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‘समाधान यात्रा’ से किसी समस्या का समाधान तो नहीं हुआ, उल्टे बढ़ गयी मुश्किलें
अब तो विपक्षी एकता की धुरी बनने की महत्वाकांक्षा भी फांकने लगी धूल

बिहार के मुख्यमंत्री और ‘सुशासन बाबू’ के नाम से चर्चित नीतीश कुमार अपनी डेढ़ महीने की ‘समाधान यात्रा’ खत्म कर पटना लौट गये हैं, लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि इस यात्रा से उन्होंने किस समस्या का समाधान किया। इस यात्रा का कुल फलाफल नीतीश कुमार के लिए यही रहा कि इसने बिहार के सामने कुछ नयी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। पहले से ही जहरीली शराब और सांप्रदायिक हिंसा की आग में तप रहे बिहार में जातीय हिंसा ने विकराल रूप धारण कर लिया। उस जले पर राजनीतिक मोर्चे पर नीतीश कुमार की जगजाहिर मजबूरियों ने नमक छिड़क कर ‘सुशासन बाबू’ को भारतीय राजनीति की ‘अबूझ पहेली’ बना दिया है। नीतीश कुमार को समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह अपना अगला कदम कहां रखें। प्रधानमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को असमय ही काल के गाल में समाता देख नीतीश खुद को 2024 में विपक्षी एकता की धुरी बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अब तो ऐसा लगने लगा है कि उनकी यह महत्वाकांक्षा भी दम तोड़ने लगी है। पहले आरसीपी सिंह और फिर उपेंद्र कुशवाहा के अलावा राजद के सुधाकर सिंह और चंद्रशेखर की आलोचनाओं से चौतरफा घिर चुके नीतीश कुमार का अगला कदम क्या होगा, यह देखने वाली बात हो सकती है। फिलहाल तो नीतीश कुमार अपनी यात्रा खत्म करने के बाद थोड़ा सुस्ताने के मूड में नजर आ रहे हैं, लेकिन उन्हें भी यह सवाल जरूर मथ रहा होगा कि उनका अगला कदम क्या होगा। नीतीश के सामने उत्पन्न इसी सवाल का जवाब तलाश रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चार जनवरी से राज्य की ‘समाधान यात्रा’ पर निकले थे। यह यात्रा 16 फरवरी को समाप्त हो गयी। इस यात्रा का मकसद बिहार के सभी 38 जिलों की यात्रा कर लोगों से बात करना और सरकारी योजनाओं के बारे में उनकी राय जानना था। लेकिन यात्रा की समाप्ति के बाद अब यह सवाल बिहार की राजनीति में तैरने लगा है कि इस यात्रा से नीतीश को क्या हासिल हुआ। सत्तारूढ़ जदयू और राजद के नेताओं के अनुसार समाधान यात्रा अपने मकसद में सौ फीसदी कामयाब रही, लेकिन हकीकत की जमीन पर ये दावे कहीं नहीं ठहरते। इतना जरूर है कि इस यात्रा ने नीतीश कुमार को बिहार की राजनीति में ही बांध कर रख दिया। उनके लिए अब बिहार से बाहर निकलना इतना आसान नहीं होगा। आसान भाषा में कहा जाये, तो इस बार की यात्रा क्यों निकाली गयी, यह समझ से परे है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि नीतीश कुमार खुद भी यात्रा के मकसद को लेकर कन्फ्यूज थे। इसलिए माना यही जा रहा है कि यह काफी निराशाजनक यात्रा थी। पिछली यात्रा में नीतीश ने साफ तौर पर शराबबंदी के प्रचार को मुद्दा बनाया था। इस बार वह जदयू और राजद के मतदाताओं को एकजुट कर सकते थे, लेकिन उन्होंने कोई जनसभा तक नहीं की और राजनीतिक सवालों से भी बचते रहे। नीतीश कुमार ने अपनी इस यात्रा में उपेंद्र कुशवाहा को लेकर बयान तो दिया, लेकिन केंद्र की राजनीति से जुड़े सवालों को वह आमतौर पर टालते दिखे। इससे साफ जाहिर होता है कि यात्रा और अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर नीतीश कुमार पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। इसलिए कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार अपनी आगे की राजनीति के लिहाज से जनता की नब्ज टटोल रहे थे। उन्होंने लोगों से मुलाकात की है और उनकी राय जानी है। अब इसकी समीक्षा करेंगे और फैसले लेंगे। लेकिन यात्रा की समाप्ति पर मीडिया से बातचीत में नीतीश ने साफ कह दिया कि वह पीएम पद की उम्मीदवारी की दौड़ में शामिल नहीं हैं। इससे यह भी साफ हो गया कि नीतीश कुमार को बिहार से बाहर निकलने के लिए अभी इंतजार करना होगा, जबकि हकीकत यही है कि उनके पास उतना वक्त नहीं है। नीतीश की इस समाधान यात्रा को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी से भी जोड़कर देखा जा रहा था। उन्हें इस यात्रा के दौरान विरोधियों के हमले भी झेलने पड़े और उन्हें अपनी ही पार्टी में चल रहे विवाद का भी सामना करना पड़ा। इससे एक बात तो साफ हो गयी कि नीतीश के लिए आगे का रास्ता पूरी तरह निरापद नहीं है।
नीतीश कुमार ने सबसे पहले साल 2005 में राज्य की यात्रा की थी। उसके बाद वह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। इस बार की यात्रा नीतीश कुमार के लिए बिहार में उनकी राजनीतिक ताकत को समझने के लिए काफी अहम थी, लेकिन इसने उल्टा असर किया है। जहरीली शराब और सांप्रदायिक तनावों की तपिश में झुलस रहे बिहार में जातीय हिंसा ने अपना सबसे भीषण रूप दिखाया। इसने जहां नीतीश कुमार की प्रशासनिक क्षमता पर सवालिया निशान खड़े कर दिये, वहीं सत्तारूढ़ महागठबंधन के घटकों में भी बेचैनी पैदा कर दी है। अब नीतीश कुमार इसकी काट खोजने में लग गये हैं। उनकी इस कोशिश में पलीता लगाने और उनकी राजनीतिक घेरेबंदी करने भाजपा के ‘चाणक्य’ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बिहार आ रहे हैं। वह वाल्मीकिनगर और पटना में सभाएं करेंगे। इसलिए अब नीतीश कुमार भी 25 फरवरी को महागठबंधन के सभी बड़े नेताओं के साथ भाजपा के खिलाफ पूर्णिया में रैली करने वाले हैं। यानी आने वाले दिनों में नीतीश कुमार को घरेलू मोर्चे से लेकर विरोधियों तक को जवाब देना है। और इस क्रम में उनके सामने चुनौतियां भी बड़ी होती जायेंगी, यह उन्हें याद रखना होगा।
अब सभी की निगाहें नीतीश के अगले कदम पर टिक गयी हैं। यात्रा के अंतिम चरण में उनकी अमित शाह से हुई बातचीत ने कई तरह की चर्चाओं को जन्म दिया था, लेकिन नीतीश ने इन पर विराम तो लगा दिया है, लेकिन बिहार की मौजूदा राजनीतिक स्थिति में किसी अनहोनी से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। जहां तक नीतीश कुमार की बात है, तो वह खुद ही कह चुके हैं कि वह 2024 के लिए तैयार तो हैं, लेकिन अभी इंतजार करना होगा। इस कथन का क्या मतलब निकलता है, यह तो नीतीश ही जानें, लेकिन इतना तय है कि उन्हें पता चल गया है कि विपक्षी एकता की धुरी बनने की उनकी महत्वाकांक्षा अब धरातल पर नहीं उतर सकती। अपने मित्र और ‘बड़े भाई’ लालू यादव की दिल्ली वापसी के बावजूद नीतीश कुमार उतने कॉनफिडेंट नजर नहीं आ रहे, जितने कुछ दिन पहले थे।

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