प्रत्याशी चयन ही नहीं, जिम्मेदारी के बंटवारे में भी हुई भारी गलती
उपलब्ध मानव संसाधन का सही इस्तेमाल नहीं करना भी पड़ा भारी
बाहरी नेताओं के टेकओवर से स्थानीय नेता खोते गये कांफिडेंस
रही सही उम्मीदों पर अपनों ने ही पानी फेर दिया

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड विधानसभा का चुनाव संपन्न हुए अब एक महीने से भी अधिक का समय बीत चुका है। तमाम रिकॉर्ड बनाते हुए हेमंत सोरेन के नेतृत्व में सरकार कामकाज संभाल चुकी है। इस चुनाव परिणाम से भाजपा के समक्ष जो एक गंभीर सवाल पैदा हुआ है, उसका ठीक-ठीक जवाब अब तक नहीं मिला है। यह सवाल है आखिर भाजपा इस चुनाव में इतनी बुरी तरह क्यों हारी। इस सवाल का जवाब भाजपा अपने स्तर से अलग-अलग कोणों से तलाश रही है। हार की समीक्षा भी हुई है और कई कारण भी सामने आये हैं, जिनमें वोटरों के बिदकने से लेकर स्थानीय नेताओं की उपेक्षा और भितरघात तक की बातें कही गयी है, लेकिन हकीकत यही है कि असली कारण किसी ने नहीं बताया है। दरअसल, झारखंड में भाजपा की इस चुनावी पराजय के असली कारण बेहद चौंकाने वाले हैं। इन कारणों के बारे में अब तक कोई चर्चा ही नहीं हुई है। झारखंड भाजपा की लगातार दूसरी पराजय के इन कारणों में रणनीतिक चूक ही प्रमुख है। इसके अलावा प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव प्रबंधन के क्रम में जिम्मेदारियों के बंटवारे में हुई गलती ने पार्टी की हार की पटकथा लिखी। उपलब्ध मानव संसाधन का सही इस्तेमाल नहीं करने से स्थानीय नेताओं में पैदा हुई उदासीनता ने पार्टी की संभावनाओं को पलीता लगा दिया। इसके अलावा भी कई अन्य कारण हैं। दरअसल इस सवाल का जवाब अब इसलिए भी नहीं मिल पा रहा है, क्योंकि चुनाव के दरम्यान बाहर से आये जिस नेता ने प्रदेश भाजपा को टेकओवर कर लिया था, वह अपने राज्य को लौट गये हैं। उनके खिलाफ बोलने की ताकत किसी में भी नहीं है। क्या है भाजपा की हार के कारण और क्या है इस निष्कर्ष का आधार, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

झारखंड में विधानसभा का चुनाव संपन्न हुए एक महीने से अधिक का समय बीत चुका है। हेमंत सोरेन के नेतृत्व में इंडी गठबंधन की सरकार ने रिकॉर्ड जीत हासिल कर लगातार दूसरी बार सत्ता संभाल ली है और भाजपा अपनी इस करारी हार से बुरी तरह हताश है। चुनाव परिणाम की घोषणा होने के बाद से अब तक एक तरफ जहां झामुमो के नेतृत्व में इंडी गठबंधन की जीत के कारणों का विश्लेषण-आकलन किया जा रहा है, वहीं भाजपा की पराजय की चर्चा भी हो रही है। भाजपा के भीतर भी हार के कारणों की समीक्षा के लिए बैठकें हुई हैं, रिपोर्ट तैयार की गयी हैं, लेकिन हकीकत यही है कि उस रिपोर्ट में हार के सबसे प्रमुख कारण का जिक्र तक नहीं किया गया है, जिसके कारण भाजपा यहां चारों खाने चित्त हो गयी। इन सबके बीच झारखंड विधानसभ चुनाव के इस परिणाम ने झारखंड की सियासत पर नजर रखनेवालों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। ये राजनीतिक प्रेक्षक भी इंडी गठबंधन की जीत से अधिक भाजपा की हार का विश्लेषण कर रहे हैं। इन विश्लेषणों में जो कुछ प्रमुख कारण सामने आये हैं, वे बेहद चौंकानेवाले हैं।

कारण नंबर 1: प्रत्याशी चयन में चूक
भाजपा की हार का पहला कारण बेहद आम है और वह है प्रत्याशी चयन में चूक। लेकिन यह चूक इस बार भाजपा के लिए आत्मघाती बन गयी, इसे दो-तीन प्रत्याशियों से समझा जा सकता है। पार्टी ने कांके विधानसभा सीट से सीटिंग विधायक समरी लाल के स्थान पर पूर्व विधायक डॉ जीतू चरण राम को टिकट दिया। वह 2014 से 2019 तक विधायक थे और 2019 में उनकी निष्क्रियता और कार्यकर्ताओं के प्रखर विरोध के कारण उनका टिकट काटा गया था। इस बार जब उन्हें टिकट दिया गया, तो कार्यकर्ता भी स्तब्ध हो गये। कार्यकर्ता यह पूछ रहे थे कि क्या डॉ राम की निष्क्रियता खत्म हो गयी। कार्यकर्ता अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगे। उनके सामने विकट स्थिति उत्पन्न हो गयी कि जिस उम्मीदवार की निष्क्रियता के कारण उन्होंने पिछले चुनाव में उसका विरोध किया था, अब उसी का चेहरा लेकर वे इस बार जनता के पास किस मुंह से वोट मांगने जायेंगे। पार्टी नेतृत्व के पास इसका कोई जवाब नहीं था। नतीजा यह हुआ कि पार्टी यह सीट हार गयी।

कांके में प्रत्याशी चयन के अलावा एक और बड़ा कारण था। कांके में कमलेश राम भाजपा के टिकट के दावेदार थे। जब उन्हें टिकट नहीं मिला, तो उन्होंने बागी के रूप में मैदान में कूदने का मन बना लिया। उन्हें मनाने के लिए ऐसा नेता उनके घर पहुंच गया, जिसके हाथ में झारखंड चुनाव की एक तरह से पूरी जिम्मेदारी थी। उन्हें यह पता नहीं होगा कि कमलेश राम की नेता के रूप में पहचान कम, दबंगई के कारण ज्यादा रही है। उनका कद इतना बड़ा नहीं था कि भाजपा का वह शख्स उनके दरवाजे पर मनाने जाये, जो पूरी रणनीति बना रहा हो। इतना ही नहीं कमलेश राम को लेकर वे नेता हेलीकॉप्टर की भी सैर कराने लगे। इसे शायद वे नेता अपनी बड़ी कामयाबी समझ बैठे। इसका कार्यकर्ताओं पर बुरा असर पड़ा। पार्टी के तपे-तपाये कार्यकर्ता उदासीन हो गये। इतना मान सम्मान पाने के बावजूद कमलेश राम ने कांके विधानसभा में भाजपा प्रत्याशी जीतू चरण के पक्ष में कोई काम नहीं किया। वह चंदनक्यारी चले गये। समझा जा सकता है कि चंदनक्यारी में उनकी क्या उपयोगिता थी। अगर यह भाजपा की रणनीति का हिस्सा था, तो समझा जा सकता है कि रणनीतिकार कैसे रहे होंगे।

इसी तरह गुमला से पूर्व केंद्रीय मंत्री सुदर्शन भगत को प्रत्याशी बनाया गया था। वह लोहरदगा के तीन बार सांसद रह चुके हैं। इसके अलावा वह गुमला के विधायक भी रह चुके हैं। गुमला के भाजपा कार्यकर्ताओं का कहना था कि यदि एक ही व्यक्ति को लोकसभा से लेकर विधानसभा चुनाव तक में टिकट दिया जायेगा, तो फिर दूसरे नेता-कार्यकर्ता क्या करेंगे। गुमला से मिसिर कुजूर टिकट के दावेदार थे। उन्होंने पांच साल तक गुमला में खूब काम किया था, इस उम्मीद में कि उन्हें जरूर टिकट मिलेगा, लेकिन उनकी जगह उस चेहरे को ही मैदान में उतार दिया गया, जिसे इससे पहले लोकसभा चुनाव में योग्य उम्मीदवार नहीं माना गया था। यही नहीं, मिसिर उरांव को मनाने वे नेता उनके घर गये, जिनका झारखंड से कोई नाता ही नहीं था। वहां जाकर मिसिर कुजूर के समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया कि नामांकन वगैरह की तैयारी में जो खर्च हुआ है, उसे वे ले लें और चुनाव में नहीं उतरें। मिसिर कुजूर यह चाह रहे थे उन लोगों के पास वे अपनी बात रखें या वे लोग उनको आश्वासन दें, जो झारखंड के हैं। लेकिन झारखंड के नेताओं से उनकी बात नहीं करायी गयी, जिस पर मिसिर कुजूर को भरोसा था। परिणाम यह हुआ कि मिसिर कुजूर निर्दलीय चुनाव लड़ गये। फिर वही हुआ, जिसका अंदेशा था। यही बात बिशुनपुर में हुई, जहां पार्टी ने समीर उरांव को टिकट दिया। समीर उरांव राज्यसभा सांसद रह चुके हैं, पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी के प्रत्याशी थे और इस बार बिशुनपुर से उन्हें टिकट दिया गया। वहां भी कार्यकर्ताओं ने यही सवाल किया कि आखिर समीर उरांव को कितनी बार मौका मिलेगा। पार्टी की दूसरी पंक्ति के नेताओं का क्या होगा।

कारण नंबर 2: नाराजगी दूर करने की अधूरी कोशिश
भाजपा की हार का दूसरा कारण असंतुष्टों की नाराजगी दूर करने की अधूरी कोशिश रही। टिकट वितरण के बाद भाजपा में असंतुष्टों की बाढ़ आ गयी। जिन दावेदारों को टिकट नहीं मिला, वे नाराज हो गये। यह हर चुनाव में हर पार्टी के साथ होता है और हर बार हर पार्टी असंतुष्टों को मनाने की कोशिश करती है। इस बार भाजपा ने भी कोशिश की, लेकिन आधे-अधूरे मन से। इसका उदाहरण कांके, गुमला और देवघर में देखने को मिला।

यही हाल देवघर में हुआ। पार्टी ने निवर्तमान विधायक नारायण दास को टिकट दिया, लेकिन उनसे नाराज पार्टी कार्यकर्ताओं को मनाने की कोई कोशिश नहीं की गयी। यहां तक कि सांसद समर्थकों को पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ खुलेआम काम करने से रोकने की कोशिश नहीं की गयी। सबको पता था कि लोकसभा चुनाव में सांसद समर्थकों और विधायकों समर्थकों के बीच खुलेआम नोकझोंक हुई थी दोनों से दो-दो हाथ करने की पूरी तैयारी कर ली गयी थी। इसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी वहां से भी हार गयी।

कारण नंबर 3: चुनावी जिम्मेदारी बांटने में चूक
पार्टी की हार का तीसरा कारण चुनावी जिम्मेदारी बांटने में चूक रही। पार्टी ने चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी ऐसे नेताओं को सौंपी, जिनके पास न तो संबंधित इलाके की कोई जानकारी थी और न अनुभव। पार्टी के कई विधानसभा प्रभारी तो ऐसे थे, जो पहली बार उस इलाके में गये थे। उन्हें न इलाके की भौगोलिक जानकारी थी और न सामाजिक समीकरणों का ज्ञान। ऐसे में वे चुनाव अभियान के लिए कुछ मुट्ठी भर कार्यकर्ताओं पर निर्भर हो गये, जिसका नुकसान पार्टी को हुआ।

कारण नंबर 4: प्रमुख नेताओं की अनदेखी
भाजपा की हार का एक कारण यह भी रहा कि पार्टी ने कई प्रमुख नेताओं की पूरी तरह अनदेखी की। उदाहरण के लिए आशा लकड़ा का नाम ही प्रमुख है। रांची की पूर्व मेयर और पार्टी की राष्ट्रीय सचिव आशा लकड़ा ने पिछले पांच साल में पार्टी के पक्ष में जबरदस्त काम किया था। उन्होंने सुर्खियां भी खूब बटोरी थीं। कई राज्यों में चुनाव प्रचार अभियान के अलावा संगठन के काम में भी उन्होंने उल्लेखनीय प्रदर्शन किया, लेकिन उनके अपने घर झारखंड में ही उन्हें पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया।
इसी तरह पार्टी ने अपने मोर्चों को भी चुनाव से अलग रखा। पार्टी के सात मोर्चे हैं, लेकिन किसी भी मोर्चे के अध्यक्ष को टिकट तो नहीं ही दिया गया, विधानसभा प्रभारी तक की जिम्मेदारी नहीं दी गयी। उन्हें केवल नेताओं की आवभगत करने और माला पहनाने या भीड़ जुटाने के काम में लगाये रखा गया। यह भी एक हकीकत है कि पार्टी ने आज तक झारखंड में अपने सभी मोर्चो में से केवल एक को टिकट दिया है। वह हैं अनंत ओझा, जो युवा मोर्चा के थे। उन्होंने 2019 में राजमहल से चुनाव जीत कर अपनी सार्थकता सिद्ध की। लेकिन इस बार पार्टी ने किसी मोर्चे के किसी नाम पर विचार ही नहीं किया। इसका नतीजा यह हुआ कि ये नेता और कार्यकर्ता अपनी ही पार्टी के नेतृत्व से पूरी तरह कट गये और चुनाव के प्रति उदासीन रह गये।

मोर्चा को नजरअंदाज करना
भाजपा ने चुनाव में टिकट देते समय अपने तमाम मोर्चों को नकार दिया। एक भी मोर्चा से किसी को टिकट नहीं दिया गया। इससे पार्टी में युवा नेताओं की कमी होती जा रही है। बहुत पहले युवा मोर्चा से अनंत ओझा को टिकट दिया गया था। उन्होंने अपनी काबिलियत भी सिद्ध की। उन्होंने पार्टी में एक अच्छी जबह बनायी। उसके बाद मोर्चा के नेताओं का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ पार्टी नेताओं का स्वागत करने, सड़क पर उतर कर आंदोलन करने और लाठी-डंडा खाने के लिए किया गय ा। इसका बहुत गलत असर युवाओं में हुआ और वे पूरी तरह उदासी हो गये।

अब आगे क्या हो सकता है
भाजपा झारखंड की इस हार से बुरी तरह हताश है, हालांकि वह अपनी स्थिति सुधारने के लिए नये सिरे से जुट गयी है। पार्टी को समझना होगा कि उसका जनाधार या वोट कम नहीं हुआ है। पार्टी ने 2019 के चुनाव में अकेले 50 लाख से अधिक वोट हासिल किये थे और इस बार उसे 59 लाख से अधिक वोट मिले हैं। इसलिए यह मानना कि उसका जनाधार कम हुआ है, गलत होगा। पार्टी को अब संगठन के मोर्चे पर काम करना होगा। झारखंड के राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों को साधने के लिए पार्टी को स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को नये सिरे से प्रशिक्षित करना होगा। संगठन में ऐसे नेताओं को जिम्मेदारी देनी होगी, जो 24 घंटे जनता के बीच रहते हैं। जब तक ऐसा नहीं होगा, भाजपा झारखंड में हेमंत सोरेन की मजबूत किलेबंदी में सेंध नहीं लगा सकती।

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