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भारतीय लोकतंत्र का चुनावी इतिहास हमेशा से रोमांचक संघर्षों का गवाह रहा है, लेकिन इसके अलावा एक और बात, जो भारत के चुनावों ने कई बार प्रमाणित की है, वह है इसकी अनिश्चितता और मतदाताओं की निर्णय क्षमता। हर चुनाव भारत के लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता आया है, नये किस्से, नये समीकरण और नयी सियासी परिस्थितियों का निर्माण करता रहा है। चुनावों में कई नेता खोते रहे हैं, तो कई नये नेताओं के अभ्युदय का गवाह भी चुनावी मैदान बने हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम बार

बिहार विधानसभा का आगामी चुनाव हर दिन नया आकार ले रहा है और हर दिन समीकरण बदल रहे हैं। आज से 15 दिन पहले का समीकरण पूरी तरह धराशायी हो चुका है और चुनाव मैदान में आमने-सामने आये दो प्रमुख गठबंधनों का आकार और स्वरूप पूरी तरह बदल गया है। अपनी अलग और विशिष्ट राजनीतिक शैली तथा दुनिया को लोकतंत्र का पहला पाठ पढ़ानेवाले बिहार में 15 साल से सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा गठबंधन का खेमा जीतनराम मांझी की हम और मुकेश सहनी की वीआइपी के शामिल होने से अतिरिक्त ताकत बटोर चुका है, तो लोजपा के रूप में एक अहम सहयो

आज से 22 साल पहले शिव विश्वनाथन और हर्ष सेठी ने भारत में भ्रष्टाचार की कहानियों पर ‘क्रॉनिकल आॅफ करप्शन : फाउल प्ले’ नामक एक किताब लिखी थी, जिसमें उन्होंने भ्रष्टाचार को चार तरह से परिभाषित किया है। लेकिन कभी झारखंड की शान रही उषा मार्टिन कंपनी ने राज्य के माथे पर जो कलंक का टीका लगाया है, उसकी कल्पना भी इन लेखकों ने नहीं की है। देश की प्रतिष्ठित जांच एजेंसी सीबीआइ ने उषा मार्टिन प्रबंधन द्वारा बरते गये भ्रष्ट आचरणों का पता लगाते हुए इसी महीने की 2 अक्तूबर को जो प्राथमिकी दायर की है, उससे इस कंपनी के काले कारनामों की कलई खुल गयी है।

बिहार विधानसभा का चुनाव बेहद दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है। राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील माने जानेवाले हिंदी पट्टी के इस प्रमुख राज्य का चुनाव अब राष्ट्रीय दलों के बीच नहीं होकर जदयू और राजद के बीच का हो गया है, जिसमें एक तरफ की कमान 15 साल से सीएम रहे नीतीश कुमार हैं, तो दूसरी तरफ के सेनापति बिहार की सत्ता पर 15 साल तक काबिज रहे लालू-राबड़ी के पुत्र तेजस्वी यादव हैं। इन दोनों नेताओं की टक्कर में रोमांचक मोड़ इसलिए आया है, क्योंकि बिहार में जाती

राजनीति सचमुच ऐसा विषय है, जिसे न तो इतिहास से कोई मतलब रहता है और न ही भविष्य से। यह केवल वर्तमान पर जीता है और वर्तमान के बारे में ही सोचता है। इसलिए कहा जाता है कि राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न कोई स्थायी दुश्मन। बिहार में होनेवाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों के दौरान यह बात पूरी तरह सही साबित हो रही है। कल तक जो दल एक सा

झारखंड की दो विधानसभा सीटों, दुमका और बेरमो में तीन नवंबर को मतदान होगा। दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में यह पहला उप चुनाव हो रहा है। लिहाजा इसे लेकर राजनीतिक पार्टियां बेहद गंभीर हैं और पूरे दम-खम के साथ वे इस चुनावी मुकाबले में उतरने के लिए तैयार हो रही हैं। मुकाबले की तस्वीर भी लगभग साफ हो चुकी है। इसके अनुसार दुमका में जहां मुकाबला झामुमो और भाजपा के बीच होगा, वहीं बेरमो सीट पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर होगी, क्योंकि आजसू ने गठबंधन धर्म का पालन करते हुए बेरमो से अपनी दावेदारी वापस ले ली है। उप चुनाव की

पिछले साल जब झारखंड में विधानसभा चुनाव की गहमागहमी थी, कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में राज्य के किसानों का कर्ज माफ करने की घोषणा की थी। चुनाव हुए और झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन को सत्ता मिल गयी। दिसंबर में सरकार बनाने के महज तीन महीने बाद ही कोरोना का संकट पैदा हो गया और पूरे देश का पहिया थम गया। इस संकट के बीच अब हेमंत सोरेन सरकार ने राज्य के आठ लाख किसानों का 25 हजार रुपये तक का कर्ज माफ करने की घोषणा कर दी है, जिसे किसानों के हित में एक बड़ा कदम माना जा रहा है, साथ ही एक वर्ग इसे एक बड़े राजनीतिक दांव के रूप में देख रहा है। सत्ता संभालने के बाद से ही हेमंत सोरेन लगातार राज्य की बदहाल अर्थव्यवस्था की बात कहते रहे हैं। इसी बदहाली के कारण उन्हें कई लोकप्रिय योजनाओं को बंद करने का कठोर फैसला लेना पड़ा, जिसमें से एक मुख्यमंत्री कृषि आशीर्वाद योजना भी थी। अब उन्होंने कि

स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे संवेदनशील मामला, यानी अयोध्या से जुड़ा अंतिम विवाद भी 30 सितंबर को खत्म हो गया। अदालत ने 28 साल पहले छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा ढहाये जाने के मामले के सभी 32 आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि ढांचा गिराये जाने से पहले कोई साजिश नहीं रची गयी थी। अदालत ने इसे एक स्वत: स्फूर्त घटना करार देकर श्रीराम जन्मभूमि

झारखंड की दो विधानसभा सीटों के लिए होनेवाले उप चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी गयी है। दुमका और बेरमो में तीन नवंबर को मतदान होगा। दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में होनेवाला यह पहला उप चुनाव है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही इन दोनों सीटों पर कब्जे के लिए सियासी रणनीतियां बनायी जाने लगी हैं। यह मुकाबला बेहद कांटे का होगा, क्योंकि सत्तारूढ़ झामुमो और कांग्रेस जहां इन दोनों सीटों पर कब्जा बरकरार रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगी, वहीं भाजपा विधानसभा चुनाव में हुई करारी पराजय का बदला लेने की हरसंभव कोशिश करेगी। सीटों पर कब्जे के साथ सत्ताधारी गठबंधन के लिए एक और चुनौती इस उप चुनाव में है और वह यह कि इन दोनों सीटों के परिणाम राज्य सरकार के नौ महीने के कामकाज का रिपोर्ट कार्ड भी होगा। जहां तक प्रत्याशियों का सवाल है, तो सत्तारूढ़ गठबंधन में कोई व्यवधान नहीं है, उसने दुम

भारत में राजनीति भी अजीब फंडा है। यहां कौन नेता किस कारण से कब किस दल को छोड़ेगा या कब किसमें शामिल हो जायेगा, इसकी भविष्यवाणी बेहद कठिन है। शायद इसलिए व्यक्तिगत आकांक्षाओं और अपना राजनीतिक उद्देश्य पूरा करने के लिए नेताओं का दलबदल करना सुर्खियों में नहीं आता। आम लोग भी इस खेल को समझने लगे हैं। इसके बावजूद कुछ नेता ऐसे भी हैं, जिनका दल बदलना राजनीति के मैदान में कम से कम हलचल तो जरूर पैदा करता है, हालांकि इस बदलाव के का

राजनीति की गाड़ी संगठन की धुरी पर ही चलती है। तकनीकी विस्तार और पहुंच के बावजूद संगठन का पर्याय अब तक नहीं खोजा जा सका है। भारत में राजनीतिक दलों के भीतर संगठन को चुस्त-दुरुस्त बनाने की कवायद सबसे पहले भाजपा ने ही शुरू की। अंदरूनी चुनाव और संगठन को ठोस आकार देने में पार्टी सबसे आगे रही है। अभी पार्टी ने अपने नये राष्ट्रीय पदधारियों की जो सूची जारी की है, उसे देख कर इस धारणा की पुष्टि होती है कि पार्टी संगठन पर सबसे अधिक ध्यान देती