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झारखंड समेत पूरे देश में चल रहे आम चुनावों का परिणाम चाहे कुछ भी हो, कोई हारे या कोई जीते, इस बार राजनीतिक हलकों में कई नयी बातें सामने आयी हैं। झारखंड भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन एक बात जो सबसे खास तौर पर सामने आयी है, वह यह कि इस चुनाव ने साबित कर दिया है कि झारखंड के सभी दल और काफी हद तक भाजपा की भी प्रदेश में गतिविधियां ‘वन मैन शो’ बन कर रह गयी हैं। चाहे झामुमो हो या झाविमो, आजसू हो या झारखंड पार्टी, किसी भी दल में अब कोई नंबर दो चेहरा नहीं रह गया है, जिसकी पहचान पूरे प्रदेश में हो या जिसे राज्य के हर कोने के लोग स्वीकार करते हों। राज्य गठन के बाद से अधिकांश दिनों तक सत्ता में रही भाजपा की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है, जहां आज तक कोई दूसरा सर्वमान्य चेहरा उभर नहीं सका है। झारखंड में कांग्रेस की हालत तो और भी पतली है। यहां तो एक भी सर्वमान्य नेता नहीं है। इस नये राजनीतिक परिदृश्य का परिणाम यह हुआ है कि इन पार्टियों का हर कार्यक्रम केवल एक व्यक्ति पर ही पूरी तरह निर्भर हो गया है। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह पूरी तरह स्वस्थ भी नहीं है, क्योंकि एक व्यक्ति पर निर्भर पार्टी के सामने हमेशा इस बात का खतरा बना रहता है कि यदि वह छतरी क्षतिग्रस्त हुई, तो फिर संभलने का अवसर नहीं मिलेगा। इतना ही नहीं, पूरी पार्टी की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाये रखनेवाले नेता की मास अपील और लोकप्रियता भी धीरे-धीरे कम होती जाती है। इसका सीधा असर पार्टी संगठन पर पड़ता है। आखिर क्यों झारखंड के राजनीतिक दल ‘वन मैन शो’ बन कर रह गये हैं और इस चुनाव के प्रचार अभियान में इसका क्या असर पड़ा है, इसका विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की रिपोर्ट।

आज हम बात कर रहे हैं सुभाष यादव की। उस सुभाष यादव की नहीं, जो कभी झारखंड आते थे, तो तहलका मच जाता था। सीधे अधिकारियों के पास फरमान जाता था। वे उन्हें बुलाते थे और उनके यहां उनका दरबार सज जाता था। उस सुभाष यादव को झारखंड के लोग लालू यादव के साला के रूप में जानते थे। यानी साधु यादव के वे भाई थे। वे आते थे और अफसरों को आदेश देकर चले जाते थे। उन्होंने एकीकृत बिहार में झारखंड के अफसरों को नाको चना चबवा दिया था। कहते हैं बड़े-बड़े टेंडर मैनेज करते थे वे, खदानों की लीज दिलवाते थे। जिस समय एकीकृत बिहार में लालू और राबड़ी का जलवा था, उस समय सुभाष यादव की चलती के आगे एक समूह विशेष के लोग नत मस्तक थे। उन्होंने खूब नाम बेचा लालू और राबड़ी का। उनकी साख पर आंच पहुंचायी। जब पानी सिर के ऊपर से बहने लगा, तो खुद लालू और राबड़ी यादव ने उन्हें अपने यहां से हटाया। लोग समझने लगे कि चलो सुभाष यादव से मुक्ति तो मिली। उसी क्रम में साधु यादव से भी मुक्ति मिल गयी। लेकिन समय का चक्र देखिये कि लालू परिवार में एक और सुभाष यादव की इंट्री हो गयी है। इस सुभाष यादव ने लालू परिवार को अपना मुरीद बना लिया है। हां, हम इस सुभाष यादव की बात कर रहे हैं जो झारखंड में राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं। हम बात कर रहे हैं उस सुभाष यादव की, जो झारखंड की नदियों में बालू खोजते-खोजते चतरा आये और यहां ठेहा गाड़ दिया। उस सुभाष यादव की, जिन्होंने लालू प्रसाद और उनके परिवार पर ऐसा जादू किया कि उस परिवार ने झारखंड में महागठबंधन की भी परवाह नहीं की और एकतरफा उन्हें चतरा से सिंबल दे दिया। परिणाम तो 23 मई को आयेगा, लेकिन इस सुभाष यादव ने झारखंड में राजद को ऐसा घाव दिया है, जिसे ठीक होने में, स्वस्थ होने में वर्षों लगेंगे।
सुभाष यादव के इस घाव ने झारखंड में जड़ जमाने की कोशिश में लगी लालू प्रसाद की पार्टी और खुद उनकी साख पर बट्टा लगा दिया। सुभाष यादव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण राजद का जो यहां हश्र हुआ सो हुआ, पार्टी के सुप्रीमो लालू प्रसाद भी एकदम अलग-थलग पड़ गये हैं। जिस लालू प्रसाद को देखने के लिए, उनकी राजनीतिक सलाह लेने के लिए रांची के रिम्स में मेला लग जाता था। वहां हेमंत सोरेन, डॉ अजय कुमार से लेकर बाबूलाल मरांडी-सुबोधकांत तक सिर झुकाने जाते थे, वे आज रिम्स में गुमनामी में पड़ गये हैं। झारखंड में जड़ें जमाने की कोशिश में सारे हथकंडे अपना कर सुभाष यादव ने जैसे-तैसे चतरा से राजद का टिकट तो हासिल कर लिया, पर इसके कारण महागठबंधन में होते हुए भी राजद इसका अंग नहीं बन सका। वैसे भी चतरा लोकसभा सीट के सहारे सुभाष यादव के संसद में पहुंचने का सपना चकनाचूर हो चुका है, जनता ने उन पर विश्वास नहीं जताया है, पर अपना धंधा जमाने के लिए उन्होंने चतरा में जमीन जरूर तलाश ली है। भले इसके लिए राजद बलि का बकरा बना हो और उसकी राजनीतिक जड़ें कबड़ गयी हों। चतरा चुनाव के बहाने सुभाष यादव की महत्वाकांक्षा ने कैसे लालू परिवार और राजद का झारखंड में बेड़ा गर्क किया है, इस पर नजर डाल रहे हैं हमारे राज्य समन्वय संपादक दीपेश कुमार।

हम बात कर रहे हैं झारखंड में तीसरे और चौथे चरण के चुनाव की। इस चुनाव को लेकर क्रमश: 12 और 19 मई को मतदान होना है। इसमें अब असली परीक्षा झामुमो की होनेवाली है। कारण सात सीटों पर होनेवाले चुनाव में चार सीटों पर झामुमो ने प्रत्याशी दिये हैं। अब तक झामुमो महागठबंधन के दूसरे साथियों की परीक्षा में बेहतरी के लिए दमखम लगा रहा था, लेकिन अब झामुमो को ही परीक्षा देने की बारी आ गयी है। कारण झामुमो जमशेदपुर, गिरिडीह, राजमहल और दुमका में खुद ही जनता की अदालत में है। शेष बचे दो चरणों के चुनाव में देखना दिलचस्प होगा कि बदली परिस्थितियों में झामुमो की साख कितनी बढ़ी है या बची है। सही मायने में तीर-धनुष की असली परीक्षा राजमहल में होनी है। वहीं दिशोम गुरु में कितना दमखम बचा है, यह दुमका सीट तय कर देगा। साथ ही गिरिडीह सीट यह तय करेगा कि कुरमियों के बीच झामुमो की कितनी पैठ है और समय के साथ शहरी वोटरों के बीच झामुमो कहां तक पहुंच बना पाया है, यह जमशेदपुर सीट से तय हो जायेगा। इस पर प्रकाश डाल रहे हैं आजाद सिपाही के सिटी एडिटर राजीव।

झारखंड में लोकसभा चुनाव 2019 के तहत दूसरे चरण का मतदान सोमवार को समाप्त हो गया। रांची, खूंटी, कोडरमा और हजारीबाग में कुल 61 प्रत्याशियों की राजनीतिक किस्मत इवीएम में कैद हो गयी है। इनमें से कौन चार लोग लोकसभा में अगले पांच साल तक झारखंड के इन चार चुनाव क्षेत्रों की आवाज बनेंगे, इसका फैसला तो 23 मई को होगा, लेकिन सोमवार के मतदान ने एक बात तो साफ कर दी है कि झारखंड के मतदाता आज भी लोकतंत्र में भरोसा करते हैं और ग्रामीण इलाकों में मतदान को लेकर अलग किस्म का उत्साह होता है। आज भी शहरों की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों में अधिक मतदान हुआ। इसके साथ ही इस चुनाव ने कम से कम चार राजनीतिक दिग्गजों के पूरे कैरियर को दांव पर रख दिया है।
ये हैं भाजपा के जयंत सिन्हा और अर्जुन मुंडा, कांग्रेस के सुबोधकांत सहाय और झाविमो के बाबूलाल मरांडी। इन चारों राजनीतिक दिग्गजों में से कोई भी यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि जनता ने उनके सिर पर विजय का ताज पहना ही दिया है। इन चारों राजनीतिक दिग्गजों के बारे में यही कहा जा सकता है कि मुकाबला कांटे का हुआ है। इन चारों सीटों पर कौन आगे है और कौन पीछे, इस बारे में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। मतदाताओं का मूड और मतदान के पैटर्न से भी नतीजा नहीं निकाला जा सकता। लेकिन एक बात तय है कि इन सीटों पर चुनाव लड़ रहे चार राजनीतिक दिग्गजों का पूरा कैरियर परिणाम पर ही टिक गया है।
यदि ये जीतने में कामयाब होते हैं, तो उनका कैरियर शिखर पर पहुंच जायेगा और यदि कहीं मतदाताओं का समर्थन नहीं मिला, तो इनके राजनीतिक सफर पर विराम भी लग जायेगा। मतदान के बरअक्स इन दिग्गजों के राजनीतिक कैरियर का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

सोमवार को जहां कोल्हान के चुनावी संग्राम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा है, तो मंगलवार को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का दौरा प्रस्तावित है। कोल्हान में दो लोकसभा क्षेत्र हैं चाईबासा और जमशेदपुर। दोनों ही सीटों पर अभी भाजपा का कब्जा है। पिछले चुनाव से इस बार का मुकाबला अलग है। विपक्ष इस बार महागठबंधन कर भाजपा से दो-दो हाथ कर रहा है। चाईबासा में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ के सामने कांग्रेस की गीता कोड़ा हैं। पिछले चुनाव में गीता जय भारत समानता पार्टी से चुनाव लड़ी थीं और उन्होंने लक्ष्मण गिलुआ को जबरदस्त टक्कर दी थी। वह दूसरे स्थान पर रही थीं। इस बार कांग्रेस से वह मैदान में हैं। वहीं जमशेदपुर में भाजपा और झामुमो के बीच मुकाबला है। भाजपा प्रत्याशी विद्युतवरण महतो और झामुमो प्रत्याशी चंपई सोरेन की राजनीति झामुमो से शुरू हुई थी। पिछली बार मोदी लहर में दोनों जगहों पर कमल खिला था। अब सवाल उठ रहा है कि क्या मोदी की सभा के बाद कोल्हान में उनका जादू चलेगा या राहुल महागठबंधन प्रत्याशी का बेड़ा पार लगायेंगे। मोदी की सभा के बाद बदलेगी कोल्हान की फिजां या राहुल को मिलेगा जनता का प्यार, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं आजाद सिपाही के राजनीतिक संपादक ज्ञान रंजन। 

कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी गुरुवार को दूसरी बार झारखंड आये। उन्होंने सिमडेगा में चुनावी रैली की। खूंटी संसदीय क्षेत्र के अधीन आनेवाला सिमडेगा आदिवासी और इसाई बहुल इलाका है। राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर राहुल गांधी इतनी देर से झारखंड क्यों आये। राज्य में पहले चरण के तहत तीन संसदीय सीटों पर चुनाव खत्म हो चुके हैं। इनमें से चतरा और लोहरदगा में जहां कांग्रेस के प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे, वहीं पलामू में राजद का उम्मीदवार था। अब दूसरे चरण के तहत रांची, खूंटी, कोडरमा और हजारीबाग में चुनाव होना है। इनमें से तीन सीटों, रांची, खूंटी और हजारीबाग में कांग्रेस ने प्रत्याशी उतारे हैं, वहीं कोडरमा में झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर कांग्रेस अध्यक्ष पहले चरण की सीटों पर प्रचार के लिए क्यों नहीं आये, जबकि वहां पार्टी को प्रचार की अधिक जरूरत थी। इतना ही नहीं, उन तीन सीटों पर कांगे्रस की पहली पंक्ति का कोई भी नेता प्रचार के लिए नहीं गया। राहुल गांधी इससे पहले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले दो मार्च को झारखंड आये थे और रांची के मोरहाबादी मैदान में परिवर्तन उलगुलान रैली को संबोधित किया था। राहुल गांधी की झारखंड में इस पहली चुनावी रैली के राजनीतिक मायनों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की रिपोर्ट।

हम बात करने जा रहे हैं आदिवासी मतदाताओं में कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्टÑीय दलों की पैठ की। आदिवासी वोटरों में किसकी कितनी पैठ है, लंबे समय से इसे लेकर बहस हो रही है। दोनों ही दल आदिवासी मतदाताओं के दिलों में जगह बनाने में वर्षों से पुरजोर कोशिश करते आ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस जहां दावा करती आ रही है कि भाजपा के शासन में आदिवासियों के लिए कुछ नहीं किया गया, उलटे अदिवासियों की जमीन लूटने की कोशिश की जा रही है आदि…आदि। वहीं, भाजपा का दावा है कि पिछले साढ़े चार वर्षों में आदिवासियों का जितना विकास हुआ, उतना कभी नहीं हुआ था। इस लोकसभा चुनाव में ही दोनों दल इन्हीं मुद्दों को लेकर आदिवासियों के बीच जा रहे हैं। लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद से ही राज्य की तीन सीटों लोहरदगा, खूंटी और चाईबासा को लेकर चर्चाएं तेज हो गयी हैं। तीनों ही सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हंै। इन तीनों सीटों पर आदिवासी मतदाताओं की बहुलता है। तीनों ही सीटें फिलहाल भाजपा के कब्जे में हैं। इस बार ये सीटें महागठबंधन के तहत कांग्रेस के खाते में गयी हैं। दरअसल ये तीन सीटें ही आगामी विधानसभा चुनावों में आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों का प्लॉट तैयार करेंगी। ये तय करेंगी कि अगले विधानसभा चुनावों में राज्य में आदिवासियों का रुझान क्या होगा और उनके लिए आरक्षित सीटों पर कौन भारी पडेÞगा। इसलिए इन तीन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राष्टÑीय दलों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। माना जा रहा है कि ये तीनों सीटें आदिवासी मतदाताओं का रुझान तो स्पष्ट करेंगी ही, साथ ही झारखंड में कांग्रेस की दशा और दिशा भी निर्धारित करेंगी। मजेदार बात है कि इस बार के चुनाव में घोर आदिवासी बहुल क्षेत्र दुमका या राजमहल की बात नहीं हो रही। न ही रांची और हजारीबाग जैसी सामान्य सीटों को लेकर चर्चा हो रही है, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से चर्चा के केंद्र में खूंटी, लोहरदगा और चाईबासा की सीटें ही हैं। आदिवासी मतदाता और राष्टÑीय पार्टियों के इस गणित का आकलन कर रहे हैं दीपेश कुमार।

झारखंड में लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी के बीच कई पुराने मिथक ध्वस्त हो रहे हैं, तो कई नये समीकरण भी बन रहे हैं। पार्टियां और नेता लगातार अपनी ठोस भूमिका को लेकर सक्रिय हैं। इनमें से कई तो केवल पार्टी आलाकमान को प्रभावित करने के लिए अपनी सक्रियता दिखा रहे हैं। लेकिन इन सभी पार्टियों से अलग आजसू पार्टी राज्य की सभी 14 संसदीय सीटों पर समान रूप से सक्रिय है और भाजपा की सहयोगी के रूप में जमीनी स्तर पर लगातार काम कर रही है। आजसू की इस सक्रियता के पीछे कहीं न कहीं इसके सुप्रीमो सुदेश महतो की रणनीति है। आज की तारीख में यदि यह कहा जाये कि सुदेश महतो झारखंड में भाजपा के लिए ह्यरक्षा कवचह्ण की भूमिका में आ गये हैं, तो गलत नहीं होगा। राजनीतिक हलकों में यह सवाल भी उठने लगा है कि आखिर सुदेश महतो की इस अतिसक्रियता के राजनीतिक संकेत क्या हैं। क्या इसके पीछे केवल सुदेश की रणनीति है या फिर भाजपा की सोची-समझी राजनीतिक पहल। वैसे झारखंड की राजनीति के दलदल भरे परिदृश्य में सुदेश महतो ने न केवल आजसू को मजबूती से खड़ा रखा है, बल्कि कई अवसरों पर अपनी रणनीतिक चतुराई का परिचय भी दिया है। झारखंड के चुनावों में सुदेश महतो की सक्रियता और इसके राजनीतिक मायनों को तलाश करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।