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    Home»विशेष»उपचुनाव के संदेश : कांग्रेस खाली, भाजपा की लोकप्रियता बरकरार
    विशेष

    उपचुनाव के संदेश : कांग्रेस खाली, भाजपा की लोकप्रियता बरकरार

    बिहार में अब अकेले भी महागठबंधन से दो-दो हाथ करने को तैयार | तेलंगाना में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा भी कमाल नहीं दिखा सकी
    adminBy adminNovember 9, 2022No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    छह राज्यों की सात विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के नतीजे आ चुके हैं। भाजपा ने बिहार में गोपालगंज, यूपी के गोला गोकर्णनाथ, हरियाणा के आदमपुर और ओड़िशा के धामनगर से जीत हासिल की, जबकि महाराष्ट्र की अंधेरी ईस्ट सीट से उद्धव गुट की शिवसेना और तेलंगाना की मुनूगोड़े सीट से भारत राष्ट्र समिति उम्मीदवार की जीत हुई। बिहार की मोकामा सीट से राजद ने जीत दर्ज की। लेकिन इन सात सीटों पर हुआ उपचुनाव क्या संदेश देता है, इस पर ध्यान देना जरूरी है। इस उपचुनाव के नतीजे देश के सियासी परिदृश्य को एक साथ कई संदेश देते हैं। इसमें सबसे प्रमुख संदेश यह है कि भाजपा अब भी लगभग अपराजेय स्थिति में बनी हुई है। कहा जा रहा था कि जदयू के अलग होने के बाद बिहार में भाजपा का असर कम होगा, लेकिन गोपालगंज सीट जीत कर उसने इस भविष्यवाणी को गलत साबित कर दिया है। इसी तरह हरियाणा की आदमपुर और तेलंगाना की मुनूगोडे सीट से कांग्रेस की हार के मायने यह हैं कि पार्टी बड़ी तेजी से अप्रासंगिक होती जा रही है। तेलंगाना में तो राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने भी कोई कमाल नहीं दिखाया। आदमपुर सीट पर कुलदीप विश्नोई ने साबित कर दिया है कि वह चाहे किसी भी पार्टी में रहें, आदमपुर में उनकी काट किसी के पास नहीं है। इस उपचुनाव के नतीजों का सियासी विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
    लोकतंत्र में चुनाव, चाहे छोटा हो या बड़ा, हमेशा से रोमांचक और रोचक रहा है। और भारत में तो चुनाव परिणामों को राजनीति का ही नहीं, शासन की तमाम अवधारणाओं का अंतिम लक्ष्य माना जाता है। अभी छह राज्यों की सात विधानसभा सीटों पर उपचुनाव कराये गये, जिनके नतीजे आने के बाद इनके सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। ये नतीजे किसी एक पार्टी के पक्ष में नहीं गये। भाजपा ने चार सीटें जीतीं और प्रादेशिक पार्टियों ने तीन। राजद, भारत राष्ट्र समिति और शिवसेना उद्धव गुट को एक-एक सीट मिली। हालांकि उपचुनाव हमेशा कोई राष्ट्रीय ट्रेंड नहीं बताते हैं, लेकिन नतीजे हर पार्टियों के लिए अहम संदेश जरूर देते हैं। इसलिए यह जानना बेहद दिलचस्प है कि इस उपचुनाव के नतीजे किस दल के लिए क्या संदेश दे रहे हैं। बिना किसी लाग-लपेट और संदेह के यह कहा जा सकता है कि इन नतीजों ने भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और एआइएमआइएम, भारत राष्ट्र समिति और राजद के लिए कुछ न कुछ सबक जरूर छोड़ा है।
    कुल मिला कर देखें तो उपचुनाव से पहले सात में से तीन पर भाजपा, दो पर कांग्रेस और एक-एक सीट पर राजद और उद्धव ठाकरे गुट की पार्टी का कब्जा था। नतीजों के बाद स्थिति लगभग पहले जैसी है। हरियाणा की आदमपुर सीट पर कांग्रेस का कब्जा था, लेकिन अब वह भाजपा के खाते में चली गयी। वहीं तेलंगाना की मुनूगोड़े सीट पर भी कांग्रेस का कब्जा था, लेकिन अब वहां बीआरएस ने जीत दर्ज की है। यानी उपचुनाव का हासिल यह रहा कि भाजपा तीन से चार, कांग्रेस दो से शून्य, बीआरएस शून्य से एक पर आ गयी, जबकि राजद और शिवसेना अपनी-अपनी सीट बचाने में सफल रही।

    बिहार में पैर जमा रही है भाजपा
    सबसे पहले बिहार की बात करते हैं। मोकामा सीट राजद विधायक अनंत कुमार सिंह को अयोग्य ठहराये जाने के बाद खाली हुई थी। इस सीट को उनका इलाका माना जाता है। नतीजों में भी यही दिखा। भाजपा ने ललन सिंह की पत्नी सोनम देवी को मैदान में उतारा था। दूसरी तरफ राजद ने अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी के जरिये जीत हासिल कर ली। लेकिन गोपालगंज में भाजपा की जीत ने साबित कर दिया है कि राज्य में भाजपा मजबूती से पैर जमा रही है। गोपालगंज सीट पर सबसे ज्यादा मुसलमान वोट हैं, मगर यहां माय समीकरण पर दांव लगाने वाला राजद हार गया। हालांकि राजद कह रहा है कि उसके प्रत्याशी हारे नहीं, बल्कि ओवैसी के उम्मीदवार अब्दुल सलाम और लालू प्रसाद के साले साधु यादव की पत्नी इंदिरा यादव ने मिल कर भाजपा को जिता दिया। यहां पहले नंबर पर भाजपा, दूसरे नंबर पर राजद और तीसरे नंबर पर ओवैसी की पार्टी रही। राजद को करीब 1800 वोटों से हार का सामना करना पड़ा, वहीं ओवैसी की पार्टी को करीब 12 हजार और साधु यादव की पत्नी को करीब नौ हजार वोट मिले।
    नीतीश कुमार से अलग होने के बाद बिहार में भाजपा की राह में कांटों की भविष्यवाणी की जा रही थी। कहा जा रहा था कि भाजपा के लिए अब कोई भी चुनाव जीतना मुश्किल होगा। लेकिन गोपालगंज की जीत ने साबित कर दिया कि पार्टी का यदि जनाधार बढ़ा नहीं है, तो घटा भी नहीं है।

    आदमपुर में भजनलाल परिवार का जलवा कायम
    अब हरियाणा की भी बात कर लेते हैं। यहां की आदमपुर विधानसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार भव्य बिश्नोई की जीत हुई, जिसके साथ ही हरियाणा विधानसभा में भजनलाल की तीसरी पीढ़ी ने दस्तक दी है। दरअसल, आदमपुर भजनलाल परिवार का गढ़ रहा है। इसलिए यह जीत भाजपा से ज्यादा भजनलाल परिवार की मानी जा रही है। ऐसा इसलिए भी कह सकते हैं, क्योंकि पहले भी कांग्रेस के टिकट पर कुलदीप विश्नोई इस सीट से विधायक थे, लेकिन वह कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गये। अब उनके बेटे भव्य ने भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा। यह जरूर हुआ कि इस जीत के साथ ही मनोहर लाल खट्टर का उपचुनावों में हार का सिलसिला टूटा है, क्योंकि इससे पहले उन्हें बरोदा और ऐलनाबाद विधानसभा उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।

    यूपी में भगवा जादू बरकरार
    यूपी की गोला गोकर्णनाथ सीट की बात करें, तो यहां भाजपा उम्मीदवार अमन गिरि ने एसपी उम्मीदवार विनय तिवारी को हरा दिया। हालांकि यह नतीजा चौंकाने वाला नहीं है। 2012 के बाद से 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ही जीतती रही है, लेकिन हैरान करनेवाला यह है कि आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा उपचुनाव हारने के बाद भी सपा ने कोई सीख नहीं ली। अखिलेश यादव पहले की तरह से उपचुनाव से दूर ही खड़े नजर आये। कोई बड़ा चेहरा प्रचार में नहीं दिखा। वहीं भाजपा ने बड़े चेहरों की लाइन लगा दी।

    अंधेरी ईस्ट में दूसरे नंबर पर नोटा
    अब चलते हैं महाराष्ट्र। यहां अंधेरी ईस्ट में उद्धव गुट की ऋतुजा लटके को भारी बहुमत मिला। इसकी वजह थी कि भाजपा ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा। जीत के साथ ही एक चौंकाने वाला फैक्ट भी सामने आया। अंधेरी ईस्ट में कुल सात उम्मीदवार थे, लेकिन दूसरे नंबर पर कोई उम्मीदवार नहीं, नोटा था। 12 हजार से ज्यादा लोगों ने नोटा का बटन दबाया। शायद इसके पीछे एक वजह यह रही हो कि भाजपा या शिंदे गुट का वह वोटर, जो ऋतुजा लटके को वोट नहीं करना चाह रहा था, उसने नोटा का विकल्प चुना।

    उपचुनाव के नतीजों के सबक
    इस उपचुनाव ने सभी दलों के लिए कुछ न कुछ सबक छोड़ा है। भाजपा को इसने सिखाया है कि वह क्षेत्रीय दलों की ताकत को कम न आंके। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तेलंगाना में मुनूगोड़े विधानसभा क्षेत्र का उपचुनाव है, जिसे बीआरएस ने जीता है। भाजपा ने सोचा कि यह सीट उसकी जेब में है, खासकर पिछले साल हुजूराबाद उपचुनाव और 2020 में दुबक में जीत के बाद। भाजपा का फॉर्मूला हुजूराबाद के समान था, किसी अन्य पार्टी के एक मजबूत नेता को हथियाना, उससे इस्तीफा दिलवाना और फिर उपचुनाव में अपनी ताकत दिखाना। लेकिन मुनूगोड़े में यह फॉर्मूला नकार दिया।
    इस उपचुनाव ने कांग्रेस के लिए सबक छोड़ा है कि वह जहां बचा सकती है, मुख्य विपक्षी का तमगा बचाये। इन उपचुनावों में जिन सात सीटों पर मतदान हुआ था, उनमें से कांग्रेस ने चार सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा। जिन लोगों ने चुनाव लड़ा, उनके लिए इसमें एक महत्वपूर्ण सबक था। तेलंगाना में मुनूगोडेÞ और ओड़िशा के धामनगर दोनों का संदेश है कि कांग्रेस भाजपा के लिए रास्ता दे रही है। मुनूगोड़े में अपनी जमानत नहीं बचा पाना कई कारणों से पार्टी के लिए निराशाजनक है। मुनूगोड़े का परिणाम इसलिए भी कांग्रेस के लिए निराशाजनक है, क्योंकि राहुल गांधी के नेतृत्व वाली भारत जोड़ो यात्रा तेलंगाना से होकर गुजर रही थी। हालांकि यात्रा मुनूगोड़े या आसपास के इलाकों से नहीं गुजरी, लेकिन पार्टी को उम्मीद थी कि यात्रा उसे सीट पर कुछ लाभ दे सकती है, लेकिन स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं हुआ।
    बिहार में महागठबंधन को भी यही सबक लेने की जरूरत है। गोपालगंज की हार, वोट शेयर में वृद्धि के बावजूद यह दर्शाती है कि अकेले जातीय समीकरण जीत की गारंटी नहीं दे सकता। उन्हें गठबंधन के भीतर और अपनी-अपनी पार्टियों में भी मतभेदों को दूर करने की जरूरत है।

     

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