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• धर्मांतरण की साजिश को बेनकाब और आदिवासी हितों की रक्षा का फार्मूला है डीलिस्टिंग: कड़िया मुंडा

देश में डीलिस्टिंग के मामले को लेकर आदिवासी संगठनों की मुहिम तेज हो गयी है। इसका असर झारखंड में भी देखने को मिल रहा है। डीलिस्टिंग को लेकर रांची के मोरहाबादी मैदान में 24 दिसंबर को उलगुलान आदिवासी डीलिस्टिंग महारैली का आयोजन किया गया, जिसमें राज्य के कोने-कोने से बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय के लोगों ने हिस्सा लिया। दरअसल, डीलिस्टिंग का मुद्दा आदिवासी-जनजातीय समुदाय की एक बड़ी आबादी के धर्मांतरण के खिलाफ मुहिम है। इस आंदोलन का मुख्य एजेंडा इसाई, इस्लाम या किसी अन्य धर्म में धर्मांतरित हो चुकी आबादी को संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक आदिवासियों को दी जा रही आरक्षण की सुविधा से हटाना है। इस तरह साफ है कि डीलिस्टिंग का यह आंदोलन देश के आदिवासी इलाकों में कई दशकों से चल रहे धर्मांतरण के खिलाफ एक सशक्त आवाज है और भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुकूल है। धर्मांतरण केवल झारखंड में ही नहीं, देश भर में निवास कर रहे आदिवासी समुदाय की पहचान, अस्मिता और अधिकारों पर करारा प्रहार करता है। इसलिए यह मुद्दा बहुत पहले उठाया जा चुका है, लेकिन कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीतियों के कारण इस आंदोलन को सशक्त आवाज नहीं मिली। अब एक बार फिर झारखंड से यह आंदोलन शुरू हुआ है और छत्तीसगढ़ तथा मध्यप्रदेश जैसे प्रदेशों से भी इसके समर्थन में आवाज उठने लगी है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि डीलिस्टिंग का आंदोलन सियासी रूप से भी गरमा गया है। कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बंधु तिर्की ने कहा है कि डीलिस्टिंग महारैली केवल आरएसएस का फार्मूला लागू करने का प्रयास था। जमीन लूटनेवालों के खिलाफ क्यों नहीं बोलती भाजपा और उससे जुड़े संगठन। डीलिस्टिंग को लेकर जिस तरह का माहौल झारखंड में बन रहा है, उससे साफ है कि झारखंड में इसका असर आगामी चुनावों में देखने को मिल सकता है। डीलिस्टिंग का सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस को होगा। इसलिए वह अभी से ही इसका विरोध करने लगी है। दूसरी तरफ भाजपा के लिए झारखंड के आदिवासी इलाकों में अपनी पकड़ दोबारा मजबूत करने में यह आंदोलन मददगार साबित हो सकता है। क्या है डीलिस्टिंग और क्या है इस आंदोलन का इतिहास, भविष्य और सियासी असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

15 नवंबर 2000 को भारत के 28वें राज्य के रूप में उभरे झारखंड में इन दिनों एक अलग ही आंदोलन की आवाज गूंज रही है। यह आवाज है डीलिस्टिंग आंदोलन की। इस मुद्दे को लेकर 24 दिसंबर को रांची के मोरहाबादी मैदान में उलगुलान रैली हो चुकी है, जिसमें झारखंड के कोने-कोने से बड़ी संख्या में आदिवासियों ने हिस्सा लिया और डीलिस्टिंग की मांग का समर्थन किया। जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले डीलिस्टिंग की मांग जबरदस्त तरीके से इस जनजाति बाहुल्य राज्य में अपना प्रभाव पैदा कर रही है। मंच के मुख्य संरक्षक सह पूर्व सांसद पद्मश्री कड़िया मुंडा ने कहा कि यह आदिवासी-जनजातीय समुदाय की बड़ी आबादी के धर्मांतरण के खिलाफ मुहिम है। उन्होंने कहा कि इसाई धर्म में परिवर्तित होते ही व्यक्ति अपने संस्कार त्याग देता है। जो व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक के अपने परंपरागत 16 संस्कार त्याग देता है, वह आदिवासी नहीं रह जाता है। इसलिए जो आदिवासी नहीं है, उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। कड़िया मुंडा ने कहा कि देश की सात सौ से ज्यादा जनजातियों के विकास और उन्नति के लिए संविधान में आरक्षण सहित अन्य सुविधाओं का प्रावधान किया गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन सुविधाओं का लाभ जनजातियों के स्थान पर धर्मांतरित लोगों को मिल रहा है। धर्मांतरित लोग अपनी रुढ़ियों, प्रथाओं और परंपरा-संस्कृति को त्याग कर इसाई या मुस्लिम बन गये हैं। मंच का कहना है कि जनजातियों को सशक्त बनाने के लिए परंपरागत कानून, वनाधिकार सहित अन्य प्रावधान किये गये हैं, लेकिन धर्मांतरित लोग अपनी संस्कृति, आस्था और परंपराओं को त्याग कर इसाई या मुस्लिम बन गये हैं। आरक्षण सहित अन्य सुविधाओं का 80 फीसदी फायदा ऐसे लोग उठा रहे हैं। ऐसे में यदि रुढ़ियों और परंपराओं को त्याग कर इसाई या मुस्लिम बन गये लोग आरक्षण का लाभ लेंगे, तो यह अन्याय होगा।
युवा आदिवासी नेता सन्नी उरांव का कहना है कि आदिवासियों के लिए आरक्षित विधानसभा और लोकसभा सीटों पर इसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके लोग खड़े होते हैं और येन-केन-प्रकारेण जीतते हैं। यह आदिवासी हितों के खिलाफ है।

क्या है डीलिस्टिंग का मतलब
जनजाति समाज में आजकल डीलिस्टिंग के पक्ष में जबरदस्त तर्क रखे जा रहे हैं। ये संवैधानिक और जनजातीय परंपराओं के अनुकूल भी हैं। असल में जनजाति वर्ग को विशेषाधिकार संविधान में उनके पिछड़ेपन और समग्र सशक्तिकरण के लिए सुनिश्चित किये गये हंै। इसका आधार विशुद्ध रूप से जनजाति पहचान है। धार्मिक आधार पर संविधान किसी तरह के आरक्षण की व्यवस्था को स्पष्ट रूप से निषिद्ध करता है। डीलिस्टिंग का मामला इसी संवैधानिक प्रावधान की बुनियाद पर खड़ा है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में परिभाषित किया गया है।

धर्मांतरण ने बिगाड़ दिया संविधान का पवित्र उद्देश्य
यह तथ्य सर्वविदित है कि देश में इसाई मिशनरियों के धर्मांतरण अभियान ने जनजाति वर्ग के लाखों लोगों को जनजातीय हिंदू से इसाई बना दिया है। उनके नाम और उपनाम से ही स्पष्ट है कि वे अपनी जनजातीय पहचान को विलोपित कर चुके हैं, यानी वे मूलत: जनजाति से इसाई या मुस्लिम धर्म में धर्मांतरित हो चुके है। भारतीय संविधान धार्मिक आधार पर किसी भी विशेषाधिकार को निषिद्ध करता है।

80 फीसदी आरक्षण का लाभ धर्मांतरित लोगों के पास
झारखंड के अलावा मध्यप्रदेश, ओड़िशा, छतीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और पूर्वोत्तर के राज्यों में जनजाति वर्ग के हिस्से का 80 फीसदी फायदा धर्मांतरण के जरिये इसाई या मुस्लिम बन चुके लोग उठा रहे हैं। जनजाति सुरक्षा मंच के लोग बताते हैं कि उनके समाज में मिशनरियों का दखल इतना अधिक हो चुका है कि परंपराओं को भी खतरा महसूस हो रहा है। खूंटी, गुमला, लोहरदगा, चाईबासा, सरायकेला-खरसावां, दुमका आदि जिलों के कुछ इलाकों में 80 फीसदी तक धर्मांतरण हो चुका है और गांव के आंगनबाड़ी से लेकर शिक्षक, नर्स, ग्राम सेवक, सेल्समैन, पंचायत सचिव सभी लोग मिशनरी के साये से निकली नामधारी जनजाति के हैं, लेकिन असल में वे सभी इसाई हैं।

जेवियर बने पर लाभ जनजाति का
मंच के लोग खूंटी जिले के एक गांव के निवासी फ्रांसिस जेवियर का उदाहरण देते हैं। यह युवक अपने साथियों को यह समझा रहा है कि मिशनरियों के स्कूल, अस्पताल, हॉस्टल में जाने से कैसे उसके जैसे लोगों की जिंदगी में सब बढ़िया ही बढ़िया हो गया है। जेवियर खुद सरकारी अस्पताल में टेक्नीशियन है। उसकी मां नर्स, पिता गुमला में सरकारी कर्मचारी हैं और छोटे भाई-बहन भी मिशन स्कूल में पढ़ रहे हैं। जेवियर और उसके परिवार ने अपने दस्तावेजों में आज भी खुद को जनजाति के रूप में कायम कर रखा है, ताकि जनजाति वर्ग के आरक्षण का फायदा मिलता रहे। सच्चाई यह है कि जेवियर जनजाति न रह कर अब इसाई हो चुका है और इस आधार पर वह संवैधानिक रूप से किसी भी आरक्षण का पात्र नहीं है।

अनुच्छेद 341 में हो चुका है संशोधन, 342 क्यों अछूता
संविधान के अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जाति और 342 में जनजाति के संरक्षण और आरक्षण का प्रावधान किया गया था। 1956 में अनुसूचित जाति के प्रावधान में डीलिस्टिंग को जोड़ दिया गया, यानी अनुसूचित जाति का कोई भी सदस्य अपनी पहचान (हिंदू) छोड़ कर अन्य धर्म में जाता है, तो उसे 341 के सरंक्षण से वंचित होना पड़ता है। बाद में इसमें हिंदू के साथ सिख और बौद्ध भी जोड़ दिये गये, लेकिन जनजातियों के मामले में अनुच्छेद 342 पर अभी तक ऐसा प्रावधान नहीं जोड़ा गया। इसी का फायदा उठा कर देश भर में मिशनरियों और जिहादी तत्वों ने धर्मांतरण का पूरा तंत्र खड़ा कर लिया है।

बाबा कार्तिक उरांव ने 1967 में पेश किया था डीलिस्टिंग प्रस्ताव
डीलिस्टिंग का मुद्दा आज का नहीं है। देश के पूर्व नागरिक उड्डयन और संचार मंत्री सह आदिवासियों के बड़े नेता कार्तिक उरांव ने 70 के दशक में ही इस पहचान के संकट को समझ लिया था। कार्तिक उरांव अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। 1967 में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लोहरदगा से चुनाव लड़ा और सांसद बने। 1977 की जनता लहर का अपवाद छोड़ दें, तो अपनी मृत्यु (1981) तक वह लोहरदगा का प्रतिनिधित्व लोकसभा में करते रहे। 8 दिसंबर 1981 को संसद भवन में ही दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गयी। सबसे पहले उन्होंने ही डीलिस्टिंग का मुद्दा उठाया था।

धर्मांतरण को लेकर मुखर रहते थे कार्तिक उरांव
कार्तिक उरांव धर्मांतरण संबंधी सभी बातों को लेकर काफी मुखर रहते थे। वनवासी कल्याण आश्रम के बाला साहब देशपांडे से उनका जीवंत संपर्क था और यही कांग्रेस को खटकता था। कार्तिक उरांव ने विभिन्न कार्यक्रमों में वनवासियों से कहा था कि इसा से हजारों वर्ष पहले वनवासियों के समुदाय में निषादराज गुह, माता शबरी, कण्णप्पा आदि हो चुके हैं, इसलिए हम सदैव हिंदू थे और हिंदू रहेंगे।

हम हिंदू पैदा हुए और हिंदू ही मरेंगे
जीवन के अंतिम वर्षों में कार्तिक उरांव ने साफ कहा था, हम एकादशी को अन्न नहीं खाते, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा, विजया दशमी, राम नवमी, रक्षाबंधन, देवोत्थान पर्व, होली, दीपावली आदि धूमधाम से मनाते हैं। ओ राम ओ राम कहते-कहते हम उरांव नाम से जाने गये। हम हिंदू पैदा हुए और हिंदू ही मरेंगे।

1969 में संसदीय समिति डीलिस्टिंग की अनुशंसा कर चुकी है
बाबा कार्तिक उरांव वनवासियों के धर्मांतरण से क्षुब्ध थे। इसलिए 1967 में संसद में उन्होंने अनुसूचित जनजाति आदेश संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। इस विधेयक पर संसद की संयुक्त समिति ने बहुत छानबीन की और 17 नवंबर 1969 को अपनी सिफारिशें दीं। उनमें प्रमुख सिफारिश यह थी कि कोई भी व्यक्ति, जिसने जनजातीय मतों तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और इसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जायेगा, अर्थात धर्मांतरण करने के बाद उस व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलनेवाली सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा। संयुक्त समिति की सिफारिश के बावजूद एक वर्ष तक इस विधेयक पर संसद में बहस ही नहीं हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर इसाई मिशनरियों का जबरदस्त दबाव था कि वह इस विधेयक का विरोध करें। इसाई मिशनरियों के प्रभाव वाले 50 संसद सदस्यों ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा कि इस विधेयक को खारिज किया जाये।

348 सांसदों की मांग खारिज कर दी थी इंदिरा गांधी ने
कांग्रेस में रहते हुए इस मुहिम के विरोध में अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगा कर कार्तिक उरांव ने लोकसभा के 322 सदस्यों और राज्यसभा के 26 सदस्यों के हस्ताक्षरों वाला एक पत्र इंदिरा गांधी को दिया, जिसमें यह जोर देकर कहा गया था कि वह विधेयक की सिफारिशों को स्वीकार करें, क्योंकि यह तीन करोड़ वनवासियों के जीवन-मरण का प्रश्न है। लेकिन इसाई मिशनरियों का एक प्रभावी अभियान पर्दे के पीछे से चल रहा था। नतीजतन विधेयक ठंडे बस्ते में पटक दिया गया।

इसाई लॉबी के आगे झुकी रही सरकार
16 नवंबर 1970 को इस विधेयक पर लोकसभा में बहस शुरू हुई। इसी दिन नागालैंड और मेघालय के इसाई मुख्यमंत्री दबाव बनाने के लिए दिल्ली पहुंचे। मंत्रिमंडल में दो इसाई राज्यमंत्री थे। उन्होंने भी दबाव की रणनीति बनायी। इसी के चलते 17 नवंबर को सरकार ने एक संशोधन प्रस्तुत किया कि संयुक्त समिति की सिफारिशें विधेयक से हटा ली जायें।

इंदिरा गांधी ने बीच में रुकवा दी लोकसभा में बहस
बहस के दिन सुबह कांग्रेस ने एक ह्विप अपने सांसदों के नाम जारी किया, जिसमें इस विधेयक में शामिल संयुक्त समिति की सिफारिशों का विरोध करने को कहा गया था। कार्तिक उरांव संसदीय संयुक्त समिति की सिफारिशों पर 55 मिनट बोले। वातावरण ऐसा बन गया कि कांग्रेस के सदस्य भी ह्विप के विरोध में संयुक्त समिति की सिफारिशों के समर्थन में वोट देने की मानसिकता में आ गये। अगर यह विधेयक पारित हो जाता, तो वह एक ऐतिहासिक घटना होती। स्थिति को भांप कर इंदिरा गांधी ने इस विधेयक पर बहस रुकवा दी और कहा कि सत्र के अंतिम दिन इस पर बहस होगी। किंतु ऐसा नहीं होना था। 27 दिसंबर को लोकसभा भंग हुई और कांग्रेस द्वारा आदिवासियों के धर्मांतरण को मौन सहमति मिल गयी।

धर्मांतरण और जनजातीय आरक्षण का गणित
मंच के कार्यकर्ताओं द्वारा किये गये एक स्वतंत्र शोध के निष्कर्ष बताते हैं कि कार्तिक उरांव जो चिंता 70 के दशक में व्यक्त कर रहे थे, वह 70 साल में कितनी विकराल हो चुकी है। स्वास्थ्य क्षेत्र में कुल जनजातीय प्रतिनिधित्व का 67 फीसदी इसाई और अन्य धर्म में जा चुके लोग कर रहे हैं। शिक्षा क्षेत्र में करीब 69 प्रतिशत आरक्षण का लाभ जनजाति की आड़ में मिशनरियों के जरिये धर्मांतरण कर चुके लोग उठा रहे हैं। राजस्व, लोक निर्माण, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकीय, चिकित्सा शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, ग्रामीण विकास और पंचायती राज जैसे महकमों में एक अनुमान के अनुसार 70 प्रतिशत तक इसाई, मुस्लिम मत में जा चुके लोग जनजाति कोटे का लाभ ले रहे हैं।

क्या हो सकता है सियासी असर
झारखंड समेत देश भर के आदिवासी इलाकों में नये सिरे से शुरू हुए डीलिस्टिंग आंदोलन का सियासी असर पड़ना स्वाभाविक है। डीलिस्टिंग का सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस को होगा। इसलिए वह अभी से ही इसका विरोध करने लगी है। दूसरी तरफ भाजपा के लिए झारखंड के आदिवासी इलाकों में अपनी पकड़ दोबारा मजबूत करने में यह आंदोलन मददगार साबित हो सकता है।

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