विशेष
पांच साल की मेहनत का फल चाहे जिसे मिले, विकास ही सबका लक्ष्य
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
बस कुछ घंटे और। फिर दुनिया के सामने होगी 24 साल के झारखंड की सबसे बड़ी पंचायत, यानी विधानसभा के छठे संस्करण की तस्वीर। इस विधानसभा में कौन किधर बैठेगा, यह तय हो जायेगा और इसके साथ ही झारखंड की विकास यात्रा का नया अध्याय भी शुरू होगा। पांच साल की सियासी खेती में की गयी मेहनत के बाद अब फसल पक कर तैयार है और इसके काटने का समय आ गया है। कभी भारत में राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में चर्चित इस राज्य ने सियासी मैदान में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन इतना तय है कि इसके बावजूद विकास की इसकी भूख खत्म नहीं हुई है और न इसके सपनों में जंग लगे हैं। झारखंड की साढ़े तीन करोड़ जनता छठी विधानसभा में चुन कर आनेवाले अपने सियासी रहनुमाओं से अब यही उम्मीद लगाये बैठी है कि वे इस राज्य को विकास के रास्ते पर कितनी तेजी से आगे ले जाते हैं। आज पूरा झारखंड इस बात का हिसाब-किताब कर रहा है कि पिछले पांच साल के दौरान राज्य ने क्या हासिल किया और क्या खोया। राजनीतिक स्थिरता के एक दशक के बाद झारखंड में इस बार का चुनाव परिणाम चाहे कुछ भी हो, सत्ता चाहे जिसे मिले, एक बात तय है कि यहां के लोग अब राजनीति की पथरीली जमीन को जानने-समझने लगे हैं। विकास की अपनी भूख और आगे बढ़ने के अपने सपने को पंख देने के लिए झारखंड अब हर वह जतन करने को तैयार है, जिस पर सवार होकर सियासी ताकतें चुनावी फसल काटती हैं। झारखंड को चुनाव परिणाम का इंतजार है और साथ ही इस बात का भी इंतजार है कि उसके फैसले से विधानसभा का क्या रंग उभरता है। शायद झारखंड का यह एक मात्र ऐसा विधानसभा चुनाव है, जहां कोई भी प्रत्याशी या राजनीतिक विशेषज्ञ खुले तौर पर नहीं कह सकता कि राज्य की कमान किस ओर जाने वाली है, या कौन सा प्रत्याशी जीतने ही वाला है। इस बार की फाइट सही मायने में टक्कर वाली ही हुई है। यह झारखंड के भविष्य के लिए अच्छा संकेत है, क्योंकि वोटर्स ने भी इस चुनाव में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। जनमानस के इन सवालों की पृष्ठभूमि में क्या हैं झारखंड की समस्याएं, कैसे विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है झारखंड, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड, यानी दुनिया के सबसे लोकतंत्र के राजनीतिक नक्शे पर 24 साल पहले 15 नवंबर, 2000 को 28वें राज्य के रूप में उभरा राज्य, जिसने इन 24 सालों में 13 मुख्यमंत्री देखे, तीन बार राष्ट्रपति शासन देखा और एक निर्दलीय विधायक को मुख्यमंत्री बनते भी देखा। कभी झारखंड का नाम आते ही जेहन में तस्वीर उभरती थी सियासी लिहाज से अस्थिर राज्य की, राजनीतिक प्रयोगशाला के रूप में चर्चित प्रदेश की, लेकिन इस राज्य के लोगों ने एक दशक पहले इस कलंक को मिटा दिया है। यह राज्य अपनी छठी विधानसभा चुनने के लिए मतदान कर चुका है और अगले कुछ घंटे में यहां के करीब 2.58 करोड़ मतदाताओं का फैसला दुनिया के सामने आ जायेगा। लेकिन झारखंड विधानसभा चुनाव का परिणाम आने से पहले यह जानना जरूरी है कि इस राज्य की सियासी तस्वीर क्या है और क्या है इसका चुनावी इतिहास।
अब तक किसी दल को अकेले बहुमत नहीं मिला
अलग राज्य बनने के 14 साल तक झारखंड ने जो राजनीतिक अस्थिरता झेली, उसके पीछे है यहां की सत्ता का वह अंकगणित, जिसे साध कोई भी सियासी दल बहुमत के लिए जरूरी 41 के जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंच सका। झारखंड विधानसभा की कुल सदस्य संख्या 81 है। इस सदन में बहुमत के लिए जरूरी जादुई आंकड़ा 41 सीटों का है। देखने में यह संख्या भले ही कम लग रही हो, लेकिन झारखंड के चुनावी समर में उतरने वाले हर दल के लिए यही संख्या किसी बहुत ऊंची चोटी से कम नहीं। कम से कम अभी तक हुए चार विधानसभा चुनावों में तो कोई भी दल इस आंकड़े तक नहीं पहुंच सका है। 2014 में भाजपा को 37 विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी और यही यहां के चुनावी इतिहास में किसी दल का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है।
2009 में चार दलों ने पार की थी दहाई की संख्या
झारखंड चुनावों के अतीत पर नजर डालें, तो अब तक केवल एक चुनाव में ऐसा हो सका है, जब चार पार्टियों को 10 या उससे ज्यादा सीटों पर जीत मिली थी। ऐसा 2009 के विधानसभा चुनाव में हुआ था, जब भाजपा और झामुमो, दोनों ही पार्टियों को 18-18 सीटों पर जीत मिली थी। तब कांग्रेस ने भी 14 और झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) ने 11 सीटें जीती थीं। 2009 के विधानसभा चुनाव से पहले या उसके बाद ऐसा कभी नहीं हुआ जब तीन से ज्यादा पार्टियों की सीटें दो अंकों में पहुंची हों।
दो चुनावों में 30 के फेर में फंसे सियासी दल
राज्य के दो चुनाव ऐसे भी रहे, जब सियासी दल 30 के फेर में फंसे। 2005 में भाजपा सबसे बड़ा दल बनकर उभरी, लेकिन सीटें उसकी 30 थीं। यही इतिहास दोहराया गया 2019 में भी, जब झामुमो सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और उसकी सीटें भी 30 ही रहीं। 2005 में झामुमो 17 सीटें जीतकर दूसरे नंबर पर रही थी और तीसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस के पास नौ सीटें थी। 2019 के चुनाव में भी नंबर तीन कांग्रेस ही रही, लेकिन सीटें इस बार 16 थीं।
अब झारखंड की चुनौतियों की बात
आज केवल झारखंड ही नहीं, पूरी दुनिया उस सियासी फसल के कटने का इंतजार कर रही है, जिसे झारखंड में पिछले पांच साल में तैयार किया गया है। राज्य के मतदाताओं ने छठी विधानसभा के लिए अपना फैसला सुना दिया है और इस फैसले की जानकारी कुछ घंटे बाद दुनिया को मिल जायेगी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस फसल के पौष्टिक तत्व केवल उस सियासतदानों को मिल जायेंगे, जो राज्य की सत्ता पर बैठेंगे या फिर यहां की साढ़े तीन करोड़ जनता तक भी उस पौष्टिकता को पहुंचाया जायेगा।
देश के आर्थिक विकास की दौड़ में झारखंड अभी बहुत पीछे है, यह बात सभी जानते हैं, लेकिन इस पिछड़ेपन का कारण क्या है, इस पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया गया। चुनाव परिणाम के इंतजार में बीत रहा आज का दिन उन सवालों पर विचार करने और उन चुनौतियों से पार पाने का रास्ता तलाशने का भी अवसर है, जिसने इस राज्य के विकास की गाड़ी में ब्रेक लगा रखा है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि झारखंड ने इन 24 सालों में प्रगति भी की है, लेकिन वह काफी नहीं है। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर के अलावा रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के स्तर पर अब भी बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है।
इस चुनाव परिणाम का एक रस यह भी होगा कि इसमें उस युवा का फैसला भी नजर आयेगा, जो झारखंड में पैदा हुआ है। इस परिणाम से यह पता चलेगा कि झारखंड में पैदा हुआ वह बच्चा कितना जिम्मेवार, कितना वयस्क और कितना जागरूक बन पाया है। यह भी एक हकीकत है कि तमाम ऊंचाइयां हासिल करने के बावजूद कुछ ऐसी चुनौतियां झारखंड के सामने मुंह बाये खड़ी हैं, जिन्हें हमेशा के लिए खत्म करना अब जरूरी हो गया है।
इन तमाम परिस्थितियों के बीच चुनाव परिणाम जानने की अकुलाहट से इतर एक ही बात झारखंड बार-बार कह रहा है और वह यह कि चुनाव मैदान की कड़वाहट को भूल कर अब बात राज्य-समाज के विकास की हो, आगे बढ़ने की हो और देश के विकास की दौड़ में आगे आने की हो।