उपेन्द्र नाथ राय
आज श्रद्धा की हत्या पर तमाम विचार आ रहे हैं। हत्यारे को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं हैं। हत्या भी जघन्य है। वह कोई असामान्य व्यक्ति ही कर सकता है, लेकिन इस हत्या के पीछे जो बात सामने आ रही है, वह है प्यार के पीछे परिवार का त्याग कर देना, जिससे प्यार किया उसके द्वारा ही शरीर के 35 टुकड़े कर देना। एक-एक टुकड़े को जंगल में फेंक देना। ऐसे दोषी को फांसी की सजा भी कम है।
वह सजा जो मिले, वह तो न्यायालय की बात है, लेकिन इसके पीछे जो हमें करना चाहिए, उस पर आज ध्यान देने की जरूरत है। वह है बच्चों को बेहतर शिक्षा देने से ज्यादा जरूरी है, अपनी संस्कृति व सभ्यता की शिक्षा देना। उन्हें धर्म परायण बनाना। इसके लिए हम सभी को इंडोनेशिया के द्वीप बाली पर जाना होगा। इंडोनेशिया एक मुस्लिम बहुल राष्ट्र है, जहां 85 प्रतिशत मुस्लिम हैं। वहां संविधान बनाते समय एक धर्म के एक ईश्वर की ही पूजा का प्राविधान किया गया। ऐसे में बाली में हिन्दू बहुल द्वीप हैं, जहां 85 प्रतिशत से ज्यादा हिंदू हैं, उन सभी के सामने धर्म को बचाए रखने का संकट आ गया। उन सभी ने मिलकर त्रिदेव को माना, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की मूर्तियां एक में समाहित कर दी गयी। उन्हें मान्यता मिल गयी। आज वहां हर घर में एक मंदिर मिलेगा। उस मंदिर में लोग दिनभर में तीन बार पूजा करते हैं।
यह बताने का तात्पर्य सिर्फ इतना था कि ऐसे में जब बच्चों को अपने धर्म और संस्कृति का ज्ञान बचपन से ही कराएंगे तो वे अपने आप सभ्यता में ढल जाएंगे और परिवार को परिवार की परिभाषा बताने में ज्यादा कठिनाई नहीं होगी। वहां आज भी संयुक्त परिवार चल रहा है। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था, “ अगर युवाओं की उन्नत ऊर्जा को सही दिशा प्रदान कर दी जाय तो राष्ट्र के विकास को नए आयाम मिल सकते हैं।’ हमें वहीं आवश्यकता है, बच्चों को सही दिशा प्रदान करने की।
वर्तमान में बड़े परिवारों में अधिकाशंत: यही होता है कि लोग बड़े स्कूलों में बच्चों का दाखिला करवाकर अपनी जिम्मेदारी भूल जाते हैं। उनके देखभाल के लिए भी नौकर रख दिये जाते हैं। जिन बच्चों को ममत्व नहीं मिल पाएगा, जिन्हें अपनी संस्कृति का भान नहीं होगा। वे तो आगे चलकर अमेरिकी संस्कृति की ओर ही बढ़ेगे।
हमें समझना होगा कि बच्चों को अच्छे स्कूल भेजने से पहले जरूरी है कि हम उन्हें अच्छी संस्कृति की शिक्षा दें। हम उन्हें बतायें कि हमारे धर्म का मतलब क्या है। यह जरूरी है कि हम यह बताएं कि विधर्मी होने का मतलब क्या है। हम उन्हें यह बताएं कि परिवार का अर्थ क्या है। हम उन्हें यह समझाने की कोशिश करें कि वे परिवार के आगे प्यार को तवज्जो न दें।
यह नहीं समझ पाते कि जब आप अपने बच्चों का खुद ख्याल नहीं रख पा रहे हैं तो ऐसे में सैकड़ों बच्चों का वह अध्यापक कैसे ख्याल रख पाएगा। ऐसे में जब तमाम तरह के नियम उन्हें बच्चों पर हाथ उठाने से भी मनाही करते हैं। वह भी अपनी ड्यूटी पूरा किये और चलते बने। बच्चे को संस्कृति की शिक्षा तो दे नहीं सकते।
हमें याद है, जब छोटे थे तो प्राथमिक विद्यालय से लेकर जूनियर हाइस्कूल तक नैतिक शिक्षा की किताब पढ़ाई जाती थी। आज के जमाने में वह गायब है। सभी 45 वर्ष से अधिक उम्र के लोग यह भी भली भांति जानते हैं कि पहले पड़ोसी भी परिवार के सदस्य हुआ करते थे। अब परिवार के सदस्य भी पड़ोसी हो जा रहे हैं। यदि हमारी शिकायत लेकर कोई घर आ जाता था तो पहले तो घर में डंडा से पिटाई होती थी, फिर उसके बाद कोई सवाल पूछता था। बच्चे भी हमेशा पिटाई के लिए तैयार रहते थे। अब तो अपने ही बच्चों को डांट देने पर डर बना रहता है, कहीं वह गलत कदम न उठा ले। यह सब कारण है, हम उसे बालपन से ही सिर्फ स्कूल के भरोसे छोड़ देते हैं।
इस अर्थ के जमाने में लोग संस्कृति की बात करना भी व्यर्थ समझते हैं। जब कोई अनहोनी हो जाती है, तब हमें अपनी संस्कृति के शिक्षा की याद आती है। इससे पहले हम बच्चों को भी सिर्फ पैसा कमाने की ओर ही उन्मुख करते हैं। उसे पैसे के महत्व को बताते हैं। इसका दुष्प्रभाव सिर्फ श्रद्धा हत्याकांड जैसी निर्ममता तक ही सीमित नहीं रह जाता। कई कारणों में एक कारण अपनी संस्कृति के ह्वास का ही है, जो हार्ट अटैक, छोटी उम्र में ही ब्लड प्रेशर जैसे रोग उत्पन्न हो रहे हैं। इसका कारण है, हममें सहनशक्ति न के बराबर रह गयी है। किसी काम में कोई घाटा हुआ नहीं कि नर्वस सिस्टम ही फेल हो जाता है।
हम बच्चों को उच्च शिक्षा से पहले अपनी संस्कृति का कराएं ज्ञान
कोई श्रद्धा की तरह न बने शिकार, जरूरी है नैतिक शिक्षा का ज्ञान कराना | हमें सीखना होगा बाली द्वीप के हिंदुओं से, जहां दिन में तीन बार होती है पूजा | पहले पड़ोसी भी होते थे परिवार के सदस्य, अब परिवार के लोग भी हो गये पड़ोसी