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विधानसभा चुनाव से ठीक पहले टिकट की समस्या हर दल में विकट हो चुकी है। हाल यह है कि हर दल में, चाहे वह सत्तारूढ़ भाजपा हो या उसकी सहयोगी आजसू, प्रमुख विपक्षी झामुमो हो या कांग्रेस या फिर झाविमो, सभी में टिकट को लेकर एक अनार और सौ बीमार की स्थिति है। भाजपा में टिकट के बंटवारे की समस्या गंभीर इसलिए हो गयी है, क्योंकि इस पार्टी में एक-एक विधानसभा क्षेत्र के लिए कई कद्दावर दावेदार हैं। ऐसे में टिकट का बंटवारा भाजपा के प्रदेश नेतृत्व और आलाकमान दोनों के लिए आसान नहीं रह गया है। हालांकि पार्टी ने टिकट के बंटवारे की प्रक्रिया को आसान और कार्यकर्ताओं के मिजाज के अनुरूप बनाने के लिए उनके साथ रायशुमारी की है, पर यह लगभग तय है कि टिकट बंटवारे के बाद हर नेता और कार्यकर्ता को खुश करना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। झारखंड में टिकट बंटवारे से पूर्व भाजपा की चुनौतियों और उसके संभावित परिणामों को रेखांकित करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

रांची। झारखंड में 81 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गयी है। और इसके साथ ही राजनीतिक दल भी पूरी तरह चुनावी मोड में आ गये हैं। प्रत्याशियों के चयन से पहले चुनाव पूर्व गठबंधन को कोशिशों का कुल जमा यही हासिल हुआ है कि राज्य की अधिकांश सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले की जमीन तैयार हो गयी है।
इस त्रिकोणीय मुकाबले का एक कोण जहां सत्तारूढ़ भाजपा और आजसू है, वहीं दूसरे कोण पर झामुमो के नेतृत्व वाला गठबंधन है, जिसमें कांग्रेस, राजद और दूसरे छोटे दल हैं। तीसरा कोण बाबूलाल मरांडी का झारखंड विकास मोर्चा बना रहा है, जिसने सभी 81 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी है। यह तो बड़ी तसवीर है, लेकिन यह भी सच है कि राज्य की करीब दर्जन भर सीटें ऐसी हैं, जहां भाजपा और आजसू या झामुमो और कांग्रेस के बीच दोस्ताना संघर्ष हो सकता है।
वैसे तो कोई भी संघर्ष दोस्ताना नहीं होता, लेकिन भारतीय चुनाव में इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है। विधानसभा चुनाव के पहले चरण की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही चुनाव की पूरी तसवीर पर निगाह डालती हमारे पॉलिटिकल ब्यूरो की यह स्पेशल रिपोर्ट।

पत्थर को जमीन पर दे मारिये तो वह टूट कर बिखर जाता है, वहीं रबड़ की गेंद के साथ यही कवायद करने पर वह आसानी से उछलती रहती है और उसकी सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। तो जीवन में जितना महत्वपूर्ण रवैया है उतना ही राजनीति में भी। और झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन का अड़ियल रवैया भी उनकी राह में मुसीबतें पैदा कर रहा है। राजद के प्रदेश के नेता जब उनसे सीट शेयरिंग पर बात करने गये तो पहले दिन हेमंत ने उन्हें नजरअंदाज किया। वे यह भूल गये कि झारखंड में राजद टूटी है लालू यादव नहीं टूटे हैं और अब भी किंग मेकर से कुछ कम स्वीकार करने के मूड में लालू यादव नहीं हैं चाहे उनका स्वास्थ्य बेहतर न हो, पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। झाविमो पहले ही झामुमो से किनारा कर चुका है। कांग्रेस आलाकमान भी अलग से हेमंत को बहुत भाव नहीं दे रहा है। माले भी उनके बारे में अपना विचार व्यक्त कर चुका है। हां, सीपीआइ और सीपीएम को छोड़ दिया जाये तो हेमंत के साथ उनकी पार्टी के विधायक और कार्यकर्ता ही साथ खड़े दिखायी दे रहे हैं। झारखंड की राजनीति में खुद को और अपनी पार्टी को प्रासंगिक बनाये रखने के लिए हेमंत सोरेन को अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा। यह जरूरत हाल के दिनों में आत्ममंथन करते समय वे महसूस भी कर रहे होंगे। विधानसभा चुनाव नजदीक आने पर झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी की चुनौतियों को रेखांकित करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

झारखंड में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है और इसके साथ ही गहमा-गहमी शुरू हो गयी है। छठ के बाद इसमें तेजी आयेगी। हरेक दल अपने-अपने हिसाब से चुनावी तैयारियों में लगा हुआ है। इन तैयारियों के साथ दूसरे दलों की रणनीतियों पर भी नजदीकी नजर रखी जा रही है। इसके लिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ दूसरे स्रोतों से भी जानकारी जुटायी जा रही है। इसके लिए बाकायदा टीम बनायी गयी है। इस राजनीतिक हलचल में यह बात छन कर सामने आ रही है कि आज की तारीख में हर दल झाविमो और आजसू के कदमों पर नजरें गड़ाये हुए है। बाबूलाल मरांडी और सुदेश महतो की रणनीति के आधार पर ही दूसरे दल फैसले कर रहे हैं। इन दोनों नेताओं के इस लाइम लाइट में आने और इसके संभावित परिणामों पर आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

भाजपा के मुख्य फोकस में आदिवासीझारखंड में इस बार के विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दलों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। खास कर सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यह चुनाव खास है, क्योंकि एक ओर उसे सत्ता में वापसी सुनिश्चित करनी है, तो दूसरी ओर रघुवर दास सरकार के कामकाज पर जनता की मुहर लगानी है। पार्टी ने 65 प्लस का लक्ष्य तय किया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कई टुकड़ों में बंटे विपक्ष के बावजूद यह लक्ष्य बहुत आसान नहीं है। अपने लक्ष्य को आसान बनाने के लिए भाजपा ने हर जतन शुरू कर दिया है। इसके साथ ही पार्टी ने अब यह भी साफ कर दिया है कि उसके मुख्य फोकस में 73 प्रतिशत गैर आदिवासी ही नहीं 27 प्रतिशत आदिवासी भी हैं। पार्टी ने राज्य कुछ बड़े आदिवासी चेहरों को अपने पाले में कर झारखंड की 27 प्रतिशत आबादी को यह संदेश दिया है कि भाजपा अब केवल 73 प्रतिशत गैर-आदिवासियों की ही पार्टी नहीं रही है। भाजपा की इस नयी रणनीति पर आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की रिपोर्ट।