-एकनाथ शिंदे से फिर हार कर कैसे संभालेंगे बाल ठाकरे की विरासत
-चुनाव आयोग के फैसले के बाद फिर करवट लेगी महाराष्ट्र की राजनीति

19 जून 1966 को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना का गठन किया था। पार्टी के 57 साल के इतिहास में ठाकरे परिवार को शुक्रवार 17 फरवरी को सबसे बड़ा झटका लगा। पिता की बनायी पार्टी उद्धव ठाकरे के हाथ से आखिरकार पूरी तरह से निकल गयी। पार्टी का नाम तो गया ही, साथ ही चुनाव निशान भी ठाकरे परिवार के हाथ से चला गया। इसके साथ ही यह सवाल हवा में तैरने लगा है कि आखिर बाला साहेब ठाकरे की विरासत को उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे कैसे संभाल सकेंगे। चुनाव आयोग के फैसले के बाद क्या महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर करवट लेगी, जैसा कि पिछले साल जून में एकनाथ शिंंदे की बगावत के बाद हुआ था। इन सवालों के जवाब इतने आसान नहीं हैं। एकनाथ शिंदे के हाथों एक बार फिर पराजित होने के बाद उद्धव ठाकरे के सामने न केवल पार्टी को नये सिरे से खड़ा करने की चुुनौती है, बल्कि जनता के बीच में पहचान बनाने का बड़ा चैलेंज है। ऐसा नहीं है कि शिवसेना में पहली बार कोई बगावत हुई थी। इससे पहले भी तीन बार पार्टी में बगावत हुई, लेकिन 57 साल में यह पहली बार है, जब बिना ठाकरे उपनाम का कोई नेता पार्टी का प्रमुख बनेगा। महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना और ठाकरे परिवार के महत्व को कमतर नहीं आंका जा सकता, लेकिन हिंदुत्व के रास्ते को छोड़ कर सत्ता के लिए समझौता करना कहीं न कहीं उद्धव ठाकरे के लिए महंगा साबित होने लगा है। पहले बीएमसी और फिर 2024 के आम चुनावों से पहले मिले इस झटके को उद्धव ठाकरे कैसे संभालते हैं, इस सवाल का जवाब तलाश रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

पिछले साल जून में अपने एक विश्वस्त सहयोगी एकनाथ शिंदे के हाथों सत्ता गंवाने के बाद 17 फरवरी को उद्धव ठाकरे को उस समय करारा झटका लगा, जब चुनाव आयोग ने आदेश दिया कि एकनाथ शिंदे खेमे को ही पार्टी का आधिकारिक नाम ‘शिवसेना’ और उसके चुनाव चिह्न ‘तीर-धनुष’ के इस्तेमाल की इजाजत होगी। दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली पार्टी का नाम ‘शिवसेना यूबीटी’ और चुनाव चिह्न ‘मशाल’ ही रहेगा। अब सवाल है कि अपने राजनीतिक कैरियर के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे उद्धव ठाकरे के लिए आगे क्या विकल्प बचा है? क्या वह चुनाव आयोग के सामने पार्टी नाम और चुनाव चिह्न के लिए अपनी लड़ाई जारी रखेंगे या फिर जनता को चुनाव में ही यह तय करने देंगे कि वह बाला साहेब ठाकरे के कट्टर वोटों के असल राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं या नहीं।

उद्धव गुट पर इस फैसले का क्या असर होगा
चुनाव आयोग के फैसले के बाद पार्टी के कार्यालयों से लेकर पार्टी से जुड़े सभी संसाधनों को लेकर भी लड़ाई शुरू हो सकती है। शिवसेना भवन को लेकर भी शिंदे गुट अब अपना अधिकार जता सकता है। हालांकि इसके लिए यह देखना होगा कि शिवसेना भवन किसके नाम पर है। अगर किसी ट्रस्ट के जरिये इसका रजिस्ट्रेशन है, तो उस ट्रस्ट में कौन-कौन शामिल हंै।

क्या विकल्प है उद्धव ठाकरे के पास
ठाकरे गुट के पास विकल्पों की बात करें, तो सबसे पहले उद्धव गुट आयोग के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। उद्धव गुट कोर्ट का फैसला आने तक चुनाव आयोग के आदेश पर रोक लगाने की मांग कर सकता है। वहीं जल्द ही होने वाले बीएमसी चुनाव में उद्धव गुट नयी पार्टी के नाम और चुनाव निशान पर लड़कर बेहतर प्रदर्शन कर आयोग के फैसले पर सवाल खड़ा कर सकता है। इसे लेकर संजय राउत का बयान भी सामने आया है।

जनता की अदालत में जायेंगे उद्धव ठाकरे
चुनाव आयोग के फैसले पर उद्धव ठाकरे गुट की निराशा व्यक्त करते हुए सांसद संजय राउत ने कहा कि वह इस फैसले को अदालत में चुनौती देंगे। उन्होंने कहा कि वे अब जनता की अदालत में जायेंगे। कानूनी लड़ाई भी लड़ेंगे। हम असली शिवसेना को फिर से जमीन से उठायेंगे। फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए उद्धव ठाकरे ने कहा कि उनका गुट सुप्रीम कोर्ट का रुख करेगा। उन्होंने कहा कि शिवसेना को कोई खत्म नहीं कर सकता। यहां तक ​​कि रामायण और महाभारत में भी, दोनों पक्षों के पास धनुष और बाण थे, लेकिन केवल राम और पांडव ही क्रमश: युद्ध जीत सके, क्योंकि सत्य उनके साथ था। चोरों ने कागज पर धनुष-बाण चुरा लिया है, लेकिन असली धनुष-बाण, जिसकी पूजा शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे करते थे, आज भी हमारे पास है। हम अपने पूजा रूम में इसकी पूजा करते हैं।

चुनाव चिह्न सबसे महत्वपूर्ण
चुनावी राजनीति में किसी भी पार्टी के लिए चुनाव चिह्न बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि लगभग एक तिहाई वोट एक उम्मीदवार को मिलता है, क्योंकि बहुत से लोग उम्मीदवार को नहीं, बल्कि पार्टी के चुनाव चिह्न को पहचानते हैं। यह एक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है, जो अब उद्धव ठाकरे ने खो दी है। यकीनन पक्के शिवसैनिक शिवसेना और बाला साहेब को ‘धनुष और तीर’ के चुनाव चिह्न से ही जानते हैं। ऐसे में उद्धव के लिए बाला साहेब के उन कोर वोटरों के बीच जाना और उन्हें नये चुनाव चिह्न ‘मशाल’ को याद दिलाना कठिन काम होगा। उद्धव ठाकरे यह जानते हैं कि वह कोई बाला साहेब नहीं हैं। उन्हें बेटे आदित्य के साथ आक्रामक रूप से सड़कों पर उतरना होगा, शिवसैनिकों तक पहुंचना होगा, बाला साहेब की विरासत का आह्वान करना होगा, महाराष्ट्र के लोगों के साथ भावनात्मक जुड़ाव स्थापित करना होगा और ठाकरे खानदान के साथ वोटों को बनाये रखने के लिए शिंदे गुट को देशद्रोही साबित करना होगा। उद्धव ठाकरे को यह भी याद होगा कि शिवसेना पहले भी ‘मशाल’ चुनाव चिह्न पर लड़ चुकी है, लेकिन तब वह मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टी नहीं थी। 1989 में शिवसेना के मोरेश्वर सावे औरंगाबाद लोकसभा चुनाव क्षेत्र से ‘मशाल’ चुनाव चिह्न पर विजयी हुए थे। उस समय बाला साहेब ठाकरे ने चुनावी सभा में ‘मशाल’ चिह्न पर ठप्पा लगाकर शिवसेना प्रत्याशी को जिताने की अपील की थी।

फिर खड़ा होने के लिए उद्धव को क्या करना होगा?
इस समय सबसे बड़ी बात यह है कि उद्धव ठाकरे को जमीनी स्तर पर पकड़ बनाये रखने के लिए कौन से कदम उठाने होंगे। महा विकास आघाड़ी के कारण उद्धव ठाकरे के हिंदुत्व पर पहले ही सवालिया निशान लग चुका है। अगर वह सिर्फ बाला साहेब के नाम पर ही अपनी आगे के राजनीतिक मैदान को तैयार करने की कोशिश में हैं, तो उन्हें इस निशान को मिटाने की कोशिश करनी होगी।

चौथी बार हुई है शिवसेना में बगावत
शिवसेना के 57 साल के इतिहास में यह चौथा अवसर है, जब उसे बगावत का सामना करना पड़ा है। पार्टी में पहली बगावत की शुरूआत 1985 में हुई थी, जब छगन भुजबल ने बाल ठाकरे के फैसले को चुनौती दी थी और अलग रास्ता अख्तियार कर लिया था। उस साल हुए विधानसभा चुनाव में शिवसेना प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। जब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष चुनने की बारी आयी, तो भुजबल को लगा कि बाल ठाकरे उन्हें ही यह जिम्मेदारी देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बाल ठाकरे ने मनोहर जोशी को यह पद दे दिया। इसके बाद भुजबल को प्रदेश की राजनीति से हटाकर शहर की राजनीति तक सीमित कर दिया गया। उन्हें मुंबई का मेयर बनाया गया। पांच दिसंबर 1991 को भुजबल ने बाल ठाकरे के खिलाफ विद्रोह कर दिया। वह पहली बार था, जब ठाकरे परिवार को कहीं से धोखा मिला था। शिवसेना को दूसरी बार तब झटका लगा था, जब 2005 में नारायण राणे ने बगावत की। साल 1996 में शिवसेना-भाजपा सरकार में नारायण राणे को राजस्व मंत्री बनाया गया। इसके बाद मनोहर जोशी के मुख्यमंत्री पद से हटने पर राणे को सीएम की कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। एक फरवरी 1999 को शिवसेना-भाजपा के गठबंधन वाली सरकार में नारायण राणे मुख्यमंत्री बने। हालांकि यह खुशी चंद दिनों की थी। जब उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया, तो नारायण राणे के सुरों में बगावत हावी होने लगी। राणे ने उद्धव की प्रशासनिक योग्यता और नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाये। इसके बाद नारायण राणे ने 10 शिवसेना विधायकों के साथ शिवसेना छोड़ दी और फिर तीन जुलाई 2005 को कांग्रेस में शामिल हो गये। शिवसेना में तीसरी बगावत ठाकरे परिवार के अंदर से हुई। बाल ठाकरे के भतीजे और उद्धव ठाकरे के भाई राज ठाकरे पहले शिवसैनिक हैं, जिन्होंने शिवसेना छोड़ने के बाद नयी पार्टी बनायी। राज ठाकरे ने 2005 में शिवसेना ने नाता तोड़ लिया था। इसके बाद 2006 में उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया। शिवसेना से अपनी राह अलग करने के बाद उनके साथ विधायक भले ही नहीं गये, लेकिन बड़े पैमाने पर लोग उनके पीछे-पीछे शिवसेना छोड़ चल पड़े।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि उद्धव ठाकरे अपने पिता, जिन्हें महाराष्ट्र की राजनीति का सबसे प्रभावशाली खिलाड़ी माना जाता था, की विरासत को कैसे आगे ले जाते हैं।

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