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    Home»लाइफस्टाइल»ब्लॉग»विचारधारा से भटकने का खामियाजा
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    विचारधारा से भटकने का खामियाजा

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीApril 11, 2017No Comments6 Mins Read
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    उदित राज: कई तारीखें यादगार बन जाती हैं। 11 मार्च, 2017 की तारीख ऐसी ही रही जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के चौंकाने वाले नतीजे आये, तो न केवल सपा-बसपा के नेता, बल्कि तमाम राजनीतिक पंडित भी हैरान रह गये। नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के बीच यह कौतुहल का विषय बन गया है कि आखिर ऐसा चमत्कार हुआ कैसे? चूंकि इसका कोई एक कारण है भी नहीं, लेकिन सपा और बसपा ने जो हालात पैदा किये, वही आखिर में उनकी हार में निर्णायक साबित हुए। वहीं प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार के कामकाज का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। चुनावों में मिली करारी हार पर जहां मायावती ईवीएम में गड़बड़ी को वजह बता रही हैं तो कुछ लोग सपा और कांग्रेस के गठबंधन तथा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जैसे पहलुओं को इसका कारण बता रहे हैं।

    यहां सपा और बसपा द्वारा बनायी गयी परिस्थितियों का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इससे मालूम पड़ेगा कि अपनी गलती के बावजूद वे दोष दूसरों के सिर मढ़ रही हैं।
    बसपा से ही शुरूआत करें। जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बसपा बनी थी, अब उसकी छायामात्र ही रह गयी है। कांशीरामजी ने भागीदारी को मूल में रखकर इस पार्टी की बुनियाद रखी थी। उनका नारा था, जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। इसके तहत दलित व पिछड़ी जातियों को संगठन में जोड़ उन्हें गोलबंद करने की शुरूआत हुई। दलित वर्ग में आने वाली तमाम जातियों मसलन पासी, धोबी, वाल्मीकि, खटीक, कोरी आदि को संगठन में नीचे से ऊपर तक विभिन्न पदों पर स्थान दिया गया। इसी तरह पिछड़ों में कुशवाहा, कुर्मी, राजभर, मौर्या, चौहान, लोध, कश्यप, कहार, गुर्जर और लोहार आदि को संगठन में खासी तरजीह दी गयी। शुरूआत में तो यादव भी बड़ी संख्या में जुड़े। इन सभी वर्गों के नेता भी शुरू-शुरू में उभरे, लेकिन धीरे-धीरे सत्ता का नशा हावी होने लगा और सामाजिक न्याय तथा भागीदारी का पैमाना पिछड़ता गया।
    बसपा के सिद्धांतों का मूल डॉ. आंबेडकर, ज्योतिबा फुले और शाहू जी महाराज जैसी विभूतियों के विचारों में निहित है। मगर जातिविहीन और समतामूलक समाज की अवधारणा पर बनी पार्टी की सुप्रीमो खुद जातिवाद करने में किसी से पीछे नहीं रहीं। समतामूलक के स्थान पर तानाशाही के व्यवहार का खुला प्रदर्शन मानो एक प्रतिमान बन गया। बैठकों में केवल एक कुर्सी का लगना राजतंत्र का सूचक बनने लगा। जात-पांत से प्रताड़ित यह समाज कई दशकों तक विकल्पहीनता के चलते उससे जुड़े रहने पर मजबूर रहा। वह तलाशता रहा कि कौन-सा दल उन्हें प्रतिष्ठा के साथ भागीदारी देने के लिए तैयार है। बसपा जिस विचार को लेकर बनी, धीरे-धीरे उससे विमुख होती गयी। पार्टी को जमाने के लिए शुरूआत में कुछ आपत्तिजनक नारों तक का सहारा लिया गया। लोगों को लगा कि जाति की अलख जगाने के लिए वह नारा भी एक मजबूरी ही थी, लेकिन जब पार्टी मजबूत होकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंच गयी तो गैर-जाटव जातियां उससे कटती चली गयीं। लगभग सभी जिलाध्यक्ष, कोआॅर्डिनेटर और अन्य प्रमुख पदों पर एक ही जाति का कब्जा होता गया।

    अन्य जातियां धीरे-धीरे उपेक्षित महसूस करने लगीं और उनकी उपेक्षा की अभिव्यक्ति 2014 के लोकसभा चुनावों में नजर भी आयी। इसके बावजूद पार्टी ने सबक नहीं लिया और भागीदारी के पहलू को वह नजरअंदाज ही करती रही। नतीजतन ये उपेक्षित वर्ग हालिया विधानसभा चुनावों में भाजपा और मोदीजी के साथ चले गये। बसपा का कार्यकर्ता राजनीतिक कम, बल्कि सामाजिक स्तर पर अधिक सक्रिय है और यही इस पार्टी की सबसे बड़ी ताकत रही है। मगर जब पैसे लेकर टिकट दिये जाने लगें, सिर्फ एक नेता के लिए कुर्सी लगे, केवल चुनावों में ही कार्यकतार्ओं की पूछ हो तो उनका मोहभंग होना स्वाभाविक ही है। पार्टी के कार्यकर्ता इतने संकीर्ण और जातिवादी हो गये कि कोई और नेता दलित उत्थान की बात करे तो वे उसे बदनाम करने के लिए जमीन-आसमान एक कर दें कि मानो वही उनका सबसे बड़ा दुश्मन हो।
    समाज में जाति प्रथा की समाप्ति के मकसद से मैंने 4 नवंबर, 2001 को बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। बाबासाहेब की राह पर चलने का निश्चय किया। फिर भी मेरी उपजाति खोजकर वे मुझे दिन-रात बदनाम करते रहे। सोशल मीडिया की बात करूं तो मुझे, रामविलास पासवान और रामदास आठवले को बदनाम करने के लिए वे एड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं। जाटवों के अलावा दूसरी जातियों के कटने का एक कारण यह भी है। बसपा कार्यकतार्ओं की दलील है कि दूसरी जाति के लोग आंबेडकर को नहीं मानते। अगर ऐसा है भी तो उन जातियों को ज्यादा भागीदारी और सम्मान के साथ संगठन और सत्ता में स्थान देना चाहिए था, ताकि वे पार्टी से जुड़ते। खुद जात-पांत में उलझे रहें तो ठीक और यही काम तथाकथित सवर्ण करें तो उसे मनुवाद और भेदभाव का चोला पहना दिया जाता है। यही इनका दोहरा मापदंड है।

    क्या दूसरी जातियों में पैठ नहीं बनानी चाहिए थी? इसके बजाय उन्होंने उन्हें उपेक्षित ही किया। संकीर्णता का स्तर यहां तक पहुंच गया कि दूसरी जातियों से जुड़ा नेतृत्व आरक्षण का अधिकार बचाए और समतामूलक समाज की स्थापना का काम करे तो वह भी उन्हें स्वीकार्य नहीं। इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं कि बसपा ने डॉ. आंबेडकर के सिद्धांतों को तिलांजलि दे दी है और यही उसके पतन का कारण है। अगर विचारधारा के साथ चलते तो सभी का साथ मिलता, मगर ये इतने अंधभक्त हो गए कि अनुसूचित जाति/जनजाति परिसंघ के जरिए आरक्षण बचाने का काम करने वाले संगठन को बदनाम करने में पूरी ताकत लगा दी। भ्रम और अंधभक्ति की पराकाष्ठा तब हो गई कि परिसंघ के जरिए मिलने वाले फायदों को दुत्कारने लगे।
    अब सपा की बात। उसकी स्थापना भी सामाजिक न्याय के नाम पर हुई, लेकिन उसका काम इसके विपरीत ही रहा। पदोन्न्ति में आरक्षण खत्म करने वाली यह पहली सरकार बनी जबकि करना यह चाहिए था कि पिछड़ों के लिए कुछ अधिकार मांगे जाते। पूरे पांच साल खामोश ही रहे और ऐन चुनाव से पहले 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का नाटक करने लगे। इस दौरान थानों से लेकर ऊपर के ओहदों तक यादवों को तरजीह देने का ऐसा असर हुआ कि अन्य जातियां तेजी से कटती गईं। सपा के शासन में यादवों और मुसलमानों की दबंगई से दलित प्रताड़ित रहे, जिसकी गूंज चुनावों में सुनाई भी दी। अब इन पार्टियों के लिए बेहतर यही होगा कि वे दूसरों पर दोष मढ़ने के बजाय अपनी गलतियों पर गौर कर आत्ममंथन में जुटें।

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