भाजपा-झाविमो का बहुचर्चित महामिलन समारोह संपन्न हो गया है और झारखंड की एक मजबूत राजनीतिक हस्ती बाबूलाल मरांडी अब भाजपा में हैं। राज्य बनने के बाद से यह झारखंड की सबसे बड़ी राजनीतिक घटनाओं में से एक है। इस महामिलन का राजनीतिक महत्व भले ही बाद में नजर आये, तात्कालिक तौर पर इसे भाजपा के मास्टर स्ट्रोक के रूप में देखा जा रहा है। भाजपा ने बाबूलाल मरांडी के रूप में एक बड़ा आदिवासी चेहरा हासिल तो किया ही है, साथ ही यूपीए में सेंध भी लगायी है। इस बड़े राजनीतिक घटनाक्रम का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

करीब तीन महीने पहले झारखंड विधानसभा चुनाव से ठीक पहले झारखंड में भाजपा के चुनाव प्रभारी ओम माथुर से रांची में जब मीडियाकर्मियों ने आजसू से तालमेल के बारे में सवाल पूछा था, तब उन्होंने कहा था कि सब कुछ लाइन पर है और उनकी रणनीति कभी फेल नहीं करती। दरअसल भाजपा के इस मंजे हुए संगठनकर्ता का जवाब केवल आजसू से तालमेल का नहीं था, बल्कि भविष्य में उठाये जानेवाले कदमों की ओर इशारा भी था। 17 फरवरी को रांची में धुर्वा के प्रभात तारा मैदान में आयोजित महामिलन समारोह में जाती हुई ठंड की दोपहरी में जब बाबूलाल मरांडी औपचारिक तौर पर भाजपा में शामिल हो रहे थे, तब मीडिया गैलरी में ओम माथुर के उन शब्दों को याद कर मीडिया के लोग भाजपा की आगे की रणनीति के बारे में अनुमान लगा रहे थे।
बाबूलाल मरांडी केवल झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष ही नहीं हैं, बल्कि प्रदेश की एक मजबूत राजनीतिक ताकत भी हैं। यह सच है कि 14 साल पहले उन्होंने जिस झारखंड विकास मोर्चा की नींव रखी, उसे वह अपेक्षित चुनावी सफलता नहीं दिला सके, लेकिन इसके बावजूद मरांडी की राजनीतिक हैसियत कभी कम नहीं हुई। हर मुद्दे पर अपनी बेबाक राय रखनेवाले और विपरीत परिस्थितियों में भी जूझने का जज्बा रखनेवाले संघ के इस पूर्व प्रचारक ने कभी हार नहीं मानी। अपने राजनीतिक कैरियर की इस तीसरी पारी के बारे में वह कहते हैं, भाजपा से 14 वर्ष का अलगाव उनकी राजनीतिक तपस्या थी, जो आज पूरी हुई है।
बाबूलाल मरांडी को अपने पाले में कर भाजपा ने राजनीतिक रूप से बड़ा दांव खेला है। इसे भाजपा का मास्टर स्ट्रोक कहा जा रहा है। झारखंड विधानसभा के पिछले चुनाव में पार्टी के अब तक के सबसे निराशाजनक प्रदर्शन के बाद केंद्रीय नेतृत्व के सामने अपने मजबूत किले को बचाने की बड़ी चुनौती थी। 2014 में रघुवर दास को झारखंड की कमान सौंप कर भाजपा ने ऐसा दांव खेला था, जो इस चुनाव में उल्टा साबित हुआ। पार्टी को राज्य की 28 आदिवासी सीटों में से केवल दो पर ही जीत मिल सकी। इससे पार्टी नेतृत्व चौकन्ना हो गया और एक बड़े आदिवासी चेहरे को सामने लाने की जुगत में लग गया।
हालांकि भाजपा के पास अर्जुन मुंडा के रूप में एक चेहरा है, लेकिन लोकसभा चुनाव में खूंटी से जीत हासिल करने के बाद वह केंद्र में झारखंड के आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने लगे। ऐसे में उन्हें दोबारा प्रादेशिक राजनीति में भेजने में भाजपा को दिक्कत होती। तब भाजपा ने बाबूलाल मरांडी से बात की। उधर बाबूलाल की अपनी मजबूरी थी। झारखंड विकास मोर्चा की बदौलत वह जिस राजनीति को परवान चढ़ाने की कोशिश कर रहे थे, उसमें उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही थी।
वह आदिवासियों के करीब जाने में सफल नहीं हो रहे थे और अल्पसंख्यक उनसे बिदकने लगे थे। 14 साल पहले जब वह भाजपा के ताबूत में अंतिम कील ठोंकने का संकल्प लेकर अलग रास्ते पर चले थे, अल्पसंख्यक उनके साथ हो गये थे। इसी बल पर उन्होंने दो बार कोडरमा से सांसद का चुनाव भी जीता। लेकिन बाद के दिनों में यह बड़ा जनाधार भी उनसे दूर होता गया। विधानसभा के पिछले चुनाव में अपने दम पर राज्य की सभी 81 सीटों पर चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखानेवाले बाबूलाल मरांडी को महज तीन सीटें ही मिलीं। इस राजनीतिक परिस्थिति में उनके सामने घर वापसी के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा था। पिछले चुनाव में उनके आठ विधायक जीते थे, लेकिन पांच साल आते-आते उनमें से सात भाजपा में चले गये। इस बार भी बाबूलाल अकेले रह गये, क्योंकि उनके दो विधायक प्रदीप यादव और बंधु तिर्की ने कांग्रेस का दामन थाम लिया है।
जहां तक भाजपा की बात है, तो उसे बाबूलाल मरांडी के रूप में बड़ा चेहरा तो मिला ही, उसने यूपीए में सेंध लगा कर साफ कर दिया है कि विधानसभा चुनाव में पराजित होने के बावजूद उसका हौसला पस्त नहीं हुआ है। भाजपा अपने विरोधियों को चोट पहुंचाने का कोई अवसर नहीं गंवा सकती। यह भी कि उसके पास अभी कई हथियार हैं और इनमें से किसी का भी इस्तेमाल करने में वह गुरेज नहीं करेगी। अब बाबूलाल मरांडी के जरिये भाजपा झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार के सामने और बड़ी चुनौती पेश करने में सक्षम होगी। झारखंड की पांचवीं विधानसभा में उसकी सदस्य संख्या बढ़ कर अब 26 हो गयी है।
भाजपा की आवाज निश्चित तौर पर बुलंद होगी, क्योंकि राज्य के सबसे संवेदनशील मुद्दे, जल-जंगल-जमीन पर झामुमो को घेरने में उसे आसानी होगी। अब तक इस मुद्दे पर झामुमो के शीर्ष नेतृत्व को घेरने के लिए भाजपा के पास गैर-आदिवासी चेहरे थे, जिसके कारण प्रहार उतना असरकारक नहीं हो पाता था। बाबूलाल मरांडी की आवाज इस मुद्दे पर अधिक प्रभावी होगी। बाबूलाल मरांडी के शामिल होने के बाद भाजपा ने एक और बड़ा लक्ष्य भेद लिया है। उसने झारखंड की अब तक चौकोर राजनीति को त्रिकोण में बदल दिया है। झारखंड में अब तक भाजपा के विरोध में तीन ताकतें खड़ी थीं। पहला झामुमो, दूसरा कांग्रेस और तीसरा झाविमो। लेकिन अब भाजपा ने अपने विरोध के एक कोण के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया है। इस समाप्त हो चुके कोण के साथ मिल कर अब भाजपा हेमंत सोरेन सरकार के सामने बड़ी चुनौती बन कर खड़ी हो सकती है।
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि बाबूलाल मरांडी के भाजपा में शामिल होने से उनके राजनीतिक नजरिये में कोई बदलाव नहीं आयेगा। अंतर केवल इतना होगा कि पहले वह अकेले थे, अब भाजपा की ताकत भी उनके साथ है। विश्लेषक कहते हैं कि भाजपा को बाबूलाल मरांडी का साथ मिलने का सबसे अधिक फायदा झारखंड को होगा। संगठन में नयी ऊर्जा का संचार होगा और यहां के लोगों को नयी आवाज मिलेगी। भाजपा के पास बाबूलाल मरांडी जैसे सुलझे हुए नेता का साथ है।
अंजाम चाहे कुछ भी हो, बाबूलाल मरांडी के रूप में भाजपा को एक बड़ा चेहरा मिला है और बाबूलाल मरांडी को बड़ा संगठन। ये दोनों एक-दूसरे का लाभ कितना उठा सकेंगे, इसका पता तो आनेवाले दिनों में चलेगा।

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