झारखंड में चुनावी गहमागहमी के बीच अब यह लगभग साफ हो चुका है कि यहां की 81 सदस्यीय पांचवीं विधानसभा में बहुमत के लिए सीधा मुकाबला ही होगा। हालांकि तेजी से बदलते राजनीतिक हालात इस बात के संकेत दे रहे हैं कि बाबूलाल मरांडी का झारखंड विकास मोर्चा झामुमो के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के लिए उत्सुक नहीं है। वैसी स्थिति में मुकाबला त्रिकोणीय हो सकता है। लेकिन इस चुनावी राजनीति का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि झारखंड के सभी दलों का ध्यान झाविमो और आजसू की गतिविधियों पर है। लोकसभा चुनाव में शून्य पर क्लीन बोल्ड हुए झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी चुनावी मैदान में लगातार ठोकर खाने के बावजूद आज भी अपनी हस्ती बचाये हुए हैं, यह बड़ी बात है। उधर आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो भी तमाम राजनीतिक झंझावातों के बावजूद भाजपा के साथ आंख से आंख मिला कर बात करने का माद्दा रखे हुए हैं, यह बहुत बड़ी बात है।

क्यों लाइम लाइट में हैं बाबूलाल और सुदेश
झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे बाबूलाल मरांडी और झारखंड की राजनीति में तेजी से अपना ठोस जनाधार बनाने वाले सुदेश महतो के राजनीति के केंद्र में रहने का मुख्य कारण यह है कि विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद इन दोनों ने जनता से अपना संपर्क जीवित रखा है। लगातार जनता के संपर्क में रहने और पूरे राज्य की यात्रा करने के कारण इन दोनों ने अपने राजनीतिक वजूद को मजबूत ही किया है। मुख्यमंत्री रघुवर दास और झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन को छोड़ दिया जाये, तो इन दोनों के अलावा किसी दल में ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जिसकी पहचान पूरे राज्य में हो। बाबूलाल और सुदेश के बारे में कहा जाता है कि ये दोनों कभी हल्की बात नहीं करते और बहुत आगे की सोच कर अपनी रणनीति तैयार करते हैं। इन दोनों के बारे में यह बात भी मशहूर है कि दोनों अपनी पार्टी के भीतर खूब विचार-विमर्श करते हैं, लोगों के सुझाव सुनते हैं और तब फैसले पर पहुंचते हैं। एक बार फैसला लेने के बाद ये दोनों पीछे नहीं हटते। राजनीति के मैदान में ऐसा कम देखने को मिलता है कि कोई दल एक स्टैंड पर कायम रहे। इस अर्थ में बाबूलाल और सुदेश भीड़ से अलग नजर आते हैं।

कई समानताएं हैं दोनों में
बाबूलाल मरांडी और सुदेश महतो की राजनीति में कई समानताएं हैं। ये दोनों सोच-समझ कर अपनी रणनीति बनाते हैं और फिर उस पर अमल करते हैं। ये दोनों जो भी मुद्दा उठाते हैं, उसे अंजाम तक पहुंचाने के बाद ही दम लेते हैं। इसके कारण लोगों का भरोसा इनके प्रति है। बाबूलाल और सुदेश हालांकि राजनीतिक रूप से दो विपरीत ध्रुवों पर हैं, लेकिन इनकी कार्यशैली और मुद्दे अक्सर एक जैसे होते हैं। बाबूलाल मरांडी जहां यात्राओं और दौरों की मदद से लोगों से सीधा संवाद बनाते हैं, वहीं सुदेश महतो भी पदयात्राएं कर आम लोगों से हमेशा मिलते हैं। इन दोनों के पास झारखंड के विकास का एक विजन है, जिस पर ये काम करते हैं। साफ-सुथरी और स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा इनकी खासियत है। इन दोनों ने अपने जीवन में कई असफलताएं देखी हैं, लेकिन अपने रास्ते में चलते रहना इन्हें दूसरों से अलग करता है।

क्या रणनीति है बाबूलाल और सुदेश महतो की
विधानसभा चुनाव के लिए बाबूलाल मरांडी और सुदेश महतो की रणनीति भले ही अलग है, लेकिन बाकी दलों के लिए दिलचस्पी इसे जानने में हैं। बाबूलाल मरांडी ने साफ कर दिया है कि झामुमो का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं है और वह विपक्षी महागठबंधन से अलग होने के लिए तैयार हैं। दूसरी तरफ सुदेश महतो भी अपनी पार्टी की स्थिति को देखते हुए बहुत अधिक झुकने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें पता है कि यदि वह पिछले चुनावों की तरह आठ सीटों पर संतुष्ट हो गये, तो यह उनके लिए आत्मघाती हो सकता है। ऐसे में भाजपा के साथ सीट शेयरिंग के मुद्दे पर ना तो वह कुछ बोल रहे हैं और ना ही उनकी पार्टी अपनी ओर से कुछ बोल रही है। पार्टी के केंद्रीय प्रवक्ता डॉ देवशरण भगत ने तो कह ही दिया है कि भाजपा ने खेती खरीदी है, खेत नहीं खरीदा है। खेत तो आजसू का है। उनका इशारा साफ तौर पर हटिया, चंदनक्यारी और लोहरदगा को लेकर था।
तालमेल और सीट शेयरिंग पर झाविमो के स्टैंड और आजसू की चुप्पी विशेष रूप से भाजपा और झामुमो को बेचैन बना रही है। जब तक बाबूलाल और सुदेश महतो अपना स्टैंड क्लीयर नहीं करते हैं, इन दोनों दलों के लिए एक भी कदम आगे बढ़ाना मुश्किल हो गया है।
भाजपा अपने विश्वस्त और ताकतवर सहयोगी आजसू का साथ हर कीमत पर बनाये रखना चाहती है, लेकिन अभी तक दोनों के बीच सीट शेयरिंग पर बात नहीं हुई है। हां, आजसू ने जरूर आलाकमान के पास बीस सीटों का दावा किया है और उसकी सूची ओम माथुर को सौंप दी है। उधर झाविमो के रुख को लेकर झामुमो भी बेचैन है। वह कांग्रेस और राजद के साथ बात तो कर रहा है, लेकिन झाविमो की ओर से उसके लिए कोई संकेत नहीं मिल रहा है।
इन राजनीतिक परिस्थितियों में बाबूलाल मरांडी और सुदेश महतो का कद लगातार बढ़ रहा है। दिखाने के लिए तो इनके खिलाफ बयान दिय जा सकते हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि इन दोनों ने ही अपनी पकड़ को बनाये रखा है। और दूसरे दलों को इस बात का आभास भी है, इसी कारण दूसरे दल इसे लेकर बेचैन हैं। इस लाइम लाइट को बनाये रखना इन दोनों के हित में है और राजनीतिक समझदारी भी।

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