विशेष
-प्रदेश की दोनों समस्याएं बन रहीं एक-दूसरे की पर्यायवाची
-बालू नहीं मिलने से सबसे ज्यादा रोजगार देनेवाला निर्माण कार्य लगभग ठप
-हर रोज बढ़ रही इन समस्याओं पर नहीं है किसी का ध्यान

झारखंड का नाम देश ही नहीं दुनिया की फलक पर है। भागवान बिरसा की यह धरती, जहां सिदो-कान्हू, चांद-भैरव जैसे वीर योद्धाओं की गाथा समेटे हुए है, वहीं इसके जमीन में दबे हैं बहुमूल्य खनिज पदार्थ। इन सभी की वजह दुनिया में यह राज्य पहचान का मोहताज नहीं है। दुख की बात यह है कि राज्य गठन के 23 वर्षों बाद भी यहां के लोगों की न तो दशा बदली और न दिशा। दिन-ब-दिन वे जल, जंगल और जमीन से दूर होने को मजबूर हैं। हर दिन राज्य से बड़ी संख्या में मजदूर पलायन कर रहे हैं। सरकार फख्र से कहती है, हम प्रवासी मजदूरों का डाटा बैंक बना रहे, जिससे बाहर उन्हें कोई परेशानी न हो। बाहर जानेवाले मजदूर अपना पंजीकरण जरूर करायें। सरकार के पास अब तक 1.69 लाख प्रवासी मजदूरों का आंकड़ा है, जबकि जानकारों का कहना है कि इससे कई गुना अधिक मजदूर बगैर पंजीकरण के बाहर हैं। मजदूरों को पंजीकरण कराना चाहिए। यह एक जानकारी रखने और आपात स्थिति में मदद पहुंचाने के लिए अच्छा कदम है। पर सोचने वाली बात यह है कि आखिर मजदूर पलायन करने के लिए विवश क्यों हो रहे हैं? अपने जल, जंगल और जमीन से प्रेम करने वाले ये आदिवासी, मूलवासी, स्थानीय लोग यहां से दूर क्यों भाग रहे हैं? उनकी मजबूरी क्या है? पहले उन कारणों का पता लगाना होगा। फिर उन्हें दूर करना होगा। तभी पलायन रुकेगा। हाल के पलायन को देखें तो समस्या का अंदाजा लगाया जा सकता है। राज्य में खनिज के अंबार के बीच एक बालू जैसी छोटी संपदा है, जिसने छोटे-बड़े कंस्ट्रकशन करनेवालों का दम निकाल दिया है। बालू की कालाबाजारी, बढ़ती कीमत और अन उपलब्धता के कारण बड़े-छोटे निर्माण कार्य ठप होते जा रहे हैं। इसका असर दिहाड़ी मजदूरों पर हो रहा। उनके हाथों से काम छूटता जा रहा है। हालत यह है कि चौक-चौराहों पर एक दिहाड़ी मजदूर ढूंढ़ने जाओ, दस तैयार मिलेंगे चलने के लिए। मजदूरों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ रहा है। नतीजतन छोटे-छोटे दिहाड़ी मजदूर पलायन को मजबूर हैं। यानी समस्या बालू का महंगा या बालू उपलब्ध होना नहीं है। अगर बालू की समस्या का निदान हो जाये, तो काफी हद तक तात्कालिक पलायन को रोका जा सकता है। इसी तरह समय-समय पर पलायन के पीछे के कारणों को तलाशना होगा। उसे दूर करना होगा। तभी राज्य से पलायन रुकेगा। तभी राज्य विकास की ओर अग्रसर होगा। राज्य में बालू की समस्या और मजदूरों के पलायन को खंगालती आजाद सिपाही के राजनीतिक संपादक प्रशांत झा की रिपोर्ट।

कोरोना काल की घटनाएं आपको याद होंगी। जब श्रमिकों को विदेश और दूसरे राज्यों से झारखंड वापसी के लिए सैकड़ों मील पैदल चलना पड़ा था। सरकार को भी उन्हें लाने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। बस, ट्रेन यहां तक कि हवाई जहाज से मजदूरों को लाया गया। उस समय करीब 8.5 लाख मजदूर राज्य में लौटे थे। तब मजदूरों का पलायन रोकने के लिए कई वादे और घोषणाएं हुईं। सरकार ने इ-श्रम निबंधन पोर्टल की शुरूआत की। इस पर सभी मजदूरों को निबंधन कराने के लिए कहा गया। राज्य के बाहर जानेवाले मजदूरों को इस पर अलग से निबंधन की व्यवस्था है, जिससे आपात स्थिति में उन्हें मदद की जा सके। सरकार के इस कदम की सराहना की जा सकती है। प्राप्त जानकारी के अनुसार श्रम पोर्टल पर अब तक 9.5 लाख मजदूरों का पंजीकरण है, जिनमें से 1.67 लाख प्रवासी मजदूर हैं। यानी कोरोना के तीन साल बाद भी स्थिति में बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है। सूबे से मजदूरों का पलायन कोराना संकट टलने के बाद फिर हुआ, जो आज भी जारी है।यह एक बड़ी और गंभीर समस्या है। झारखंड के मजदूर रोजी-रोटी के लिए बड़ी तादाद में देश के अन्य राज्यों से लेकर विदेशों की ओर रुख कर रहे हैं।

कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में सबसे अधिक मजदूर:
राज्य के मजदूरों को अलग-अलग हिस्सों में बांटा जाये, तो सबसे अधिक मजदूर कंस्ट्रक्शन क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। चाहे वह पुल-पुलियों का निर्माण हो, या सड़क निर्माण, बड़े-छोटे भवन निर्माण आदि। राज्य के ज्यादातर मजदूर इसी क्षेत्र से जुड़े हैं। श्रम विभाग के आंकड़ों के अनुसार इस क्षेत्र से जुड़े 7.18 लाख मजदूर पंजीकृत हैं। हालांकि इससे कहीं ज्यादा मजदूर कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में लगे हैं, क्योंकि यह आकड़ा केवल बड़ी-बड़ी योजनाओं में काम करनेवालों से ही प्राप्त मजदूरों की संख्या का ही है। छोटे-छोटे स्तर पर काम करनेवाले का तो पंजीकरण ही नहीं हुआ है। यानी अगर राज्य में निर्माण कार्य होगा, तो इनके पास रोजगार होगा और अगर निर्माण कार्य नहीं होगा, तो ये बेरोजगार होंगे। फांकाकशी में जीवन व्यतीत होगा। वह पलायन के लिए मजबूर होंगे, जिसकी शुरूआत हो चुकी है। मजबूरी में मजदूर पलायन की ओर अग्रसर हैं। इसकी मुख्य वजह राज्य में बालू की किल्लत है।

444 बालू घाटों में से सिर्फ 21 ही वैध:
राज्य में बालू की किल्लत है। बालू की कालाबाजारी हो रही, कीमत आसमान छू रहे हैं। इसका असर निर्माण कार्य पर हो रहा। रांची में 10 हजार रुपये प्रति हाइवा मिलनेवाला बालू ब्लैक में 40 हजार रुपये में मिल रहा है। तीन हजार रुपये प्रति टर्बो बालू की कीमत अब 8000 से 8500 तक हो गयी है। वह भी काफी मुश्किलों के बाद मिल पाता है। यह स्थिति कमोबेश राज्य के हर जिले में है। दरअसल राज्य सरकार ने हाल में 444 बालू घाटों में से 351 की नीलामी प्रक्रिया जेएसएमडीसी के माध्यम से संपन्न करायी थी। इनमें 216 घाटों की नीलामी प्रक्रिया पूर्ण कर ली गयी। वहीं, 135 घाटों की निविदा प्रक्रिया चल रही है। पूर्व से राज्य भर में केवल 21 बालू घाट ही ऐसे हैं, जिनकी बंदोबस्ती हो चुकी है। यानी पूरे राज्य में केवल 21 बालू घाट चालू हैं। इन्हीं घाटों से वैध रूप से बालू का उठाव हो रहा है। शेष सभी घाटों से अवैध रूप से बालू का उठाव हो रहा है और कालाबाजारी हो रही। नतीजन बालू की कीमत आसमां पर है।

निर्माण कार्य पर हो रहा असर:
बालू की बढ़ती कीमत के कारण निर्माण कार्यों पर असर हो रहा। छोटे-छोटे निर्माण कार्य तो रुक ही गये हैं, तो बड़े-बड़े निर्माण कार्य की गति धीमी हो गयी है। नतीजतन मजदूरों को काम नहीं मिल रहा। वह फांकाकशी की ओर बढ़ रहे। व्यक्तिगत निर्माण को छोड़ दें, तो केवल रांची में 200 से अधिक छोटे-बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं। एक जिला में औसत 100 निर्माण कार्य को भी लें तो पूरे राज्य में 2400 हो रहे होंगे। इन सब पर बालू की बढ़ती कीमत का असर पड़ा है। छोटे और निजी निर्माण तो लगभग रुक ही गये हैं। बालू की कीमत को देख कर लोग अपने निर्माण काम को फिलहाल टालने लगे हैं।

एक दूसरे से जुड़ी हैं कड़ियां:
निर्माण कार्य, बालू, मजदूर और पलायन एक दूसरे से जुड़े हैं। अगर बालू आसानी से उपलब्ध होगा, तो निर्माण कार्य होंगे। निर्माण कार्य होंगे तो कंस्ट्रक्शन क्षेत्र से जुड़े मजदूरों को रोजगार मिलेगा। उन्हें रोजगार मिलेगा, तो पलायन की नौबत नहीं आयेगी। यानी कम से कम कंस्ट्रक्शन क्षेत्र से जुड़े पलायन के पीछे का कारण बालू ही है। कई ठेकेदार ऐसे हैं, जो पूरे गांव के लोगों को एक साथ लेकर दूसरे राज्य तक जाते हैं और वहां लोगों को मजदूरी दिलाते हैं। कंस्ट्रक्शन साइट पर ही उन्हें रखा जाता है। वहीं उनसे काम लिया जाता। इस तरीके के संगठित पलायन में शोषण भी खूब होता है। इतना ही नहीं, मानव तस्करी को भी इससे बल मिलता है। जानकार कहते हैं, जब मजदूरों को दूसरे राज्यों में काम मिल जाता तो, ऐसे लोगों पर भोले-भाले ग्रामीण ज्यादा भरोसा करते हैं। वह रोजगार की लालच में राज्य के बाहर जाते हैं। इनमें आदिवासी, बच्चे, लड़कियां आदि शामिल होती हैं। राज्य में पिछले पांच साल में 700 से अधिक मानव तस्करी के मामले दर्ज हुए हैं। अनुमान के अनुसार राज्य में मानव तस्करी के लगभग 5000 से अधिक लोग शिकार हुए हैं।

व्यवस्था को तत्काल ठीक करने की जरूरत:
इतना तो तय है कि राज्य में बालू की समस्या है। कलाबाजारी हो रही। कीमत आसमां छू रहा है। अगर व्यवस्था तत्काल ठीक नहीं हुई, तो पलायन और बढ़ेगा। जबकि हालात इसके उलट दिख रहे हैं। जिन बालू घाटों की नीलामी की है, उनके माइंस डेवलपर आॅपरेटर का चयन कर लिया गया है। इन्हें लेटर आॅफ इंटेंट दे दिया गया है। इसके बावजूद बालू निकालने में विलंब होगा। इसकी वजह यह है कि बालू घाटों के टेंडर के बाद माइनिंग प्लान, पर्यावरण अनापत्ति प्रमाण पत्र और कंसेट टू आॅपरेट लेना पड़ता है। इसके लिए स्टेट इनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट अथॉरिटी (सिया) के पास आवेदन करना पड़ता है, जहां से इसकी मंजूरी मिलती है। हालत यह है कि बीते साल नवंबर से ही राज्य में सिया कार्यरत नहीं है। इसके पदाधिकारियों का कार्यकाल समाप्त हो गया है। जब तक सिया का गठन नहीं होता, तब तक बालू घाटों को पयार्वरण से मंजूरी नहीं मिलेगी। बिना मंजूरी के बालू उठाव अवैध है। इस प्रक्रिया को पूरी करने में समान्यत: छह महीने लगेंगे। यानी जुलाई-अगस्त से पहले बालू उठाव वैध तरीके से संभव नहीं है। इस बीच जून महीने से बालू उठाव पर एनजीटी से रोक लगेगी। यानी बालू की समस्या बरकरार रहेगी। इसलिए सरकार को वैकल्पिक व्यवस्था पर सोचने की जरूरत है। बालू घाटों के वैध उठाव के लिए प्रक्रिया में तेजी लाने के साथ-साथ इसकी वैकिल्पक आपूर्ति के बारे में भी सोचना होगा। नहीं तो आनेवाले दिनों में राज्य से पालयन भारी संख्या में होने से इंकार नहीं किया जा सकता है।

निर्माण क्षेत्र से जुड़े पंजीकृत मजदूर वाले टॉप पांच जिले:
हजारीबाग-1,47,061
चतरा-95,303
रामगढ़-59205
रांची-46,678
गोड्डा-39,775

टॉप पांच जिलों के पंजीकृत प्रवासी मजदूर (सभी तरह के काम करने वाले)
गिरिडीह- 19,049
गोड्डा-16,492
पाकुड़-14,716
प. सिंहभूम-13,533
गुमला-13,208

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