आज की खबर विशेष में हम चर्चा कर रहे हैं उस कारोबार की, जो न सिर्फ नक्सलियों को आर्थिक मदद पहुंचाता है, बल्कि झारखंड के कुछ अफसरों को भी करोड़पति बना रहा है। इसे कोयला तस्करी कहते हैं। झारखंड में यह बड़ी तेजी से फला फूला है। जिसे जहां भी मौका मिलता है, वह इस अवैध कारोबार में डुबकी लगाने से चूकता नहीं। कोयला तस्करी में अगर एक बार शामिल हो गये, तो वह चाहे कोई भी हो, उसकी आर्थिक दशा बड़ी तेजी से बदल जाती है। इस कारोबार में सफेदपोश, कोयला तस्कर, बड़े व्यवसायी, पुलिस, पत्रकार और नक्सलियों की चौकड़ी शामिल है। पेश है अजय शर्मा की रिपोर्ट।
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आज खबर विशेष में हम बात कर रहे हैं राजनीति में इंट्री मार रहे नौकरशाहों की और इससे उत्पन्न होनेवाली स्थिति की। अगले कुछ महीनों में झारखंड में विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं। इसे लेकर अभी से ही राजनीतिक गतिविधियां बढ़ने लगी हैं। झारखंड में सियासी पारा गरम होने लगा है। टिकट पक्का कराने के लिए रांची से लेकर दिल्ली तक दावेदारी की दौड़ शुरू हो चुकी है। दावेदारों की भीड़ में सरकारी सेवा छोड़कर राजनीति का मेवा खाने की इच्छा रखनेवाले नौकरशाह भी शामिल हैं। राजनीति में भाग्य आजमाने के लिए अफसर इस्तीफा तक देने से पीछे नहीं हटते। पहले से ही इस्तीफा देकर किस्मत आजमा रहे अधिकारियों के साथ कुछ ऐसे भी हैं, जो अपना राजनीतिक भविष्य का आकलन करने में जुटे हैं। कुछ अधिकारी पर्दे के पीछे रहकर राजनीतिक हवा भांपने की कोशिश कर रहे हैं। इधर, रिटायर्ड आइएएस और आइपीएस भी टिकट की दावेदारी में पीछे नहीं हैं। कई नौकरशाहों को राजनीतिक आॅफर का इंतजार है। जाहिर सी बात है, आॅफर मिलने पर वे नौकरी से इस्तीफा देने से भी पीछे नहीं हटेंगे। इस चुनावी दंगल में कई नौकरशाह भी भाग्य आजमाने के फेर में हैं। उन्होंने बाकायदा इसके लिए तैयारी भी शुरू कर दी है। 40-45 साल की अपनी नौकरी का अनुभव लेकर अब राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहते हैं। इसमें बुराई तो कुछ नहीं है, पर उनका क्या, जो वर्षों से इसके लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर इसी में जी जान से जुटे हैं। राजनीतिक दलों के ऐसे पुराने और समर्पित कार्यकर्ता, जो इस एक टिकट की आस में अपना सारा जीवन तक गुजार देते हैं। उनकी सारी मेहनत पल भर में खत्म हो जाती है, जब अंतिम समय में उनका टिकट छीन कर किसी ऐसे व्यक्ति को दे दिया जाता है, जो किसी दूसरे क्षेत्र से पदार्पण करता है। खास तौर पर ऐसी सेकेंड इनिंग खेलने वाले नौकरशाहों को उनके लिए पचाना तक मुश्किल हो जाता है। पेश है दीपेश कुमार की रिपोर्ट।
झारखंड के लोग, खास कर किसान परेशान हैं, क्योंकि इस बार भी मानसून रूठा हुआ है। इंद्र देवता नाराज हो गये हैं। राज्य में बारिश नहीं हो रही है। किसानों के पास कोई काम नहीं है। उनकी जमा-पूंजी डूब रही है। इसके कारण अपना पेट पालने के लिए या तो वे दूसरी जगहों का रुख कर रहे हैं या फिर तनावग्रस्त होकर उल्टे-सीधे कदम उठा रहे हैं। इस साल अब तक आधी बारिश भी नहीं हुई है। इसका सीधा असर राज्य के विकास पर पड़ेगा। राज्य सरकार और प्रशासन अपनी ओर से भरपूर कोशिश कर रहा है, लेकिन प्रकृति की इस आपदा से पार पाना इतना आसान नहीं है। आखिर झारखंड में बारिश क्यों कम हो रही है। लगातार दूसरे साल कम बारिश होना चिंता का विषय तो है ही, हमारी उत्पादकता पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ रहा है। झारखंड पर मंडरा रही सूखे की काली छाया पर आजाद सिपाही टीम की खास पेशकश।
करीब दो साल पहले असंवैधानिक पत्थलगड़ी से चर्चा में आये खूंटी का माहौल एक बार फिर बिगड़ने लगा है। सोमवार की रात भाजपा नेता और उनके दो परिजनों की हत्या के बाद से यह सवाल उठने लगा है कि खूंटी में नक्सली-अपराधी गठजोड़ के आतंक के बीच लोग कब तक कराहते रहेंगे। पूरे झारखंड में खूंटी सत्ताधारी भाजपा का मजबूत गढ़ है। यहां के सांसद और विधायक केंद्र और राज्य में मंत्री हैं। फिर भी यहां नक्सली-अपराधी बेखौफ हैं। अफीम की खेती और पत्थलगड़ी जैसे गैर-कानूनी काम आज भी इलाके में बदस्तूर जारी हैं। पुलिस प्रशासन की तमाम सख्ती के बावजूद खूंटी में आपराधिक वारदातें हो रही हैं, राजनीतिक लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। खूंटी की यह हालत पूरी व्यवस्था के लिए, प्रशासन के लिए खुली चुनौती है। अब समय आ गया है कि भगवान बिरसा की जन्मभूमि पर शांति का माहौल कायम किया जाये। इसके लिए जन प्रतिनिधियों के साथ समाज के पहरुओं को भी आगे आना होगा। खूंटी में कानून-व्यवस्था की खराब होती स्थिति और इसकी पृष्ठभूमि पर आजाद सिपाही टीम की खास पेशकश।
गुमला के नगर सिसकारी गांव में रविवार तड़के केवल चार लोगों की हत्या ही नहीं हुई, बल्कि यह समाज की विकृति और जकड़न का परिचायक होने के साथ इस बात का भी संकेत है कि शहरों में मरते तंत्र का असर हमारे ग्रामीण इलाके तक पहुंच गया है। चार लोगों की हत्या अचानक या किसी प्रतिशोध में नहीं की गयी, बल्कि यह सोच-समझ कर लिया गया सामूहिक फैसला था। इस बर्बर घटना को अंजाम देने का फैसला पूरे गांव की पंचायत में 48 घंटे पहले ही ले लिया गया था। इसके बावजूद किसी भी ग्रामीण ने घटना की बाबत किसी बाहरी व्यक्ति को जानकारी नहीं दी। कुछ ग्रामीणों ने थानेदार को फोन भी किया, लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया। क्या हमारा ग्रामीण समाज, जो शहरी समाज की अपेक्षा अधिक संवेदनशील और मानवीय माना जाता है, इतना अमानवीय हो चला है। आखिर नगर सिसकारी के किसी भी वाशिंदे ने घटना से पहले अपनी जुबान क्यों नहीं खोली, यह एक बड़ा सवाल है। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या स्थानीय प्रशासन ग्रामीणों से इतना कट गया है कि इतनी बड़ी घटना की भनक भी उसे नहीं लगती है। गुमला के नगर सिसकारी गांव में हुई घटना की पृष्ठभूमि में इन सवालों का जवाब तलाशती आफताब अंजुम की खास रिपोर्ट।
सियासत में विरासत के प्रचलन का प्रमाण इतिहास के पुराने से पुराने किस्सों में दर्ज है। राजा का बेटा राजा की तर्ज पर मंत्री का बेटा मंत्री का फार्मूला लगभग हर पार्टी में दिख जाता है। मौजूदा राजनीति के दौर में एक पीढ़ी बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ी है। धीरे-धीरे वह अपनी राजनीतिक विरासत अपनी नयी पीढ़ी को सौंप रही है। नयी पीढ़ी के सामने चुनौतियां नये तरीकों की भी आनेवाली हैं। उन्हें पिता द्वारा सौंपा गया जनता का विश्वास भी कायम रखना है और बदले हुए दौर में आधुनिकता के साथ खुद को स्थापित भी करना है। झारखंड में भी विरासत की छांव में सियासत खूब फलती-फूलती रही है। इस विधानसभा चुनाव में इसका नजारा देखने को मिलेगा। झारखंड के इतिहास के पन्ने को पलटें तो विरासत की सियासत के कई उदाहरण मिल जायेंगे। इतना ही नहीं, विरासत की सियासत को भी झारखंड के राज ‘पुत्रों’ ने बखूबी संभाला भी है। झारखंड में विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक फिजां बदलने लगी है। आबोहवा में विरासत की सियासत के रंग घुलने लगे हैं। आइये ऐसे कुछ वरिष्ठ नेताओं और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के बारे में जानते हैं कि वे अपने पिता की दी हुई वैचारिक राजनीति को आगे ले जाने में कितना कामयाब हुए हैं। अपनी पिता की राजनीति से कितने प्रभावित हुए और खुद की पहचान बनाने में कितने कामयाब रहे। इस रिपोर्ट में राजीव यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि झारखंड की राजनीति को संभालने के लिए कैसे विरासत की पौध दस्तक रही है।
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को झारखंड में मिली हार से पार्टी में बगावत के सुर दिन-ब-दिन बुलंद होते जा रहे हैं। पहले से ही निशाने पर चल रहे प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार को हटाने के लिए अब वरिष्ठ नेता कमर कस कर मैदान में कूद चुके हैं। एक बार फिर पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बलमुचू, केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय और पूर्व मंत्री चंद्रशेखर दुबे सहित कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने दिल्ली में पार्टी के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल से मुलाकात कर अजय कुमार को हटाने की वकालत की है। यह तो तय है कि प्रदेश कांग्रेस के भीतर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। आपसी कलह में डूबी प्रदेश कांग्रेस के अलग-अलग गुट प्रदेश अध्यक्ष हटाओ और प्रदेश बचाओ के अभियान में जुटे हुए हैं। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पर झारखंड में कम और दिल्ली में ज्यादा रहने का आरोप लगाया जा रहा है। पार्टी के भीतर उनके कार्यकलापों को लेकर सवाल लगातार उठ रहा है। लोकसभा चुनाव के दौरान भी प्रदेश अध्यक्ष के कदम अपने प्रत्याशियों या गठबंधन के सहयोगी दलों के प्रत्याशियों के लिए कम ही निकले। अब इसी बात को पार्टी के भीतर उनके विरोधी मुद्दा बना रहे हैं। वे चाहते हैं कि विधानसभा चुनाव वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष के कार्यकाल में न हो, बल्कि किसी नये चेहरे को जिम्मेदारी मिले। कांग्रेस में उठे तूफान पर प्रकाश डाल रहे हैं राजीव।
मरांडी ने कहा- 81 प्रत्याशी उतारेंगे, कहीं यह प्रेशर पॉलिटिक्स तो नहीं
खबर विशेष में आज हम बात कर रहे हैं झाविमो के अंदर मचे बवंडर की। वर्तमान राजनीति में सब मुमकिन है, जो सबसे अधिक चुनावी मौसम में ही खुल कर नजर आता है। इसमें अवसरवादी दल-बदल, जोड़-तोड़, गेटिंग-सेटिंग और डील का राजनीतिक दांव चुनावी रणनीति का कारगर नुस्खा बना लिया गया है। कुर्सी गणित के तहत स्थापित राजनीतिक दल कब किसे अपना नेता बना कर खड़ा कर देंगे, कहा नहीं जा सकता। इस होड़ में वामपंथी दलों को छोड़ कर कोई भी सत्ताधारी दल या उसका नेता पीछे नहीं रहना चाहता। मजेदार बात है कि सारा खेल विकास और देशहित के नाम पर होता है और सबसे शातिर खिलाड़ी ही सबसे अधिक लोकतांत्रिक आदर्श और मूल्यों की दुहाई देते हुए नजर आता है। झारखंड प्रदेश भी अवसरवादी जोड़-तोड़ की राजनीति का दांव खेलने का कुख्यात अखाड़ा रहा है। अभी-अभी संपन्न हुए लोकसभा से पहले भी यह देखा गया। झारखंड में विधानसभा का चुनाव होना है और एक बार फिर दलों के अंदर भगदड़ मचना तय है। एक बार फिर सबसे बड़ी टूट का संकेत बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा में मिल रहा है। जिस तरह से झाविमो में अभी शांति व्याप्त है, वह किसी बड़े तूफान का संकेत दे रही है। क्या चल रहा है झाविमो में इस पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।
झारखंड की सबसे पुरानी और मजबूत पार्टी होने का दावा करनेवाले झारखंड मुक्ति मोर्चा की शिथिलता राज्य के लोगों के लिए कौतूहल का विषय है। आंदोलन की आंच में तप कर जो पार्टी अलग राज्य के आंदोलन में अगली कतार में थी, महज दो दशक के बाद ही इतनी कमजोर और लुंज-पुंज कैसे हो गयी, यह सवाल लोगों के मन में कौंध रहा है। लोकसभा चुनाव में अपने सबसे बड़े नेता की हार से झामुमो सकते में है। यही कारण है कि 23 मई के बाद से ही पार्टी चुप हो गयी है। यह स्थिति तब है, जब राज्य में अगले चार-पांच महीने में विधानसभा चुनाव होना है और उसमें विपक्षी गठबंधन की कमान झामुमो के हाथों में होगी। झामुमो अब तक यही तय नहीं कर पाया है कि वह किन मुद्दों के साथ विधानसभा चुनाव में मतदाताओं के सामने जायेगा। पार्टी नेतृत्व के पास ऐसा कोई मुद्दा नहीं है और न ही सत्तारूढ़ भाजपा ने उसे ऐसा कोई मौका ही मुहैया कराया है। लोकसभा चुनाव में अपने दरकते जनाधार को बचाने के साथ विधानसभा चुनाव की चुनौतियों के लिए झामुमो कितना तैयार है, इसका आकलन करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की रिपोर्ट।
रांची। झारखंड में महागठबंधन के बन रहे ताने-बाने के बीच सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। या यूं कहा जाये कि महागठबंधन में आल इज नॉट वेल, तो गलत नहीं होगा। कारण महागठबंधन की पहली बैठक में जो सीट जिसकी, वह दल उस पर लड़ेगा के चुनावी फार्मूले के दूसरे ही दिन झामुमो विधायक दल की बैठक के बाद हेमंत सोरेन ने 41 सीटों पर दावा कर दिया है। इसके बाद से लगे हाथ कांग्रेस ने भी 30 सीटों पर दावेदारी कर दी है। इस कारण सीटों पर सियासत उलझती नजर आ रही है। अब सवाल है कि महागठबंधन में बाकी बचे दलों का क्या होगा। आखिर इसमें बड़ा दिल कौन दिखायेगा। कारण होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले विपक्षी महागठबंधन की परीक्षा की घड़ी है। झामुमो ने जैसे ही 41 सीटों पर अपना दावा जताया, तो महागठबंधन के साथी बिफर पड़े। गठबंधन के साथी जेएमएम और हेमंत सोरेन को ही नसीहत देने लगे। ऐसे में एक बार फिर सवाल उठने लगा है कि क्या झारखंड में महागठबंधन में सीटों का पेंच सुलझ पायेगा। इन तमाम पहलुओं पर विवेचना कर रहे हैं राजीव।