ममता-उद्धव-उमर के बाद केजरीवाल-अखिलेश ने दिखाये तेवर
-लालू और पवार ने भी राहुल गांधी के नेतृत्व पर उठा दिया है सवाल
-केवल हेमंत सोरेन ही मजबूती से कर रहे हैं गठबंधन धर्म का पालन
-हरियाणा और महाराष्ट्र की पराजय के बाद बदलने लगे दलों के सुर
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
इसी साल के पूर्वाद्ध में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बने विपक्षी पार्टियों के इंडी गठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। लोकसभा चुनाव में एकजुट होकर लड़नेवाला यग गठबंधन पहले हरियाण और फिर महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में पराजित होने के बाद अब कमजोर ही नहीं, बिखरने की कगार पर दिखाई देने लगा है। यह साफ दिख रहा है कि गठबंधन पर कांग्रेस की पकड़ कमजोर हो रही है। इंडी गठबंधन की कमजोरी उस समय सबसे पहले सामने आयी, जब ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी ने कांग्रेस को आंख दिखायी। इसके बाद लालू यादव और शरद पवार ने राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठा दिया, तो उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल ने अलग रास्ता अख्तियार करने का फैसला कर लिया। इंडी गठबंधन की कमजोरी हाल में समाप्त हुए संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान भी दिखी, जब कांग्रेस की ओर से अडाणी का मुद्दा उठाया गया और वाकआउट तथा विरोध प्रदर्शन में दूसरे दलों ने उसका साथ नहीं दिया।
केवल झारखंड ही अकेला ऐसा राज्य है, जहां हेमंत सोरेन पूरी इमानदारी से गठबंधन धर्म का पालन ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि सहयोगी दलों के लिए अपना सब कुछ झोंक रहे हैं। इसके बाद ही अब सवाल उठने लगे हैं कि क्या इंडी गठबंधन में बिखराव शुरू हो गया है और क्या इस पर से कांग्रेस की पकड़ कमजोर पड़ने लगी है। क्या है इंडी गठबंधन की अंदरूनी स्थिति और देश की राजनीति पर इसका क्या हो सकता है असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
लोकसभा चुनाव 2024 में जिन सहयोगी दलों के साथ इंडी गठबंधन के बैनर तले कांग्रेस ने भाजपा से कड़ा मुकाबला किया था, वही इंडी गठबंधन महज एक साल के भीतर पूरी तरह बिखरता नजर आ रहा है। यूपी में जिस समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर कांग्रेस ने 43 लोकसभा (अकेले छह सीटें) सीटें जीती थीं, वही समाजवादी पार्टी पहले महाराष्ट्र चुनाव में कांग्रेस का हाथ छोड़ चली गयी और अब दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी वह कांग्रेस की बजाय आम आदमी पार्टी के साथ खड़ी है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन की बजाय अकेले सभी 70 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का एलान किया है। अब समाजवादी पार्टी ने भी उसे समर्थन दे दिया है। उधर गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कांग्रेस के सामने लगातार चुनौती पेश कर ही रही हैं और अब बिहार विधानसभा चुनाव से पहले राजद नेता लालू यादव ने भी कांग्रेस को अंगूठा दिखाया है। इस तरह देखा जाये, तो राष्ट्रीय स्तर पर इंडी गठबंधन में भले ही सब कुछ ठीक दिख रहा हो, प्रदेशों में इसके अंदर सब-कुछ ठीक नहीं है। अलग-अलग राज्यों में इसमें शामिल सहयोगी दलों के बीच अलग-अलग मुद्दों पर मतभेद नजर आ रहे हैं।
बिहार में हाल के दिनों में लालू यादव की राजद और कांग्रेस के बीच दूरी बढ़ती नजर आयी है। लालू ने जिस तरह से विपक्षी गठबंधन की अगुवाई ममता बनर्जी को देने में सहमति जतायी है, उससे इस बढ़ती दूरी पर मुहर लग गयी है। कांग्रेस लालू के इस सियासी दांव को पचा नहीं पा रही है।
इधर हाल के महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में मिली अप्रत्याशित हार को लेकर कांग्रेस पहले से ही फजीहत झेल रही है। इस हार के कारण भी गठबंधन के भीतर की स्थिति बिगड़ी है। हालांकि गठबंधन में शामिल क्षेत्रीय दल अब भी यही मान रहे हैं कि गठबंधन में कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जिसके पास पूरे देश में संगठन है।
गठबंधन में कमजोर पड़ रही कांग्रेस
कुछ दिन पहले ही तृणमूल कांग्रेस की ओर से ममता बनर्जी को इंडी गठबंधन का नेता बनाने की मांग उठी। इस पर कांग्रेस की ओर से पलटवार भी हुआ। कांग्रेस ने इस मांग को एक मजाक करार दिया। अब टीएमसी की ओर से यह मांग तेजी से आगे बढ़ायी जा रही। वहीं अब अडाणी मुद्दे पर भी कांग्रेस से अलग टीएमसी ने स्टैंड लिया। इस दौरान समाजवादी पार्टी ने भी कांग्रेस का हाथ छोड़ दिया।
संसद में टीएमसी-सपा ने दिखाये तेवर
यह चर्चा तब शुरू हुई, जब कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी सांसदों ने अडाणी के मुद्दे पर सदन से वाकआउट किया। उन्होंने संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन किया, तो इसमें सपा और टीएमसी के एक भी नेता नहीं पहुंचे। कांग्रेस से सपा की दूरी को लेकर चर्चा की यही अकेली वजह नहीं है। संभल मुद्दे पर भी दोनों पार्टियों की राय मेल खाती नहीं दिख रही।
ऐसा उस समय नजर आया, जब राहुल गांधी संभल जाने के लिए दिल्ली से रवाना हुए। इस मुद्दे पर समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस नेतृत्व के फैसले पर सवाल उठा दिया। सपा की ओर से कहा गया कि जब संभल मुद्दे को संसद में उठाया नहीं गया, तो वहां जाने का क्या फायदा।
केजरीवाल के ‘एकला चलो’ की भी चर्चा
अब आम आदमीा पार्टी ने दिल्ली में विधानसभा का चुनाव अकेले लड़ने का एलान कर दिया है। उसने कांग्रेस से साफ कह दिया है कि वह किसी भी सूरत में कोई तालमेल नहीं करेगी। समाजवादी पार्टी ने इस मुद्दे पर आप का समर्थन कर दिया है। इस तरह अरविंद केजरीवाल के भी ममता बनर्जी की राह पकड़ने पर शिवसेना (यूबीटी) ने कहा कि कांग्रेस विपक्षी एकता के लिए कदम उठाये। शिवसेना (यूबीटी) ने दिल्ली चुनाव में आप के अपने बूते चुनाव लड़ने की घोषणा करने पर यह बात कही है। पार्टी ने कहा है कि बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस से दूरी रखकर राजनीति करने की कोशिश कर रही हैं। अब केजरीवाल भी उसी राह पर जा रहे हैं। इस संबंध में कांग्रेस को आत्मनिरीक्षण करने और (विपक्ष की) एकजुटता के लिए कदम उठाने की जरूरत है।
केवल हेमंत कर रहे गठबंधन धर्म का पालन
इंडी गठबंधन की स्थिति केवल झारखंड में ही अच्छी है। हेमंत सोरेन पूरी इमानदारी से गठबंधन धर्म का पालन कर रहे हैं। हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव में उन्होंने न केवल सहयोगी दलों को पर्याप्त सीटें दी, बल्कि हर सीट पर खुद प्रचार कर उनके प्रत्याशियों की मदद की। सरकार बनने पर भी उन्होंने सहयोगियों के साथ पूरा समन्वय बना कर मंत्री बनाये और विभागों का बंटवारा भी किया।
हरियाणा-महाराष्ट्र में हार से बैकफुट पर कांग्रेस
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पहले हरियाणा और फिर महाराष्ट्र चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी शिकस्त के बाद पार्टी को तगड़ा झटका लगा है। अब सवाल यही है कि कांग्रेस कैसे वापसी करती है। अब अगले साल दिल्ली और बिहार के चुनाव हैं। देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस इन चुनावों में अपनी मजबूत दावेदारी पेश कर पायेगी। पार्टी के लिए ऐसा करना जरूरी ही नहीं, उसके खुद के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य भी है।