ओड़िशा राजा की सेना ने खेली थी आदिवासी-मूलवासियों के खून की होली

आजादी के मात्र 133 दिन बाद झारखंड में जलियावालां कांड दोहराया गया

खरसावां। एक जनवरी। जब पूरा देश नया साल के जश्न में डूबा था, तब खरसावां के आदिवासी अपनों के लिए आंसू बहा रहे थे। 1948 के गोलीकांड के शहीदों को श्रद्धांजलि दे रहे थे। खरसावां में जश्न नहीं मातम मनता है। एक जनवरी 1948 को शहीद मैदान में सैकड़ों आदिवासी-मूलवासी शहीद हुए थे। जलियावालां बाग कांड की तर्ज पर आजाद भारत में भीजलियावालां बाग कांड हुआ था। यह घटना किसी दूसरे प्रदेश में नहीं, बल्कि झारखंड के सिंहभूम में घटी थी। इस कांड के जख्म 71 साल बाद भी•ारे नहीं हैं। कारण था, झारखंड की पहचान सिंहभूम को ओड़िशा में मिलाने की कोशिश, लेकिन झारखंड की माटी के सपूतों ने अपनी शहादत देकर झारखंड के भोगोलिक  क्षेत्र को अक्षुण्ण बनाये रखा। इसी समय जय झारखंड का नारा भीजोरों से बुलंद हुआ था। इस घटना के शोक में कोल्हान के लोग आज भीनया साल नहीं मनाते हैं।

दरअसल, हुआ यूं कि 25 दिसंबर 1948 को चंद्रपुर जोजोडीह में नदी किनारे एक सभा  आयोजित की गयी थी। इसमें तय किया गया कि सिंहभूम को ओड़िशा में नहीं मिलाया जाये। बल्कि यह अलग झारखंड राज्य के रूप में रहे। दूसरी ओर सरायकेला खरसावां के राजाओं ने इसे ओड़िशा राज्य में शामिल करने की सहमति दे दी थी। झारखंडी जनमानस खुद को स्वतंत्र राज्य के रूप में अपनी पहचान कायम रखने के लिए गोलबंद होने लगा। तय किया गया कि एक जनवरी को खरसावां के बाजारटांड़ में सभा  का आयोजन किया जायेगा, जिसमें जयपाल सिंह मुंडा भीशमिल होंगे। इस रैली और सभा  में जयपाल सिंह मुंडा ने आने की सहमति दी थी। जयपाल सिंह को सुनने के लिए तीन दिन पहले से ही चक्रधरपुर, चाईबासा, जमशेदपुर, खरसावां, सरायकेला के ग्रामीण क्षेत्र के युवा, बच्चे, बूढ़े, नौजवान और महिला पैदल ही सभा स्थल की ओर निकल पड़े। अपने सिर पर लकड़ी की गठरी, चावल, खाना बनाने का सामान, डेगची-बर्तन भीसाथ में लेकर आये थे। उस दिन हाट-बाजार का भीदिन था। आस-पास की महिलाएं बाजार करने के लिए आयी थीं। दूर-दूर से आये बच्चों एवं पुरुषों के हाथों में पारंपरिक हथियार और तीर-धनुष थे। वहीं रास्ते में सारे लोग नारे लगाते जा रहे थे और आजादी के गीत भीगाये जा रहे थे। एक ओर राजा के निर्णय के खिलाफ पूरा कोल्हान सुलग रहा था। दूसरी ओर सिंहभूम को ओड़िशा राज्य में मिलाने के लिए ओड़िशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय पाणी भीअपना षडयंत्र रच चुके थे। ओड़िशा राज्य प्रशासन ने पुलिस को खरसावां भेज दिया। पुलिस चुपचाप मुख्य सड़कों से नहीं होकर अंधेरे में 18 दिसंबर 1947 को खरसावां पहुंची। इसमें शस्त्रबलों की तीन कंपनियां थीं, जो खरसावां मिडिल स्कूल में जमा हुईं। आजादी के मतवाले इन बातों से बेखबर अपनी तैयारी में लगे थे। सभीजय झारखंड का नारा लगाते हुए जा रहे थे और साथ ही ओड़िशा के मुख्यमंत्री के खिलाफ भीनारा लगा रहे थे। इधर, झारखंड आबुव: उड़िशा जारी कबुव: रोटी पकौड़ी तेल में, विजय पाणी जेल में- का नारा बुलंद किया गया। राज्य की मुख्य सड़कों से जुलूस निकाला गया। इसके बाद कुछ नेता खरसावां राजा के महल में जाकर उनसे मिले और सिंहभूम की जनता की इच्छा बतायी। इस पर राजा ने कहा कि इस विषय पर भा रत सरकार से बातचीत करेंगे। दो बजे दिन से चार बजे तक सभा  हुई। सभा  के बाद आदिवासी महासभा  के नेताओं ने सभीको अपने-अपने घर जाने को कहा। सभीअपने-अपने घर की ओर लौट गये, लेकिन कुछ लोग सभा स्थल पर ही रुक रहे। सभा  समाप्त होने के आधे घंटे के बाद बिना चेतावनी के गोलीबारी शुरू कर दी गयी। आधे घंटे तक गोली चलती रही, गोली चलाने के लिए आधुनिक हथियारों का प्रयोग किया गया। इस गोलीकांड में आदिवासी और मूलवासी कटे पेड़ की तरह गिरने लगे। घर लौटते लोगों पर भीओड़िशा सरकार के सैनिकों ने गोलियों की बौछार कर दी। इस गोलीकांड से बचने के लिए बहुत से लोग सीधे जमीन पर लेट गये। कई लोग जान बचाने के लिए पास के कुआं में भीकूद गये, जिसमें सैकड़ों लोगों की जान चली गयी। महिला-पुरुषों के अलावा बच्चों की पीठ पर भीगोलियां दागी गयीं। यहां तक कि घोड़े, बकरी और गाय भीइस खूनी घटना के शिकार हुए। गोलियां चलने के बाद पूरे मैदान में लाशें बिछ गयी थीं। वहां कई घायल गिरे पड़े थे। लाशों को ओड़िशा सरकार के सैनिक ने चारों ओर से घेर रखा था। सैनिकों ने किसी भीघायल को वहां से बाहर जाने नहीं दिया। घायलों की मदद के लिए किसी को अंदर आने की अनुमति नहीं दी गयी। घटना के बाद शाम होते ही ओड़िशा सरकार के सैनिकों की ओर से बड़ी ही निर्ममता पूर्वक इस नरसंहार के सबूत को मिटाना शुरू कर दिया गया था। गोलीबारी के बाद सैनिकों ने शव को एकत्रित किया और 10 ट्रकों में लादकर ले गये। लाशों को सारंडा के बिहड़ों में ले जाकर फेंक दिया गया। वहीं इस घटना में महिला-पुरुष एवं बच्चों का बेरहमी से नरसंहार किया गया। घायलों को सर्दी की रात में पूरी रात खुले में छोड़ दिया गया और उन्हें पानी तक नहीं दिया गया। इसके बाद ओड़िशा सरकार ने बाहरी दुनिया से इस घटना को छिपाने की भरपूर  कोशिश की। बहादुर उरांव के अनुसार ओड़िशा सरकार नहीं चाहती थी कि इस नरसंहार की खबर को बाहर जाने दें, यहां तक कि बिहार सरकार ने घायलों के उपचार के लिए चिकित्सा दल और सेवा दल भी•ोजा, जिसे वापस कर दिया गया। साथ ही पत्रकारों को भीइस जगह पर जाने की अनुमति नहीं थी। लोग बताते हैं कि एक ओर जहां देश और दुनिया में नववर्ष के आगमन पर जश्न मनाया जाता है, वहीं  दूसरी ओर खरसावां और कोल्हान के लोग आज भीअपने पूर्वजों की याद में एक जनवरी को काला दिवस और शोक दिवस के रूप में मनाते हैं। झारखंड की लड़ाई बहुत पुरानी थी, अलग झारखंड की लड़ाई में मैंने अपने पुत्रों को भीखोया, लेकिन जिस तरीके से राज्य में विधि व्यवस्था चल रही है और झारखंडियों का शोषण हो रहा है, यह पीड़ादायक है। अपनी बात को कहते हुए लोग रो पड़ते हैं और कहते हैं कि क्या इस तरह के राज्य के लिए हमने संघर्ष किया था। जहां जनता की इच्छा और आकांक्षा को दरकिनार किया जा रहा है। खरसावां गोलीकांड आजाद भा रत के इतिहास में सबसे निंदनीय एवं दूसरा जलियावालां बाग कांड था। आजाद भा रत में पहली बार स्वाधीनता दिवस के 133 दिन बाद, लोकतांत्रिक देश के खरसावां में कर्फ्यू लगाया गया था।

शहीदों को आज तक नहीं मिला सम्मान 

खरसावां गोलीकांड में मारे गये सभीशहीदों की पहचान आज तक नहीं हो सकी है। गोलीकांड के इतने साल बाद भीशहीदों के परिजनों को अपेक्षित सम्मान नहीं मिला है। आश्रितों को मुआवजा या नौकरी नहीं मिली। हर साल पहली जनवरी को शहीद स्थल पर जुटनेवाले नेता अपने भा षण में शहीदों को मान-सम्मान दिलाने, परिजनों को मुआवजा और नौकरी देने की घोषणा करते हैं। यही सिलसिला आज तक जारी है।

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