांग्रेस से जुड़ी हुई हैं और राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं।

इनके अलावा बरकट्ठा (हजारीबाग) के अमित यादव भी अपने पिता चित्तरंजन यादव के निधन के कारण खाली हुई सीट से चुनाव लड़े और विधायक बने। दूसरी बार भी उन्हें टिकट मिला, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। एक और युवराज की चर्चा के बिना फेहरिस्त पूरी नहीं होती। यह नाम है भानु प्रताप शाही का। भवनाथपुर (गढ़वा) से विधायक भानु के पिता लाल हेमेंद्र प्रताप देहाती 1972 में भवनाथपुर से चुनाव लड़ चुके हैं। इलाके में उनका राजनीतिक कद बहुत बड़ा है। भानु ने हालांकि अपनी राजनीतिक जमीन खुद तैयार की, लेकिन अपने पिता की विरासत को उन्होंने आगे बखूबी आगे बढ़ाया। इसी तरह गिरिडीह के भाजपा सांसद रविंद्र कुमार पांडेय के पिता कृष्ण मुरारी पांडेय बेरमो-बोकारो इलाके के बड़े कांग्रेसी नेताओं में शुमार थे। रविंद्र पांडेय ने भाजपा का दामन थामा और पिछले तीन टर्म से सांसद हैं।
1. हेमंत सोरेन, 2. कुणाल षाड़ंगी, 3. जयंत सिन्हा, 4. विकास मुंडा, 5. संजीव सिंह, 6. रवींद्र पांडेय, 7. इरफान अंसारी, 8. अमित मंडल, 9. जेपी पटेल, 10. आलोक चौरसिया।

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