राजद के साथ भी रुखा रहा व्यवहार, लालू तक पहुंची शिकायत
बात दीपावली से एक दिन पहले की है। राजद के प्रदेश अध्यक्ष अभय सिंह बड़ी उम्मीदें लेकर झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन के पास गये। हेमंत सोरेन से मिलने का समय तय था। इंतजार में वह देर तक बैठे रहे, पर हेमंत ने आवास पर रहते हुए उनसे मिलना उचित नहीं समझा। अभय सिंह उनसे मुलाकात की आस लिये यही सोचते रहे कि आखिर हेमंत सोरेन ने उनके साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया। यदि यही व्यवहार उनके साथ कोई करता तो वे कैसा महसूस करते। खैर, यह बात उन्होंने अपने दिल से निकाल दी। दूसरी बार वे शीट शेयरिंग को लेकर हेमंत से मिले और हेमंत ने इस बार तो उनसे मुलाकात कर ली, पर उनके चौदह सीटों के प्रस्ताव को भाव नहीं दिया। हेमंत ने बेरुखे मन से कहा कि पांच से ज्यादा पर बात नहीं हो सकती। यह बात रिम्स में भर्ती लालू प्रसाद यादव तक पहुंची। यह सुनते ही लालू प्रसाद अति गंभीर हो गये, लेकिन कहा कुछ नहीं।
लालू को सूचना देकर राजद नेता वहां से लौट गये। कुछ दिन बाद हेमंत सोरेन लालू यादव से मिलने गये। पर इस मुलाकात और पहले होनेवाली मुलाकातें भिन्न थीं। लालू यादव के कक्ष में प्रवेश करते ही हेमंत को लालू यादव की गंभीरता का अंदाजा हो गया। हेमंत सोरेन से बातचीत के दौरान लालू ने कहा कि वे झारखंड में संभावित महागठबंधन में नेतृत्वकर्ता की भूमिका और सीएम बनने का ख्वाब पाल रहे हैं, तो अपने रवैये को लचीला रखना होगा। लालू यादव ने भी उनसे राजद को कमतर आंकने से मना किया, कहा कि राजद को हर हाल में दस सीटें चाहिए। लालू कहा कि झारखंड में कोई भी नेता सीट जीताने की गारंटी नहीं दे सकता। हेमंत और लालू प्रसाद के बीच इस दौरान और भी कई बातें हुर्इं पर इस बातचीत का निहितार्थ यही था कि लालू यादव के चेहरे पर नाराजगी झलक रही थी। इसे हेमंत ने भी महसूसा।
इस कहानी की अगली कड़ी रविवार को झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी और रामेश्वर उरांव के बीच बातचीत में सामने आयी। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ रामेश्वर उरांव बाबूलाल मरांडी से गठबंधन में शामिल होने पर बातचीत करने गये। इस दौरान बाबूलाल मरांडी ने उनसे साफ कह दिया कि वे किसी कीमत पर हेमंत सोरेन का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकते। वे स्वाभिमान की राजनीति के पक्षधर हैं और यदि कांग्रेस झाविमो का साथ चाहती है तो उसे झामुमो से किनारा करना ही होगा। डॉ रामेश्वर उरांव ने ध्यान से बाबूलाल मरांडी की बातें सुनीं और पार्टी आलाकमान को उनकी भावनाओं से अवगत कराने का भरोसा देकर चले आये। डॉ रामेश्वर उरांव भले ही साफ तौर पर यह न बोलें कि उन्हें हेमंत का नेतृत्व स्वीकार नहीं है पर सच्चाई यही है कि हेमंत को नेता स्वीकार करने के पक्ष में प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के दिन से ही वह नहीं हैं। एक बार वह इस संबंध में बयान भी दे चुके हैं, पर बाद में कांग्रेस आलाकमान के निर्देश के बाद उन्होंने रैडिशन ब्लू में आयोजित पूर्वोदय में इसे संशोधित किया। पर वह संशोधित बयान उनकी मजबूरी थी चाहत नहीं। इस घटनाक्रम के बाद हेमंत सोरेन झारखंड में कांग्रेस के स्थानीय नेताओं से संवाद स्थापित किये बिना ही दिल्ली चले गये। पर मध्यप्रदेश भवन में आयोजित बैठक में कांग्रेस के झारखंड प्रभारी आरपीएन सिंह से उनकी मुलाकात तक नहीं हुई। हालांकि राज्यसभा सांसद अहमद पटेल और अन्य ने उनसे बात की। दरअसल हेमंत सोरेन यह भूल गये थे कि कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है जहां प्रभारी की इजाजत के बगैर कोई बात ही नहीं होती है। पर असावधानीवश यह चूक हो गयी। रही-सही कसर मासस विधायक अरुप चटर्जी ने पूरी कर दी। उन्होंंने यह साफ किया कि झामुमो चाहे तो निरसा से प्रत्याशी दे सकता है और उन्हें झामुमो के साथ की कोई जरूरत नहीं है।
क्या हेमंत सोरेन ने गलती की है!
झारखंड में आसन्न विधानसभा चुनावों से पहले जो घटनाक्रम घटित हो रहा है उसकी पृष्ठभूमि में जायें तो लोकसभा चुनाव के दौरान महागठबंधन का जो रिजल्ट आया ,उसके बाद से शुरु होता है। लोकसभा चुनाव में महागठबंधन के बाद भी भाजपा के खाते में लोकसभा की चौदह में से बारह सीटें गयीं और कांग्र्रेस तथा झामुमो के खाते में एक-एक सीट आयी। इस रिजल्ट ने बाबूलाल मरांडी को महागठबंधन की समीक्षा करने पर मजबूर कर दिया। इस समीक्षा से बाबूलाल ने पाया कि उनके सामने गठबंधन में शामिल न होना कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प है। इसके बाद वह एकला चलो की राह पर चल निकले। कांग्रेस विधानसभा चुनाव में हेमंत को नेतृत्वकर्ता मानने के लिए भले ही विवश हो, पर स्वाभाविक रूप से वह यह नहीं चाहती कि हेमंत महागठबंधन का नेतृत्व करें क्योंकि इससे कांग्रेस की राष्टÑीय पार्टी होने का रुतबा प्रभावित होता है।
झारखंड में कांग्रेस बहुत प्रभावी भले ही न रही हो पर राष्टÑीय पार्टी होने के दंभ से वह अब भी मुक्त नहीं हो सकी है। यही कारण है कि कांग्रेस ने हेमंत की जगह बाबूलाल को भाव देना शुरू कर दिया। कांग्रेस को बाबूलाल में संभावनाएं भी अधिक नजर आ रही हैं। हेमंत सोरेन इस बदलते घटनाक्रम से तो वाकिफ थे पर इससे कैसे डील किया जाये, इसे समझने में शायद उनसे चूक हुई। जब राजद नेताओं के साथ उन्होंने बेरुखा व्यवहार किया तो उस समय शायद वह इसके परिणामों की गंभीरता को समझ नहीं पाये। पर लालू तो यह बेरुखी नहीं बर्दाश्त कर पाये और उन्होंने हेमंत को दो टूक स्वरों में कह दिया कि राजद को कमतर न आंका जाये। झारखंड में जब हेमंत सेटिंग नहीं कर पाये तो वह दिल्ली चले गये पर वहां भी राजनीति का ऊंट उनकी मर्जी के मुताबिक करवट नहीं ले सका। हेमंत सोरेन के समक्ष वर्तमान में जो राजनीतिक परिस्थितियां निर्मित हुई हैं, उसमें सबसे पहले उन्हें अपने अड़ियल रवैये में परिवर्तन लाना होगा। उन्हें झारखंड में महागठबंधन को रुपाकार देने में अहम भूमिका निभानी है और इसके लिए उन्हें लचीला रुख अपनाते हुए सभी घटक दलों को साधना होगा। राजद सुप्रीमो लालू यादव की नाराजगी दूर करनी होगी और वाम दल जो उसके साथ आने को तैयार हैं उन्हें साथ लेकर चलना होगा। यदि झारखंड में किसी कारणवश महागठबंधन आकार नहीं ले सका तो इसका सर्वाधिक नुकसान झामुमो को ही होगा, क्योंकि भाजपा उसे और उसके विधायकों को तोड़ने की रणनीति पर काम कर रही है। भाजपा का 65 प्लस का लक्ष्य झारखंड में झामुमो और कांग्रेस के कमजोर होने पर ही हासिल हो सकता है और अकेले चुनाव के मैदान में उतरने पर कांग्रेस हो या झामुमो दोनों को भाजपा नाकों चने चबवा सकती है। कांग्रेस इस स्थिति से निपटने के लिए झाविमो के साथ कदमताल करके चल सकती है पर झामुमो के पास विकल्प के तौर पर केवल वाम दलों का ही सहारा है। इधर, चुनाव से पहले असद्दÞुदीन ओवैसी की पार्टी कांग्रेस और झामुमो के परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक को नुकसान पहुंचा सकती है।
इससे झामुमो और कांग्रेस दोनों का वोट परसेंटेज प्रभावित हो सकता है। कुल मिलाकर चुनाव के बाद विपक्ष और सत्ता पक्ष में से किसके साथ जनता जायेगी यह तो चुनाव के नतीजे बतायेंगे पर इतना तो तय है कि हेमंत सोरेन के सामने महागठबंधन को आकार देने और अपना तथा पार्टी का रुतबा बरकरार रखने की जो गंभीर चुनौती खड़ी हुई है उसका सामना करने के लिए उन्हें कई स्तरों पर परिवर्तन लाना होगा। यदि उन्होंने अड़ियल रुख अपनाये रखा तो नतीजे अच्छे आयें इसकी संभावना कम लगती है।