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    Home»देश»रणनीति के जादूगर की सियासी हकीकत: क्यों खाली रह गया जनसुराज का खाता?
    देश

    रणनीति के जादूगर की सियासी हकीकत: क्यों खाली रह गया जनसुराज का खाता?

    shivam kumarBy shivam kumarNovember 14, 2025No Comments4 Mins Read
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    पटना। प्रशांत किशोर, जिन्हें एक समय भारतीय राजनीति का चाणक्य कहा गया, ने कई बड़े नेताओं और दलों को ऐतिहासिक जीत दिलाकर देश की चुनावी रणनीति में अपनी अलग पहचान बनाई। लेकिन वहीं पीके जब अपने गृह राज्य बिहार में खुद मैदान में उतरे, तो हालात बिल्कुल उलट रहे। उनकी जनसुराज पार्टी न केवल एक भी सीट नहीं जीत पाई, बल्कि कई उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई।

    बिहार विधानसभा चुनाव में पीके का यह प्रदर्शन राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ है। जिस प्रशांत किशोर ने नरेंद्र मोदी से लेकर ममता बनर्जी और जगन मोहन रेड्डी तक को जीत का रास्ता दिखाया, वही अपने राजनीतिक सफर की पहली बड़ी परीक्षा में असफल साबित हुए।

    जनसुराज पार्टी का खाता भी नहीं खुला
    प्रशांत किशोर ने लंबे समय तक राज्य में जनसुराज पदयात्रा चलाई, ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत करने का दावा किया और सोशल मीडिया पर भी खूब चर्चा बटोरी। उन्हें उम्मीद थी कि बिहार की राजनीति में तीसरे मोर्चे के रूप में वे एक मजबूत विकल्प बनकर उभरेंगे। लेकिन मतगणना के दिन तस्वीर बिल्कुल अलग निकलकर सामने आई।
    जनसुराज पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली और अधिकांश उम्मीदवारों को जहां अपेक्षित वोट नहीं मिले, वहीं कई की जमानत तक जब्त हो गई। इससे साफ है कि जमीन पर पार्टी की पकड़ उतनी मजबूत नहीं थी, जितनी प्रचार में दिखाई दी।

    पीके का चुनावी सफर—कामयाबी से भरा लेकिन बिहार में ठहराव
    प्रशांत किशोर का चुनावी करियर शानदार रहा है। उन्होंने देश की राजनीति में पहली बार एक पेशेवर चुनावी रणनीतिकार की पहचान स्थापित की।

    2012 गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए रणनीति तैयार कर BJP की प्रचंड जीत में अहम भूमिका निभाई।

    2014 लोकसभा चुनाव में ‘अबकी बार मोदी सरकार’ अभियान ने राष्ट्रीय राजनीति का रुख बदल दिया और पीके बड़े स्तर पर सुर्खियों में आए।

    2015 बिहार में वे दूसरी तरफ दिखाई दिए और महागठबंधन को शानदार जीत दिलाई। नीतीश कुमार और लालू यादव की संयुक्त ताकत को जनता का भरोसा दिलाने में PK की रणनीति निर्णायक रही।

    पंजाब 2017 में उन्होंने कैप्टन अमरिंदर सिंह को सत्ताधारी दल के खिलाफ जीत दिलाई।

    आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी को सत्ता तक पहुंचाने में उनकी योजनाएं बेहद प्रभावी रहीं।

    2021 में तमिलनाडु और बंगाल, DMK और TMC दोनों ने उनकी टीम की रणनीति पर भरोसा जताया और दोनों राज्यों में प्रभावशाली जीत दर्ज की।

    इन सभी जीतों से पीके की प्रतिष्ठा लगातार बढ़ती गई और वे चुनावी रणनीति की दुनिया में सबसे चर्चित चेहरा बनकर उभरे। लेकिन जब बात उनकी अपनी पार्टी की आई, तो समीकरण बिल्कुल बदल गए।

    बिहार में क्यों बिगड़े समीकरण?
    बिहार में PK ने जनसुराज पार्टी को एक वैकल्पिक राजनीतिक ताकत के रूप में पेश किया। उन्होंने कहा था कि राज्य की राजनीति बदलाव चाहती है और जनसुराज उसी बदलाव की शुरुआत करेगा। लेकिन कई कारणों से यह अभियान जनता में अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ सका—

    मजबूत संगठन का अभाव – जमीन पर पार्टी का कैडर उतना व्यापक नहीं था जितना अन्य स्थापित दलों का।

    स्थानीय नेतृत्व की कमी – कुछ उम्मीदवार लोकप्रिय थे, लेकिन अधिकांश सीटों पर चेहरों की पहचान कमजोर रही।

    JDU का आक्रामक कमबैक – नीतीश कुमार की पार्टी ने इस चुनाव में 41 सीटों का इज़ाफ़ा कर दिखा दिया कि उनका आधार अभी भी मजबूत है।

    PK की छवि रणनीतिकार की, नेता की नहीं – जनता उन्हें एक सलाहकार के रूप में ज़रूर पसंद करती है लेकिन खुद एक नेता के रूप में स्वीकारने में संकोच दिखाती नजर आई।

    नतीजों पर पीके का मौन
    चुनाव से पहले पीके ने दावा किया था कि जनसुराज बेहतरीन प्रदर्शन करेगी और JDU हार के कगार पर है। उन्होंने यहां तक कहा था कि वे बिहार के विकास के लिए आने वाले 10 वर्षों तक समर्पित रहेंगे।
    लेकिन चुनाव नतीजों के बाद अब तक उन्होंने कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया है। सभी की नजरें PK की अगली चाल पर टिकी हुई हैं—क्या वे आंदोलन जारी रखेंगे, पार्टी को फिर से खड़ा करेंगे या किसी नए राजनीतिक अध्याय की शुरुआत करेंगे?

    पीके की असफलता या नई शुरुआत?
    चुनावी नतीजे भले ही जनसुराज पार्टी के लिए निराशाजनक रहे हों, लेकिन इससे PK के राजनीति में बने रहने की संभावना खत्म नहीं होती। बिहार एक जटिल सामाजिक और राजनीतिक संरचना वाला राज्य है, जहां जनाधार बनाना समय और गहरी पकड़ की मांग करता है।
    पार्टी के कमजोर प्रदर्शन के बावजूद, PK अब भी उन नेताओं में शामिल हैं जिनकी रणनीति को देशभर में गंभीरता से लिया जाता है। आने वाले सालों में यह देखना दिलचस्प होगा कि वे बिहार की राजनीति में अपनी जगह कैसे बनाते हैं।

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