लोकतंत्र की यही खूबसूरती है। एक तरफ, जहां भाजपा ने गुजरात में कांग्रेस को रसातल पर धकेल दिया, वहीं हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने भाजपा का गुरूर तोड़ दिया। वहीं आम आदमी पार्टी ने दिल्ली नगर निगम चुनाव में भाजपा को पटखनी दे दी। इससे अच्छा उदाहरण लोकतंत्र में भला क्या हो सकता है। लेकिन जिस तरीके से गुजरात में मोदी नाम की सुनामी के सामने कांग्रेस बह गयी, उसका असर अब लोकसभा चुनावों में भी देखने को मिलेगा। राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी यह अच्छी तरह से समझ चुकी थी कि इस बार गुजरात में उनकी दाल नहीं गलने वाली। इसलिए राहुल गुजरात चुनाव से दूर रहे। बहाना भारत जोड़ो यात्रा को बनाया गया। राहुल उसमें बिजी हैं। अगर राहुल गांधी गुजरात में चुनाव प्रचार करने उतर जाते और नतीजा यही होता, जो आया है, तो राहुल की भारत जोड़ो यात्रा फ्लॉप साबित होती, क्योंकि कांग्रेस ने भाजपा को 2017 के विधानसभा चुनाव में अच्छी-खासी टक्कर दी थी। उसने 77 सीटों पर अपनी जीत दर्ज की थी। अब 17 पर है। भारत जोड़ो यात्रा के संदर्भ में कांग्रेस पार्टी कहती रही है कि यह यात्रा राजनीतिक नहीं है। खैर, मोदी की सुनामी ने देश की क्षेत्रीय पार्टियों के भीतर भय का बीज तो बो ही दिया है। जैसे-जैसे लोकसभा का चुनाव नजदीक आयेगा, उसका असर भी साफ दिखाई पड़ने लगेगा। क्या है गुजरात में भाजपा की प्रचंड जीत के मायने और कैसे ब्रांड मोदी की लोकप्रियता से लोकसभा चुनाव में विपक्षियों का समीकरण बिगड़ सकता है, बता रहे है आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
गुजरात में भाजपा ने न सिर्फ लगातार सातवीं पर बार जीत दर्ज की है, बल्कि राज्य में सबसे बड़ी जीत का रिकॉर्ड भी ध्वस्त कर दिया है। 182 में से 156 सीटों पर कब्जा, यानी 85 प्रतिशत पर जीत बहुत बड़ी बात है। वह भी तब, जब विरोधियों को 27 साल से लगातार भाजपा के सत्ता में रहने पर एंटी-इनकंबेंसी की उम्मीद थी। लेकिन मोदी का ऐसा जादू चला कि वोट शेयर 50 प्रतिशत के पार पहुंच गया। गुजरात चुनाव के नतीजों का मिशन 2024 पर बहुत बड़ा असर पड़ने वाला था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य में बीजेपी कम सीट या कम वोट मिलने का मतलब होता, मिशन 2024 में पलीता लगना। पस्त हो चुके विपक्ष में नयी जान का फूंकना। यही वजह थी कि पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। मोदी और शाह जनता को यह संदेश देने में कामयाब हो गये कि बीजेपी की अगर हार हुई, तो यह राष्ट्रीय स्तर पर गुजराती अस्मिता पर चोट होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव से पहले पूरे गुजरात को मथ डाला। उन्होंने 31 रैलियां कीं। अहमदाबाद में 50 किलोमीटर, तो सूरत में 25 किलोमीटर लंबा मेगा रोड शो किया। गुजरात की जनता भी मोदी की एक झलक पाने को सड़कों पर उतर गयी। लाखों की भीड़ हुई। अमित शाह ने तो राज्य में ही डेरा डाल दिया और बूथ लेवल से लेकर हर रणनीति का बारीक से बारीक डीटेल को खुद टैकल किया। लक्ष्य था 2024 से पहले बड़ी जीत को हासिल करना, क्योंकि इस जीत में 2024 की जीत का मंत्र भी छुपा था। गुजरात में कांग्रेस की हार का असर सिर्फ कांग्रेस के भविष्य पर नहीं पड़ेगा, बल्कि इसका असर दूसरे दलों पर भी पड़ना तय है। खासकर वैसे दल, जो उसके साथ हैं या उन दलों के नेता, जो 2024 में नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष की अगुवाई करना चाहते हैं या चुनौती पेश करना चाहते है। इनमें नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और केसीआर की पार्टी समेत दूसरे दल और उनके नेता भी हैं। 2024 में प्रधानमंत्री को चुनौती देने के लिए पिछले कुछ समय में कई दलों के नेता सामने आये। पहले बंगाल में जीत के बाद ममता बनर्जी, भाजपा से अलग होने के बाद नीतीश कुमार और केसीआर की ओर से विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिशें की गयीं। हालांकि यह कुछ समय के लिए दिखाई पड़ा, लेकिन बाद में इनकी गतिविधियां भी कम हो गयीं। जोश ठंडा हो गया, क्योंकि इन्हें आभास हो गया कि हर कोई एक-दूसरे की टांग खींचने को बेचैन है। कुरसी तो एक है, लेकिन उसके दावेदार अनेक हंै। वहीं अरविंद केजरीवाल भी इस दौड़ में शामिल तो हैं, लेकिन वह फिलहाल इन नेताओं से खुद को अलग दिखाते हुए, अलग राह पर हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी अब राष्ट्रीय पार्टी हो चुकी है। उसे इस चुनाव में करीब 13 प्रतिशत वोट मिले। आप को कई राज्यों में कांग्रेस के विकल्प के रूप में देखा जाने लगा है। 2023 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में भी आप अपना उम्मीदवार उतारने को बेचैन है। उसे यकीन है कि वह यहां भी कमाल करेगी। अब कमाल करे न करे, लेकिन कांग्रेस का वोट तो जरूर काटेगी, यह तय है। इधर स्वघोषित पीएम उम्मदीवार वाले नेताओं की रणनीति में कहीं न कहीं कांग्रेस थी और संभव है कि आगे भी रहे, लेकिन गुजरात में जिस प्रकार कांग्रेस की हार हुई है, उसके बाद कांग्रेस को कितना तवज्जो मिलेगा, इस पर भी सवाल है। इतना ही नहीं, इस वक्त कांग्रेस के साथ जो सहयोगी दल हैं, उनके मन में भी गुजरात में हार के बाद डर तो बैठ ही गया होगा। अब बिहार की कुढ़नी विधानसभा सीट को ही ले लीजिए। इस सीट की कमान खुद नीतीश ने अपने हाथों में ली थी। नतीजा क्या हुआ। उनकी पार्टी हार गयी और भाजपा प्रत्याशी केदार गुप्ता की जीत हुई। इस नतीजे ने नीतीश कुमार की बिहार में पकड़ को पूरे तरीके से एक्सपोज भी कर दिया है। सवाल तो यह भी उठने लगा है कि क्या बिहार के 18 प्रतिशत वोटर भी नीतीश के साथ हैं या नहीं। कुढ़नी विधानसभा का रिजल्ट सामने है। इससे कुछ बातें साफ हो जाती हैं। वैश्य वोटर डट कर नरेंद्र मोदी के साथ खड़ा है। केदार गुप्ता खुद इसी जाति से आते हैं। सवर्णों में, खास तौर से भूमिहारों की नाराजगी भाजपा से दूर हुई है।
इस बात में कोई शंका नहीं है कि यदि विपक्ष की ओर से किसी मोर्चे का गठन अगले लोकसभा चुनाव के लिए किया जाता है, तो उसमें कांग्रेस की मजबूती काफी मायने रखती है। नीतीश, ममता, केसीआर और अरविंद केजरीवाल की दावेदारी के बीच कांग्रेस ने कभी अपने पत्ते नहीं खोले और जब भी उसके सामने यह सवाल आया, तो उसकी ओर से यही कहा गया कि राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस मजबूती से लड़ेगी, यानी आखिरी वक्त तक वह भी अपनी दावेदारी से पीछे नहीं हटना चाहती है। लेकिन गुजरात में जिस प्रकार से कांग्रेस की हार हुई है, उसका झटका कांग्रेस को जोर का लगा है। बात तो उसकी साख पर बन आयी है। साल 2023 में देश के कुल नौ राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं। इनमें मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम शामिल हैं। इनमें राजस्थान और छतीसगढ़ तो कांग्रेस के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। अगर इन दो राज्यों में कांग्रेस के साथ कोई अनहोनी होती है, तो कांग्रेस की साख पर बट्टा लगना तय है। राजस्थान में कन्हैया लाल का मुद्दा ठंडा नहीं पड़ा है। हिंदुओं ने इस मामले में गहलोत सरकार के रवैये को भी देखा है। करौली में हिंदू नव वर्ष पर निकाली गयी रैली पर मुस्लिम समाज के लोगों ने जो पथराव किया और इस मामले में गहलोत सरकार का जो ढीला रवैया हिंदुओं ने देखा, वह भी कांग्रेस को महंगा पड़ेगा। अलवर जिले के राजगढ़ में तीन सौ साल पुराने शिव मंदिर को जिस प्रकार से तोड़ा गया, वह भी जनता भुली नहीं है। अजमेर दरगाह के खादिमों द्वारा सिर तन से जुदा के नारों का भी असर राजस्थान चुनाव में देखने को मिलेगा। अंत में गहलोत-सचिन पायलट गुटबाजी भी भाजपा के लिए हथियार का काम करेगी।
बीजेपी की जीत के मायने
गुजरात चुनाव की जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर साबित किया है कि वह भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा हैं और मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की उनकी जैसी अपील अभी किसी और नेता में नहीं है। गुजरात में भाजपा की जीत को सिर्फ एक राज्य की जीत के तौर पर ही नहीं देखा जायेगा और न ही भाजपा ऐसा होने देगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य के अलावा गुजरात भाजपा की रणनीति के केंद्र में भी रहा है। जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, उसके पीछे गुजरात बड़ा स्तभ रहा। यह वही राज्य है, जिसे लेकर कांग्रेस लगातार नरेंद्र मोदी पर निशाना साधती आयी है। लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव के जो नतीजे आये हैं, उसके बाद कांग्रेस और उसके नेताओं को जवाब देते नहीं बनेगा। इतिहास गवाह है कि जब-जब कांग्रेस के नेताओं ने मोदी को गाली दी है, वह बुरी तरह हारी है और मोदी जीत की बुलंदियों पर चढ़ते गये। गुजरात चुनाव के दौरान भी कांग्रेस के राष्टÑीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़ने द्वारा उन्हें रावण कहा गया। इसका असर यह हुआ कि कांग्रेस 77 से 17 पर आ गयी। गुजरात में भाजपा की ऐतिहासिक जीत को पार्टी अगले पायदान पर लेकर जायेगी और इसका असर दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनाव और आगामी लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। हिमाचल में भले ही कांग्रेस जीत दर्ज करने में कामयाब हुई है, लेकिन यह वह राज्य है, जहां पिछले कई वर्षों से यह देखने में आता रहा है कि हर पांच साल बाद सरकार बदल जाती है। गुजरात ऐसा राज्य था, जहां कांग्रेस भले ही सरकार नहीं बना पाती, लेकिन यदि वह लड़ती हुई दिखती और पिछले चुनाव के आसपास भी सीटें आती, तो उसके अलग मायने होते। उसके सहयोगियों के लिए भी उत्साहवर्धक होता। लेकिन भाजपा की प्रचंड जीत और कांग्रेस का गुजरात में लगभग सूपड़ा साफ हो जाना 2024 में मोदी के खिलाफ खड़े होने वाले स्वघोषित पीएम उम्मीदवारों के लिए खौफ से कम नहीं। इसलिए सवाल तो बनता है कि आखिर 2024 में पीएम मोदी के सामने कौन?