दुमका के दंगल में उतर कर डॉ लुइस मरांडी ने जिस जोश और उत्साह का मुजाहिरा किया है, वह यह साबित करने के लिए काफी है कि वह यह चुनाव किसी अंडरडॉग की तरह लड़नेवाली नहीं हैं। लेकिन वह जानती हैं कि दुमका का उप चुनाव उनके चार दशक लंबे राजनीतिक कैरियर का संभवत: सबसे कठिन चुनाव साबित होनेवाला है, क्योंकि इस बार उनका मुकाबला एक ऐसे प्रतिद्वंद्वी से है, जिस पर वार करने के लिए उनके तरकश में बहुत अधिक तीर नहीं है। शायद इसलिए उन्होंने नामांक
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झारखंड की उप राजधानी दुमका विधानसभा सीट पर तीन नवंबर को होनेवाले उप चुनाव के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार के रूप में बसंत सोरेन ने नामांकन पत्र दाखिल कर दिया है। इसके साथ ही वह अपने पिता शिबू सोरेन और बड़े भाई हेमंत सोरेन की राजनीतिक विरासत को सहेजने के लिए जनता की अदालत में उतर चुके हैं। बसंत सोरेन के लिए प्रत्यक्ष चुनाव का यह पहला अनुभव है, हालांकि इससे पहले वह राज्यसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। दुमका को झामुमो का मजबूत गढ़ माना जाता है। शिबू
झारखंड की दो विधानसभा सीटों, दुमका और बेरमो में तीन नवंबर को होनेवाले मतदान की सरगर्मी शुरू हो गयी है। सत्तारूढ़ झामुमो और कांग्रेस के साथ विपक्षी भाजपा ने भी अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। भाजपा ने जहां अपने पुराने योद्धाओं पर भरोसा जताते हुए उन्हें एक बार फिर मैदान में उतारा है, वहीं झामुमो और कांग्रेस ने युवा प्रत्याशियों को अखाड़े में भेजा है। सत्ता पक्ष के दोनों उम्मीदवारों के लिए यह पहला चुनावी अनुभव है। इसलिए मुकाबला जोरदार होगा। दुमका में झामुमो
कोरोना का संकट काल छोड़ भी दें, तो सामान्य दिनों में भी झारखंड की सवा तीन करोड़ आबादी के लिए रांची का रिम्स सबसे भरोसेमंद संस्थान है, जहां आकर लोग अपना मर्ज थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन भूल जरूर जाते हैं। तमाम खराबियों और कुप्रबंधन के बावजूद राज्य का यह सबसे बड़ा अस्पताल झारखंड ही नहीं, आसपास के राज्यों के गरीब लोगों के भरोसे का केंद्र है। लेकिन हाल के दिनों में इस संस्थान की विश्वसनीयता को कुप्रबंधन और संवेदनहीनता के दीमक ने खोखला बना दिया है। तभी यहां भर्ती मरीज पानी के लिए तड़प कर मर जाता है, तो किसी मरीज को थाली की जगह जमीन पर ही खाना दे
कभी ‘मौसम वैज्ञानिक’, तो कभी ‘सूट-बूट वाले दलित नेता’ के विशेषणों से विभूषित रामविलास पासवान के निधन से भारत के सियासी परिदृश्य से एक ऐसे अध्याय का अवसान हुआ है, जिसे दोबारा लिखने की क्षमता शायद किसी में न हो। बिहार के खगड़िया जिले के एक गांव में एक दलित परिवार में पैदा होकर देश की राजनीति में धमाकेदार इंट्री लेनेवाले रामविलास पासवान में कई ऐसी विशेषताएं थींं, जो उन्हें हमेशा दूसरों से अलग करती थी। अपनी ठेठ बोली और बातचीत का गंवई अंदाज साबि
भारतीय लोकतंत्र का चुनावी इतिहास हमेशा से रोमांचक संघर्षों का गवाह रहा है, लेकिन इसके अलावा एक और बात, जो भारत के चुनावों ने कई बार प्रमाणित की है, वह है इसकी अनिश्चितता और मतदाताओं की निर्णय क्षमता। हर चुनाव भारत के लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता आया है, नये किस्से, नये समीकरण और नयी सियासी परिस्थितियों का निर्माण करता रहा है। चुनावों में कई नेता खोते रहे हैं, तो कई नये नेताओं के अभ्युदय का गवाह भी चुनावी मैदान बने हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम बार
बिहार विधानसभा का आगामी चुनाव हर दिन नया आकार ले रहा है और हर दिन समीकरण बदल रहे हैं। आज से 15 दिन पहले का समीकरण पूरी तरह धराशायी हो चुका है और चुनाव मैदान में आमने-सामने आये दो प्रमुख गठबंधनों का आकार और स्वरूप पूरी तरह बदल गया है। अपनी अलग और विशिष्ट राजनीतिक शैली तथा दुनिया को लोकतंत्र का पहला पाठ पढ़ानेवाले बिहार में 15 साल से सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा गठबंधन का खेमा जीतनराम मांझी की हम और मुकेश सहनी की वीआइपी के शामिल होने से अतिरिक्त ताकत बटोर चुका है, तो लोजपा के रूप में एक अहम सहयो
आज से 22 साल पहले शिव विश्वनाथन और हर्ष सेठी ने भारत में भ्रष्टाचार की कहानियों पर ‘क्रॉनिकल आॅफ करप्शन : फाउल प्ले’ नामक एक किताब लिखी थी, जिसमें उन्होंने भ्रष्टाचार को चार तरह से परिभाषित किया है। लेकिन कभी झारखंड की शान रही उषा मार्टिन कंपनी ने राज्य के माथे पर जो कलंक का टीका लगाया है, उसकी कल्पना भी इन लेखकों ने नहीं की है। देश की प्रतिष्ठित जांच एजेंसी सीबीआइ ने उषा मार्टिन प्रबंधन द्वारा बरते गये भ्रष्ट आचरणों का पता लगाते हुए इसी महीने की 2 अक्तूबर को जो प्राथमिकी दायर की है, उससे इस कंपनी के काले कारनामों की कलई खुल गयी है।
बिहार विधानसभा का चुनाव बेहद दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है। राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील माने जानेवाले हिंदी पट्टी के इस प्रमुख राज्य का चुनाव अब राष्ट्रीय दलों के बीच नहीं होकर जदयू और राजद के बीच का हो गया है, जिसमें एक तरफ की कमान 15 साल से सीएम रहे नीतीश कुमार हैं, तो दूसरी तरफ के सेनापति बिहार की सत्ता पर 15 साल तक काबिज रहे लालू-राबड़ी के पुत्र तेजस्वी यादव हैं। इन दोनों नेताओं की टक्कर में रोमांचक मोड़ इसलिए आया है, क्योंकि बिहार में जाती
राजनीति सचमुच ऐसा विषय है, जिसे न तो इतिहास से कोई मतलब रहता है और न ही भविष्य से। यह केवल वर्तमान पर जीता है और वर्तमान के बारे में ही सोचता है। इसलिए कहा जाता है कि राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न कोई स्थायी दुश्मन। बिहार में होनेवाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों के दौरान यह बात पूरी तरह सही साबित हो रही है। कल तक जो दल एक सा
झारखंड की दो विधानसभा सीटों, दुमका और बेरमो में तीन नवंबर को मतदान होगा। दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में यह पहला उप चुनाव हो रहा है। लिहाजा इसे लेकर राजनीतिक पार्टियां बेहद गंभीर हैं और पूरे दम-खम के साथ वे इस चुनावी मुकाबले में उतरने के लिए तैयार हो रही हैं। मुकाबले की तस्वीर भी लगभग साफ हो चुकी है। इसके अनुसार दुमका में जहां मुकाबला झामुमो और भाजपा के बीच होगा, वहीं बेरमो सीट पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर होगी, क्योंकि आजसू ने गठबंधन धर्म का पालन करते हुए बेरमो से अपनी दावेदारी वापस ले ली है। उप चुनाव की