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    Home»Top Story»सूरमाओं के छक्के छुड़ाकर पहली बार में ही पांच महिलाओं ने जीती विधानसभा की जंग
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    सूरमाओं के छक्के छुड़ाकर पहली बार में ही पांच महिलाओं ने जीती विधानसभा की जंग

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskDecember 28, 2019No Comments13 Mins Read
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    राजीव
    रांची। देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली लक्ष्मीबाई यानी झांसी की रानी के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी और वह अपनी वीरता के किस्सों को लेकर किंवदंती बन चुकी हैं। आज झारखंड में विधानसभा की जंग भले ही खत्म हो गयी है, लेकिन आज भी उन पांच महिला उम्मीदवारों की खासी चर्चा है, जिन्होंने राजनीति की जंग में तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद सूरमाओं के छक्के छुड़ाकर विजयश्री का खिताब पाया। इनके बारे में यहां तक कहा जाने लगा है कि राजनीति के मैदान में झांसी की रानी की तरह लड़ी और खूब लड़ी।परिस्थितियां अनुकूल नहीं होने के बाद हिम्मत नहीं हारी और विधानसभा का हिस्सा बन गयीं। जी, हां हम बात कर रहे हैं अंबा प्रसाद, पूर्णिमा नीरज सिंह, दीपिका पांडेय सिंह, ममता देवी और सविता महतो की। इनमें से चार अंबा, पूर्णिमा, दीपिका और ममता को हाथ का साथ मिला, तो सविता महतो ने तरकश से खूब तीर चलाये। ये पांचों नाम सुर्खियों में हैं। दरअसल, पहली बार चुनाव जीतने वाली कांग्रेस और झामुमो की इस सेना में बड़ी मारक क्षमता है। इनकी जीत के बाद कांग्रेस और झामुमो और मजबूत बना है। वैसे 81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा के लिए इस बार दस महिलाओं ने जीत हासिल की है।
    इनकी मारक क्षमता की चर्चा भी खूब हो रही है। मीडिया भी इन्हें हाथोंहाथ लपक रहा है। इन पांचों के लिए राह आसान नहीं थी। काफी विषम परिस्थिति थी। अंबा प्रसाद ने बड़कागांव में आजसू और बीजेपी को हराया। पूर्णिमा नीरज सिंह और दीपिका सिंह ने क्रमश: झरिया तथा महगामा में बीजेपी से सीट छीनी है। ममता देवी ने रामगढ़ में आजसू के चंद्रप्रकाश का किला ध्वस्त किया। वहीं सविता महतो ने ईचागढ़ में कमल की पंखुड़ी को तोड़ने में कामयाबी हासिल की।

    अंबा ने आंसू, आंचल और हुनर का चलाया ब्रह्मास्त्र
    28 साल की अंबा प्रसाद के लिए राजनीति एकदम नयी बात थी। एक तरफ आजसू के रोशनलाल चौधरी पूरे दम-खम के साथ चुनावी मैदान में थे, तो दूसरी ओर तीन बार विधायक रहे लोकनाथ महतो ताल ठोंक रहे थे। इन सबके बीच 28 साल की अंबा के लिए राह इसलिए भी कठिन थी, कि चुनाव में न पिता का साथ मिला और न मां का सहयोग। अंबा अकेले इस जंग में जुटी रहीं। इधर, गठबंधन के पक्ष में अंदर ही अंदर चलती हवाएं उनके काम आयीं। 2014 के चुनाव में निर्मला देवी से महज चार सौ वोटों से हारने वाले आजसू के रोशनलाल चौधरी कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज लेकर फिर मैदान में थे। पैसे की भी कोई कमी नहीं थी। उधर, बीजेपी ने बड़कागांव से ही तीन बार के विधायक लोकनाथ महतो को मैदान में उतार दिया था। लड़ाई त्रिकोणीय रही। पिछले चुनाव में 400 वोटों से हारे रोशनलाल चौधरी ने पांच साल तक कभी मैदान नहीं छोड़ा था। इस बार चुनाव में सुदेश कुमार महतो, चंद्रप्रकाश चौधरी सरीखे दिग्गजों ने उनके लिए मोर्चा खोला। उधर, अंबा जमीन के सवाल पर आंदोलन की हवा को अपने पक्ष में करने की कोशिशें करती रहीं। साथ ही गठबंधन के वोटों को लामबंद करने के लिए उन्होंने पूरा ध्यान लगाया। अंबा के लिए आंसू, आंचल और हुनर ही सबसे बड़ा हथियार बना। राहुल गांधी की बड़कागांव में रैली से उनका भरोसा बढ़ा।
    बड़कागांव में मतदान होने के बाद आजसू और अंबा के बीच कांटे की तस्वीर उभरी, लेकिन जब वोटों की गिनती शुरू हुई, तो अंबा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्हें 99 हजार 994 वोट मिले। वह रोशनलाल चौधरी से 31 हजार 514 वोटों के अंतर से जीतीं। जीत के बाद उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि इस चुनाव ने साबित किया है कि उनके माता-पिता निर्दोष हैं और हक-अधिकार, जमीनी विकास, शिक्षा में सुधार, जमीन की सुरक्षा को लेकर यहां की जो लड़ाई है, उसे आवाज देने में वे कतई पीछे नहीं हटेंगी। बताते चलें कि पूर्व मंत्री योगेंद्र साव और 2014 में बड़कागांव से कांग्रेस के टिकट पर ही चुनाव जीतीं निर्मला देवी की बेटी हैं अंबा प्रसाद। इससे पहले इनके पिता योगेंद्र साव 2009 में चुनाव जीते थे। अभी वे जेल में हैं। सजा के बाद वे चुनाव लड़ने के अयोग्य हैं। अंबा की मां निर्मला देवी कोर्ट के आदेश पर झारखंड बदर हैं। बड़कागांव में किसानों-रैयतों की जमीन अधिग्रहण को लेकर आंदोलन की कमान संभालने में योगेंद्र साव और निर्मला देवी अगली कतार में शामिल रहे हैं। अंबा ने वह दौर भी देखा है जब उनके पिता, माता और भाई तीनों जेल में थे। तब वह दिल्ली में यूपीएससी की तैयारी कर रही थीं। मैनेजमेंट और कानून की पढ़ाई पूरी करने वाली अंबा दिल्ली से लौट आयीं। इसके बाद उन्होंने बड़कागांव में राजनीतिक विरासत संभाला। बड़कागांव की जनता ने भी इस बेटी को सिर आंखों पर बैठाया।

    झरिया में देवरानी पूर्णिमा के सिर पर ताज
    इस चुनाव में झरिया का मुकाबला काफी रोचक रहा। यह सीट बेहद चुनौतीपूर्ण मानी जा रही थी। झरिया की जंग जेठानी और देवरानी के बीच थी। इस कारण भी सबकी निगाहें यहां टिकी थीं। इस सीट को देवरानी ने जेठानी से झटक लिया है। झरिया विधानसभा सीट की चुनावी जंग में कांग्रेस की उम्मीदवार पूर्णिमा सिंह ने जीतीं।
    इस क्षेत्र को कोयलांचल के नाम से भी जाना जाता है। जहां इस बार भी सूर्यदेव सिंह के परिवार की दो बहुएं आमने-सामने थीं। सूर्यदेव सिंह की बहू और पूर्व विधायक संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह को बीजेपी ने अपना उम्मीदवार बनाया था। वहीं कांग्रेस ने सूर्यदेव सिंह के छोटे भाई राजनारायण सिंह की बहू और पूर्व डिप्टी मेयर नीरज सिंह की पत्नी पूर्णिमा सिंह को चुनाव मैदान में उतारा था। एक तरफ पूरा सिंह मेंशन था, तो दूसरी ओर अकेले पूर्णिमा सिंह आंचल फैलाये चुनावी मैदान में थीं।
    कोयलांचल की सबसे चर्चित सीटों में गिनी जाने वाली झरिया विधानसभा सीट पर सूर्यदेव सिंह के परिवार के सदस्यों के बीच सियासी घमासान पहले भी देखने को मिला था। साल 2014 के चुनाव में इस सीट से बीजेपी के टिकट पर सूर्यदेव सिंह के पुत्र संजीव सिंह और कांग्रेस के टिकट पर उनके भतीजे नीरज सिंह ने चुनाव लड़ा था, तब चुनावी बाजी संजीव के हाथ लगी थी। इसके बाद साल 2017 में नीरज सिंह की हत्या हो गयी, जिसका आरोप संजीव सिंह पर लगा और वह फिलहाल जेल में हैं। इस बार बीजेपी ने संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह को उतारा, जिनके मुकाबले कांग्रेस ने नीरज सिंह की पत्नी पूर्णिमा सिंह को उतारकर एक बार फिर यहां की सियासी जंग को सिंह परिवार में ही समेट दिया। पूर्णिमा नीरज सिंह ने बीजेपी की रागिनी सिंह को 12 हजार 54 वोट से हराया।
    इस बार झरिया में बीजेपी अपनी जीत बरकरार रखने के लिए कोई दांव खाली जाने नहीं देना चाहती थी। वहीं पूर्णिमा नीरज सिंह अपने पति की लोकप्रियता और झरिया की समस्या को लेकर किये गये कार्यों को लेकर लोगों के बीच जाती रहीं।
    पूर्णिमा ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ अपने पति के समर्थकों को लामबंद करना शुरू किया और कोयला मजदूरों में कुंती गुट की पैठ को भी तोड़ा। पूर्णिमा जानती थीं कि लड़ाई बड़ी है, लेकिन उन्होंने खुद पर भरोसा रखा और पूरे प्रचार के दौरान वे लोगों के बीच यह स्थापित करने की कोशिशों में जुटी रहीं कि झरिया ने बहुत कुछ खोया है और इसके लिए जो जिम्मेदार हैं, उनकी ताकत छीन लीजिए। झरिया आगलगी क्षेत्र की बस्तियों में पूर्णिमा बार-बार जाती रहीं। डिप्टी मेयर के तौर पर उनके पति ने जिन इलाकों में प्रभाव कायम किया था, वह उनके काम तो आया ही, पति के पुराने संबंधों का वास्ता देकर उन्होंने कई लोगों को साथ जोड़ा।
    सहानुभूति की लहरों और बीजेपी से अंसतोष की हवा का उन्होंने लाभ उठाने की पूरी कोशिश कीं। इधर बीजेपी के दिग्गजों का जब झरिया में प्रचार तेज हुआ, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट सरीखे नेता कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में फिजां तैयार करने पहुंचे। नतीजे आये, तो पूर्णिमा बीजेपी की घेराबंदी तोड़ने में सफल रहीं।

    भाजपा के चक्रव्यूह को भेद डाला दीपिका ने
    महगामा से चुनाव जीतीं दीपिका सिंह पांडेय राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़ी रही हैं। युवा कांग्रेस और राहुल ब्रिगेड में भी अहम जिम्मेदारी संभालने का उन्हें अनुभव रहा है। वह गोड्डा जिला कांग्रेस की अध्यक्ष भी रही हैं। अभी भारतीय महिला कांग्रेस में सचिव की पद पर तैनात दीपिका सिंह पांडेय रांची की बेटी हैं और रांची में संत जेवियर कॉलेज तथा एक्सआइएसएस से पढ़ी हैं। महगामा से चुनाव लड़ने के लिए वे काफी पहले से जमीनी संघर्ष कर रही थीं और जब कांग्रेस ने उम्मीदवार घोषित किया, तो वह समीकरणों के सारे तार जोड़ने में तल्लीनता से जुड़ गयीं। स्थानीय सवालों को लेकर महिलाओं के बीच लगातार उनकी मौजूदगी का भी असर रहा। गठबंधन का साझा उम्मीदवार होने का भी उन्हें लाभ मिला।
    नतीजे बताते हैं कि सोशल साइट पर दीपिका की टीम ने अच्छा काम कर हवा अपने पक्ष में करते रहे। खुद दीपिका फेसबुक और ट्विटर पर मुद्दों, सवालों के साथ बीजेपी की घेराबंदी करती रहीं। महागामा में मुस्लिम और कुर्मी वोट भी अहम फैक्टर हैं। ओवेसी की पार्टी एआइएमआइएम से उम्मीदवार खड़ा किये जाने के बाद शुरुआती दौर में वह खुद को थोड़ा असहज महसूस कर रही थीं। लेकिन धीरे-धीरे समीकरण उनके पक्ष में आते चले गये। हेमंत सोरेन के प्रचार से भी उन्हें बहुत बल मिला। ससुराल पक्ष ने भी बहू की जीत के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। दीपिका सिंह पांडेय के ससुर महगामा के विधायक रह चुके हैं और उनकी छवि भी प्रभावी रही है।
    इधर बीजेपी के उम्मीदवार और दो बार चुनाव जीते अशोक मंडल ने भी कांग्रेस की घेराबंदी की कोई कसर नहीं छोड़ी। बीजेपी ने महागामा की सीट बचाने के लिए व्यूह रचना कर दी थी, लेकिन अभिमन्यु की तरह दीपिका ने भाजपा के चक्रव्यूह का भेद डाला और विजयश्री हासिल की। उन्हें 89 हजार 225 और बीजेपी के अशोक मंडल को 76 हजार 725 वोट मिले। उम्मीद की जा रही है कि दीपिका नयी सरकार के मंत्रिमंडल में भी होंगी।

    सविता ने रचा इतिहास, पहली बार किसी महिला को ईचागढ़ की कमान
    सरायकेला-खरसावां की ईचागढ़ विधानसभा सीट से झामुमो प्रत्याशी सविता महतो ने जीत दर्ज कर नया इतिहास रचा है। ईचागढ़ विधानसभा सीट से जीत दर्ज करने वाली सविता महतो पहली महिला बनीं। उन्होंने आजसू प्रत्याशी हरेलाल महतो को 18 हजार 710 वोट से पराजित किया। आजसू के हरेलाल महतो दूसरे स्थान पर रहें। सविता महतो को कुल 57,546 वोट प्राप्त हुए। हरेलाल महतो को कुल 38,836 वोट मिले। तीसरे स्थान पर भाजपा के साधुचरण महतो रहे जिनको 38,485 वोट मिले। ईचागढ़ विधानसभा से 31 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे।
    तमाम प्रत्याशियों को पछाड़ते हुए उन्होंने जीत का परचम लहराया। शुरुआत में प्रत्याशियों के बीच कांटे की टक्कर थीं। सविता के लिए राह आसान नहीं थी, लेकिन चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद प्रतिद्वंद्वियों की बोलती बंद हो गयी। ईचागढ़ सीट से विजयी रहे झामुमो की सविता महतो ने अपनी जीत को जनता एवं महागठबंधन की जीत बताया। सविता की इस जीत के पीछे बहुत बड़ा हाथ उनकी बेटी का माना जाता है। झारखंड के पूर्व डिप्टी सीएम सुधीर महतो की पत्नी सविता महतो महागठबंधन की प्रत्याशी थीं। उनके प्रचार-प्रसार का जिम्मा उनकी पुत्री स्नेहा महतो ने संभाल रखा था। स्नेहा लगातार क्षेत्र का दौरा कर अपनी मां के लिए जनसंपर्क करती नजर आयीं। स्नेहा अपने चाचा स्वर्गीय निर्मल महतो और पिता स्वर्गीय सुधीर महतो के सपनों को साकार करने के लिए झामुमो को एक मौका देने की अपील कर रही थीं। इसका भी असर रहा कि ईचागढ़ की जनता ने सविता पर खूब स्नेह लुटाया। ईचागढ Þमें मुख्य मुकाबला बीजेपी-जेएमएम में पहले से था लेकिन आजसू और निर्दलीय बाहुबली अरविंद सिंह के मैदान में आ जाने के कारण सविता की चिंता लाजिमी थी, लेकिन वह पूरे दम-खम के साथ चुनाव लड़ी। बुलंद हौसले और पार्टी का भरपूर साथ मिलने के कारण उन्होंने बड़े-बड़े योद्धाओं को चुनावी अखाड़े में धूल चटा दी।

    ममता के पंजे के प्रहार से आजसू का किला ध्वस्त
    विधानसभा चुनाव के पहले रामगढ़ विधानसभा चुनाव का जिक्र आते ही हर किसी के सामने ‘केला’ ही परिलक्षित हो रहा था, लेकिन चुनाव का परिणाम यह बताने के लिए काफी है कि किस तरह ममता के ‘पंजा’ ने बड़े से बड़े सूरमाओं को यहां ढेर कर दिया। 29 जुलाई 2018 को ममता देवी ने जब कांग्रेस का दामन थामा था, तो रामगढ़ की सियासत में हलचल होने लगी थी कि इस बार वह आजसू के खिलाफ चुनाव लड़ेंगी। लेकिन किसी को सहसा विश्वास नहीं हो रहा था कि रामगढ़ में ममता देवी इस बार इतिहास लिख देंगी। कारण रामगढ़ को आजसू का अभेद्य किला माना जाता रहा है।
    2005, 2009 और 2014 में लगातार जीत के बाद चंद्रप्रकाश चौधरी राज्य की राजनीति में अहम भूमिका में रहे हैं। चुनावी परिणाम पर गौर करें, तो हर चुनाव में चंद्रप्रकाश चौधरी का वोट बैंक बढ़ता गया। इस बीच 2019 के लोकसभा चुनाव में चंद्रप्रकाश चौधरी गिरिडीह से सांसद का चुनाव जीते।
    रामगढ़ विधानसभा से उन्होंने इस्तीफा दिया और राजनीतिक विरासत संभालने के लिए उनकी पत्नी सुनिता चौधरी आगे आयीं। रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र में गोला प्रखंड के एक छोटे कस्बे की रहने वाली ममता देवी साल 2015 में गोला मध्य क्षेत्र से जिला परिषद का चुनाव जीती थीं। तब वह आजसू की ही समर्थक थीं, लेकिन चुनाव में मौका नहीं दिये जाने से चंद्रप्रकाश चौधरी के बेहद करीबी चंदर महतो के खिलाफ वह मैदान में कूद पड़ीं। चंदर महतो तथा आजसू के कार्यकर्ताओं के तमाम दांव-पेंच को तोड़ते हुए ममता जिप का चुनाव जीत गयीं, इससे पहले वह आंगनबाड़ी सेविका थीं। इधर साल 2016 में गोला में ही इनलैंड पावर प्लांट के खिलाफ स्थानीय और विस्थापन के सवाल पर आंदोलन की अगुवाई कर रही ममता देवी को जेल जाना पड़ा। प्लांट का घेराव कर रहे लोगों पर गोलियां चलायी गयी थीं, जिसमें दो ग्रामीण मारे गये थे। यही से ममता की राजनीति ने यू टर्न ली। सात महीने जेल में रहकर ममता देवी जेल से बाहर निकलीं, तो जगह-जगह उनका स्वागत किया गया। तभी से वह राजनीतिक सुर्खियों में आयीं और रामगढ़ में आजसू के विकल्प के तौर पर उन्हें देखा जाने लगा। इस बार बीजेपी से गठबंधन नहीं होने की वजह से रामगढ़ में पार्टी ने रणंजय कुमार उर्फ कुंतू बाबू को मैदान में उतारा था। चुनावीनतीजे बताते हैं कि बीजेपी के उम्मीदवार उतारने से शहरी इलाके में आजसू को वोटों के समीकरणों के हिसाब से मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। रामगढ़ जिला परिषद और नगर पर्षद के अधिकतर पदों पर आजसू का कब्जा है। जाहिर है चुनावी मोर्चा पर सभी लोग जिम्मेदारी निभाते रहे। जबकि चुनाव की पूरी कमान चंद्रप्रकाश चौधरी ही संभालते रहे। सुनिता चौधरी के नॉमिनेशन मेें उमड़ी भीड़ भी अलग कहानी कह रही थी।
    14 सालों में चंद्रप्रकाश चौधरी द्वारा किये गये विकास कार्यों को आजसू ने मुद्दा बनाया। वहीं आजसू के पक्ष में युवा और महिलाओं की बड़ी तादाद प्रचार में जुटे रहे। इधर ममता देवी चुनाव में जेल जाने की घटना की बखूबी चर्चा करती रहीं। अलबत्ता सलाखों के पीछे और जेल से बाहर आने के बाद सात माह के बच्चे के साथ मुलाकात से जुड़ी तस्वीरों का इस्तेमाल किया गया। कई चुनावी सभा में भाषण के दौरान ममता रो पड़ीं। हेमंत सोरेन ने भी उनके समर्थन में गोला में बड़ी सभा की।
    नतीजे बताते हैं कि ममता देवी के पक्ष में मुस्लिम और आदिवासी वोटों का समीकरण एकमुश्त काम आया। साथ ही कुर्मी वोटरों का समर्थन लेने में वह सफल रहीं। इस तरह से उन्होंने चंद्रप्रकाश के गढ़ को भेद डाला। दूसरी ओर आजसू में भी अंदरखाने में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं था। इसे भी ममता ने कैच किया। हालांकि आखिरी समय में रणनीतिकार चंद्रप्रकाश चौधरी ने इसे भांप लिया था, वे परिस्थितियों को संभालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते रहे, पर परिणाम को अपने पक्ष में नहीं कर सके। ममता देवी को रिकॉर्ड 99 हजार 944, आजसू की सुनीता चौधरी को 71 हजार वोट मिले। ममता देवी कहती हैं कि जनता से मिले प्यार का पाई-पाई हिसाब अदा करूंगी।

    Five women won the assembly battle for the first time by ridding the sixes of the sun
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